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H
airtunehasinry.
भाषाभास्कर।
अर्थात हिन्दी भाषा का व्याकरण ।
काशी नगर के पाद्रो एथरिङ्गटन साहिब ने विद्यार्थियों की शिक्षा निमित्त
बनाया
थीसहि सोस नवाइ के किया नया यह ग्रन्थ । भाषाभास्कर याहि लखि लखें लोग पदपन्य ॥
BHÁSHÁBHÁSKAR,
A GRAMMAR
or THB HINDI LANGUAGE: DESIGNED FOR NATIVE STUDENTS.
BY THE Rev. W. ETHERINGTON,
Missionary, Benares.
SITH EDITION.
PRINTED BY ORDER OF THE DIRECTOR OF PUBLIC INSTRUCTION, N.-W. P.
PRINTED AT THE X.-W. P. AND OUDE GOVERNMENT PRESS, ALLAHABAD.
1882.
6th edition, 10,000 copies. : Price, per copy, 4 annas. )
छठवींबार १०,००० पुस्तके । मोल फ़ी पुस्तक | आने
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भाषाभास्कर।
. अर्थात हिन्दी भाषा का व्याकरण ।
. देवगुपसूरी ज्ञानभंडार.
पाली. (पजस्थान)
काशी नगर के पाद्री एथरिङ्गटन साहिब ने विद्यार्थियों की शिक्षा निमित्त
बनाया
यीसुहि सीस नवाइ के..कियो नयो यह यन्य। भाषाभास्कर याहि लखि लखें लोग पदपन्य ।
BHÁ SHÁBHÁSKAR,
A GRAMMAR
OF THB
HINDI LANGUAGE DESIGNED FOR NATIVE STUDENTS
BY THE
Rev. W. ETHERINGTON,
Missionary, Benaru.
SIXTH EDITION.
PRINTED BY ORDER OF THE DIRECTOR OF PUBLIC INSTRUCTION, H.-8. .
PRINTED AT THEN.-W. P. AND OUDH GOVERNMENT PRESS, ALLAHABAD.
' 1882.
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4649
PREFACE TO THE FIRST EDITION.
"The Student's Grammar of the Hindi Language," published by me last year, was reviewed by the Director of Public Instruction, North-Western Provinces, and recommended to Government for a prize. "Being a work in the English language, it hardly comes within the scope of the Prize Notification, which relates only to vernacular literature;" but His Honor the Lieutenant-Governor suggested that the book, if put into a form suitable for use in vernacular education, "would be a valuable contribution to the vernacular literature, and, as such, a fit subject for a prize "* In accordance with this suggestion, the little book in the hands of the reader was prepared.
Being designed for Native youth, this is not a mere translation of the "Student's Hindi Grammar," which would not have served the purpose, that book being adapted to the wants of Europeans having no knowledge of the Indian dialects. In the following pages the reader will find much that is new, as regards both matter and arrangement, in every chapter, especially in the treatment of the noun and the verb. I have taken advantage of the criticism of scholars who reviewed the former book here and in England, and have felt it necessary to omit or to modify some points that I formerly held as correct.
ral instances I have ventured to differ from well-known Hindi scholars; but in no case hastily, or without being, as I supposed, justified by what seemed to me to be the facts of the case.
I have read whatever came in my way that seemed likely to aid me in the preparation of the book, and have made use of whatever promised to afford help to Native students in acquiring a competent knowledge of the structure of their mother-tongue. I am in a great measure indebted to the advice and suggestions of the accomplished Pandit Vishan Datt, who prepared the greater part of the last chapter and revised the entire book with me.
BENARES, October, 1871,
W. ETHERINGTON.
A prize of five hundred rupees was awarded to the author on the appearance of the first edtion of this book. The arpyright of this second and improved edition has been purchased by Government.
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सूचीपत्र ।
. प्रथम अध्याय - वर्णविचार ..
स्वरों के विषय में ... व्यंजनों के विषय में संयुक्त व्यंजन .. उच्चारण के विषय में
स्वरचक्र और व्यंजनचक्र द्वितीय अध्याय – संधिप्रकरण
स्वरसंधि .. दीर्घ गुण ..
: :: ::..
: :: :: :: :: :
यण .. अयादि .. स्वरसंधिचक्र २ व्यंजनसंधि
३ विसर्ग संधि तृतीय अध्याय - शब्दमाधन
स्त्रीलिङ्ग प्रत्यय .. संज्ञा का रूपकरण ..
गुणवाचक के विषय में बाथा अध्याय
के विषय में पुरुषजाची सर्वनाम .. निश्चयवाचक " .. अनिश्चयवाचक" .. भादरसूचक " .. प्रश्नवाचक . ..
सम्बन्धवाचक " .. पाचवा अध्याय -हिमा के विषय में ..
• . निया का सम्पर्ण रुप
स
वन
:: :: :: :: :: :: :
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Page #5
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सूचीपत्र ।
. क्रिया के बनाने की रीति नियाचक्र .. ..
संयुक्तक्रिया छठवां अध्याय - कृदन्त के विषय सातवां अध्याय - कारक " पाठवां अध्याय - तद्धित “ नवां अध्याय - समास दसवां अध्याय - अव्यय
৫ জিয়ানিহায্য २ सम्बन्धसूचक ३ उपसर्ग ४ संयोजक ५ विभाजक
६ विस्मयादिबोधक .. ग्यारहवां अध्याय- वाक्यविन्यास
पदयोजन का क्रम .. विशेष्य. और विशेषण लताधान वाक्य ..
कर्मप्रधान वाक्य .. धारहवां अयाय - छन्टोनिरूपण
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भाषाभास्कर ___ अर्थात
का व्याकरण ॥
अथ प्रथम अध्याय ।
१ भाषा उसे कहते हैं जिसके द्वारा बोलकर मनुष्य अपने मन के बिचार का प्रकाश करता है। ____२ व्याकरण के बिन जाने शुद्ध २ बोलना वा लिखना किसी भाषा का नहीं होता।
३ उस विद्या को व्याकरण कहते हैं जिस से लोग बोलने और लिखने की रीति सीख लेते हैं । - ४ भाषा वाक्यों से बनती है वाक्य पदों से और पद अक्षरों से बनाये जाते हैं। - ५ व्याकरण में मुख्य विषय तीन हैं जो अक्षरों से पदों से और वाक्यों से सम्बन्ध रखते हैं ॥
६ पहिला विषय वर्णविचार है जिस में अक्षरों के आकार उच्चारण और मिलने की रीति बताई जाती है ॥ - दूसरा विषय शब्दसाधन है जिस में शब्दों के भेद पवस्था
और व्युत्पत्ति का वर्णन है ॥ ____८ तीसरा विषय वाक्यविन्यास हे उस में शब्दों से वाक्य बनाने - की रीति बताई जाती है ॥
प्रथम विषय-वर्णविचार । . हिन्दी भाषा जिन अक्षरों में लिखीजाती है वेदेवनागरीकहाते हैं।
१० शब्दके उस खण्ड का नाम अक्षर है जिसका विभाग नहीं हो सकता __ और उसके चीन्हने के लिये जो चिन्ह बनाये गये हैं वे भी अक्षर कहाते हैं।
११ अक्षर दो प्रकार के होते हैं स्वर और व्यंजन और इन्हीं दोनों के समुदाय को वर्णमाला कहते हैं ।
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भाषाभास्कर
।
१२ स्वर उन्हें कहते हैं जो व्यंजनों के उच्चारण में सहायक होते हे और जिनका उच्चारण आप से हो सकता है।
१३ व्यंजन उन वर्णों को कहते हैं जिनके बोलने में स्वर की सहायता पाई जाय ॥
स्वर । अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ टु ल्ह* ए ऐ ओ ओ
व्यंजन। क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प . फ ब भ म य र ल व .
श ष स ह १४ व्यंजनों का स्पष्ट उच्चारण स्वर के योग मे होता हे जेसा क + प्र=क ख+अम्ख इत्यादि । और जब क आदि व्यंजनों में स्वर नहीं रहता तो उन्हें हल कहते हैं और उनके नीचे ऐसा चिन्ह कर देते हैं। किसी अक्षर के आगे कार शब्द जोड़ने से वही अक्षर समझा जाता है।
१५ अनुस्वार और विसर्ग भी एक प्रकार के व्यंजन हैं । अनुस्वार का उच्चारण प्रायः हल नकार के समान और विसर्ग का हकार के तुल्य होता है।
१६ अनुस्वार का आकार स्वर के ऊपर की एक बिन्दी और विसर्ग का स्वरूप स्वर के आगे का खड़ी दो बिन्दियां हैं। अनुस्वार जैसे हंस घंश में विसर्ग जेसे प्रायः दुःख इत्यादि में है। .
स्वर के विषय में ।
१० मल स्वर नव हैं उनके स्वरूप ये हैं अ इ उ ऋ ए ऐ ओ श्री। इन में से पहिले पांच ह्रस्व और पिछले चार दीर्घ और संयुक्त भी कहाते हैं। संयुक्त कहने का अर्थ यह है कि अ+ इ = ए आ + ई = ये अ+ उ = ओ और आ + ऊ = ओ ॥ __१८ अकार के बोलने में जितना समय लगता है उसे ही माग कहते हैं । जिस स्वर के उच्चारण में एक मात्रा होवे उसे ह्रस्व वा एक _ * ऋतृ तृ ये वर्ण हिन्दी शब्दों में नहीं आते केवल देवनागरी . वर्णमाला की पूर्णता निमित राये गये हैं ॥
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भाषाभास्कर
माचिक कहते हैं और जिनके बोलने में इसका दना काल लगे वे दीर्व अथवा द्विमाचिक कहाते हैं। जेसे अह उ ऋ ल ये ह्रस्व वा एकमाधिक हैं।
आ ई ऊ ऋ तृ ए ऐ ओ औ ये दीर्घ वा द्विमाचिक हैं। ए ऐ ओ औ ये दीर्घ और संयुक्त भी हैं ॥
१६ जिस स्वर के उच्चारण में हस्व के उच्चारण से तिगुना काल लगता है उसे प्लत वा चिमाचिक कहते हैं और उसका प्रयोजन हिन्दी भाषा में थोड़ा पड़ता है केवल पकारने और चिल्लाने आदि में बोला जाता है। उसके पहचानने को दीर्घ के ऊपर तीन का अंक लिख देते हैं। जेसे हे मोहना ३ यहां अंत्य स्वर को लत बोलते हैं |
२० अकार आदि स्वर जब व्यंजन से नहीं मिले रहते तब उन्हें स्वर कहते हैं और वे पूर्वोक्त आकार के अनुसार लिखे जाते हैं परंतु जब ककार आदि व्यंजनों से मिलते हैं तो इनका स्वरूप पलट जाता है और ये माना कहाते हैं। प्रत्येक स्वर के नीचे उसकी मात्रा लिखी है ॥ अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ तृ तृ ए ऐ ओ ओ । .. . . . । ।
व्यंजनों के विषय में ॥ २१ सम्पर्ण व्यंजनों के सात विभाग हैं। वर्णमाला के क्रम के अनुसार ककार से लेकर मकार लो जो पचीस व्यंजन हैं जिन्हें संस्कृत में स्पर्श कहते हैं उन में पांच वर्ग होते हैं और शेष आठ व्यंजनों के दो भाग हैं अर्थात अंतस्थ और ऊष्म । जेसे ।। क ख ग घ ङ यह क- वर्ग है।
" च- वर्ग ट ठ ड ढ ण
ट- वर्ग त थ द ध न
त- वर्ग
- वर्ग ये अंतस्थ हैं।
ये ऊष्म हैं। २२ प्रयत्न के अनुसार व्यंजनों के दो भेद होते हैं अर्थात अल्पपाय श्रार महाप्राण । प्रत्येक वर्ग के पहिले और तीसरे अक्षरों को अल्पप्राण और
431 AN
A
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1
भाषाभास्कर
दूसरे और चौथे को महाप्राण कहते हैं । जैसे कवर्ग में क ग अल्पप्राणा और ख च महाप्राण हैं । इसी प्रकार से चवर्ग आदि में भी जाने! | जैसे
श्रल्पप्राण ।
महाप्राण |
क ग
ख घ
च न
छ भ
ट ड
ठ ढ
त द
थ ध
प ब
फ भ
२३
रकार और ऊष्म को छोड़कर शेष अक्षरों के भी दो और भेद हैं सानुनासिक और निरनुनासिक | चिनका उच्चारण मुख और नासिका से होता है उन्हें सानुनासिक कहते हैं और जो केवल मुख से बोले जाते हैं वे निरनुनासिक कहाते हैं ॥
२४ वर्णों के सिर पर ऐसा ँ चिन्ह देने से सानुनासिक होता है परंतु भाषा में प्राय: अनुस्वार ही लिखा जाता है और निरनुनासिक का कोई चिन्ह नहीं है ।
२५ प्रत्येक वर्ग के पांचवें व का सानुनासिक अल्पप्राण कहते हैं । जैसे
ङ ज ण न म
२६
जब व्यंजन के साथ मात्रा मिलायी जाती है तब व्यंजन का आकार माचासहित हो जाता है । जैसे
क का कि की कु कू कृ कॄ क्लृ क्लृ के के को को
इसी रीति ख आदि मिलाकर सब व्यंजनों में जाने। परंतु जब उ वा ऊ की मात्रा र के साथ मिलाई जाती है तब उसका रूप कुछ विकृत होता है । जैसे रु रू ॥
संयुक्त व्यंजन
२०
जब दो आदि व्यंजनों के मध्य में स्वर नहीं रहता तब उन्हें संयोग कहते हैं और वे एकही साथ लिखे जाते हैं । जैसे पत्थर . इस शब्द में त और थ का संयोग है ॥
त्
२८
बहुधा संयुक्त अक्षरों की लिखावट में मिले हुए व्यंजनों का रूप दिखाई देता है परंतु च वज्ञ इन अक्षरों में जिनके संयोग से बने
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भाषाभास्कर
५
.
हैं उनका कुछ भी रूप नहीं दिखाई देता इसलिये कोई कोई व्यंजनों के साथ वर्णमाला के अंत में इन्हें लिख देते हैं । क और घ के मेल से न और त् और र के योग से च और ज और जमिनके ज्ञ बन गया है | "
२६ प्रायः संयोग में आदि के व्यंजन का आधा और अंत के व्यंजन · का पूरा स्वरूप लिखा जाता है। जैसे विस्वा प्यास मन्दिर इत्यादि में ॥
__३० ङ छ ट ठ ड ढ ये छः घ्यंजन ऐसे हैं जो संयोग के आदि में भी परे ही लिखे जाते हैं। जैसे चिट्ठी टिड्डी आदि में ॥
३१ रकार जब संयोग के आदि में होता है तब उसके सिर पर लिखा जाता है और उसे रेफ कहते हैं। जैसे पूर्व धर्म आदि में । परंतु जब रकार संयोग के अंत में आता है तो आदि के व्यंजन के नीचे इस रूप से - लिखा जाता है। जैसे शक चक्र मुद्रा आदि में |
३२ हिन्दी भाषा में संयोग बहुधा दो अक्षरों के मिलते हैं, परंतु कभी २ तीन अक्षरों के भी आते हैं। जैसे स्त्री मन्त्री मद्धा इत्यादि ॥
३३ प्रत्येक सानुनासिक व्यंजन अपनेही वर्ग के अक्षरों से युक्त हो सकता है और दूसरे वर्ग के वर्णों के साथ कभी मिलाया नहीं जाता परंतु अनुस्वार बना रहता है। जैसे पङ्कज चञ्चन घण्टा छन्द थाम्मना गंगा ऊंट इत्यादि ॥ __ ३४ यदि अनुस्वार से परे कवर्ग आदि रहें तो उसको भी ङकाय
आदि सानुनासिक पञ्चम वर्ण करके ककार आदि में मिला देते हैं । जैसे अङ्क शान्त इत्यादि ॥
३५ यदि किसी वर्ग के दूसरे वा चौथे अक्षर का द्वित्व हो तो संयोग के आदि में उसी वर्ग का पहिला वा तीसरा अक्षर आवेगा जैसे गफुफागपफा आदि ।
३६ संयोग में जो अक्षर पहिले बोले जाते हैं वे पहिले लिखे जाते हैं और जिनका उच्चारण अंत में होता है उन्हें अंत में लिखते हैं। जेसे शब्द अब अन्त्य इत्यादि ।
अक्षरों के उच्चारण के विषय में । ३० मुख के जिस भाग से किसी अक्षर का उच्चारण होता है उसी . भाग को उस पक्षर के उच्चारण का स्थान कहते हैं।
र
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E
भाषाभास्कर
३८
अ आ क ख ग घ ङ ह और विसर्ग इनका उच्चारण कण्ठ से होता है इसलिये ये कण्ठा कहाते हैं ॥
३६ इ ई च छ ज झ ञ य श तालु पर जीभ लगाने से ये सब वर्ण बोले जाते हैं इसलिये ये अक्षर तालव्य कहाते हैं ॥
४०
ऋ ॠ ट ठ ड ढ ण र ष ये मूद्धी अर्थात तालु से भी ऊपर जीभ लगाने से बाले नाते हैं इसलिये इनको मूर्द्धन्य कहते हैं ॥
४१ चेत रखना चाहिये कि ड और ढ के दो २ उच्चारण होते है एक तो यह कि जब इन अक्षरों के नीचे बिंदु नहीं रहता तो जीभ का अग्र तालु पर लगाते हैं जैसे डरना डाकू ढाल ढाल इन शब्दों में । इन अक्षरों के नीचे बिन्दु होने से दूसरा उच्चारण समझा जाता है इसके बालने में जीभ का अग्र उलटा करके मूर्द्धा से लगाया जाता है । जैसे बड़ा थोड़ा पढ़ना चढ़ना इन शब्दों में ॥ यह भी चेत रखना चाहिये कि अनेक लोग घ का उच्चारण ख के समान कर देते हैं जैसे मनुष्य को मनुख्य भाषा का भाखा दोष को दोख बोलते हैं परंतु यह रीति अशुद्ध ਛੇ 11 त थ द ध न ल स ये ऊपर के दन्तों पर जीभ लगाने से उच्चरित होते हैं इसलिये इन अक्षरों को दन्त्य कहते हैं ॥
४२
४३ उ ऊ ए फ ब भ म ये आठों से बोले जाते हैं इसलिये इन्हें ओष्ठ्य कहते हैं ॥
४४ ए ऐ इनके उच्चारण का स्थान कण्ठ और तालु है इसलिये ये कण्ठोष्ठा कहाते हैं॥
४५ ओ ओ कण्ठ और आष्ट से बोले जाते हैं इसलिये ये कण्ठोष्ठ्य कहाते हैं ॥
४६
व के उच्चारण स्थान दन्त और श्रेष्ठ हैं इसलिये इसे दन्त्योष्ठ्य कहते हैं ॥ ब और व ये दो वर्ग बहुधा परस्पर बदल जाते हैं । संस्कृत शब्दों में जहां व होता है वहां हिन्दी में ब लगाते हैं और कभी २ व की जगह में ब बोलते हैं पर संस्कृत में जैसा शब्द हे वैसा ही प्रायः हिन्दी में होना चाहिये ॥
४०
अनुस्वार का उच्चारण नासिका से होता है इसलिये सानुलामिक कहाता है
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भाषाभास्कर
४८ ङ ज ण न म ये अपने २ वर्गों के स्थान और नासिका से भी बोले जाते हैं इसलिये ये सानुनासिक कहाते हैं ॥
४६ जिन अक्षरों के स्थान और प्रयत्न समान होते हैं वे आपस में सवर्ण कहाते हैं जैसे क और ग का स्थान कण्ठ है और इनका समान प्रयत्न हे इस कारण क ग आपस में सवर्ण कहाते हैं। नीचे के दो चक्रों से वर्णमाला के सब अक्षरों के स्थान और प्रयत्न ज्ञात होते हैं । ५०
__ स्वर चक्र
'विवृत और घोष प्रयत्न स्थान
दीर्घ
स्थान कण्ठ
कण्ठ + तालु तालु
कण्ठ + तालु कण्ठ + आठ
कण्ठ + आष दन्त
व्यंजन चक्र अघोष घोष
अघोष
ओष्ठ
स्थान
IMInter
IMIMhA
सानुनासिक
अल्पप्राण अन्तस्थ
महाप्राण ऊष्म
महाप्राण ऊष्म
कवगे
कण्ठ
42 अल्पप्राण 420| महाप्राण
DIDhes FNNER
चवर्ग
PCPM
तालु मद्धा दन्त
तत्रगे
।
न
।
पवर्ग
आठ
इति प्रथम अध्याय ।
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भाषाभास्कर
अथ द्वितीय अध्याय ॥
अध्याय ॥
संधि प्रकरण ।
५२ प्रायः प्रत्येक भाषा में कहीं २ ऐसा होता है कि दो अक्षर निकट होने से परस्पर मिल जाते हैं उनके मिलने से जो कुछ विकार होता है उसी को संधि कहते हैं ॥
५३ संस्कृत भाषा में सब शब्द संधि के आधीन रहते हैं और हिन्दी में संस्कृत के अनेक शब्द आया करते हैं उनके अर्थ और व्युत्पत्ति समझने के लिये हिन्दी में संधि का कुछ ज्ञान आवश्यक है ।
अब संधि के मुख्य नियम जो हिन्दी के विद्यार्थियों को काम आवे उन्हें लिखते हैं ॥
५४ संधि तीन प्रकार की है अर्थात स्वरसंधि व्यंजनसंधि और विसर्गसंधि॥
५५ स्वर के साथ स्वर का जो संयोग होता है उसे स्वरसंधि कहते हैं॥
५६ व्यं जन अथवा स्वर के साथ व्यंजन का जो संयोग होता है उसे व्यंजनसंधि कहते हैं । ____५० स्वर और व्यंजन के साथ जो विसर्ग का संयो.. होता है उसे विसर्गसंधि कहते है ॥
१ स्वरसंधि ।
५८ स्वरसंधि के पांच भाग हैं अर्थात दीर्घ गुण वृद्धि यण और अयादि चतुष्टय ॥
१ दीर्घ । ___५६ जब समान दे। स्वर ह्रस्व वा दीर्घ एकटे होते हैं तो दोनों को मिलाकर एक दीर्घ स्वर कर देते हैं। यह बात नीचे के उदाहरण देखने से प्रत्यक्ष हो जायगी
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यदि पर्व पद के अंत में पहिली पांती का स्वर हो
आ
आ
for foot
उ
ऊ
ट
यदि पर्व पद
अंत में पहिली पंक्ति का स्वर हा
और पर पद के आदि में दूसरी पांती का स्वर होवे
अ
FFFF
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श्रा
श्र
ho Mo
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16 m
ऊ
उ
भाषाभास्कर
तो दोनों मिलकर तीसरी पांती का स्वर हो जायगा
और पर पद क
आदि में दूसरी पंक्ति का स्वर है। वे
for tr
आ
आ
आ
श्रा
ऊ
ऊ
ऊ
ॠ
दोनों मिलकर तीसरी पंक्ति का
स्वर हो जायगा
ए
रा
उदाहरण
2
असिद्ध संधि
परम + अर्थ
=
देव
+ आलय = विद्या + अर्थो
सिद्ध संधि
विद्या + आलय =
प्रति + इति अधि + ईश्वर
मही + इन्द्र नदी + ईश विधु + उदय लघु + ऊर्मि स्वयंभू+ उदय मातृ + ऋद्धि
= प्रतीति
=
२ गुण ।
€0
ह्रस्व अथवा दीर्घ अकार से परे ह्रस्व वा दीर्घ इ उ ऋ रहें तो अ इ मिलकर ए और उ मिलकर ओ अ ऋ मिलकर अर होता है । इसी कहते हैं । नीचे के चक्र में इनके उदाहरण लिखे हैं ॥
विकार को
गुण
उदाहरण|
=
परमार्थ
देवालय विद्यार्थी
विद्यालय
=
= नदीश
=
=
=
अधीश्वर महीन्द्र
विधूदय
लघुि
स्वयंभूदय
मातृद्धि
असिद्ध संधि
सिद्ध संधि
देव + इन्द्र = देवेन्द्र परम + ईश्वर = परमेश्वर
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भाषाभास्कर
24_asaina
| महा + इन्द्र = महेन्द्र
महा + ईश = महेश हित + उपदेश= हितोपदे। जल + कर्मि = जलार्म महा + उत्सव = महोत्सव गंगा + ऊर्मि = गंगार्मि हिम + ऋतु = हिमतु महा + मषि = महर्षि
३ वृद्धि।
६१ हस्व अथवा दीर्घ अकार से परे ए ऐ ओ वा औ रहे तो अ ए वा अ ऐ मिलकर ऐ और अओ वा भी मिलकर औ होता है। इस विकार को वृद्धि कहते हैं । उदाहरण चक्र में देख लो ।
उदाहरण
असिद्ध मंद्धि
सिद्ध संधि
| यदि पर्व पद के पांती का स्वर हो
और पर पद के 44444 | अंत में पहिली
पांती का स्वर हो तो दोनों मिलकर
स्वर होता है salal alu तीसरी पांती का
एक + एक = एकेक परम + ऐश्वर्य = परमैश्वर्य तथा + एव = तथेव महा + ऐश्वर्य = महेश्वर्य सुन्दर + ओदन = सन्दीदन महा + ओषधि= महोषधि परम + औषध = परमौषध महा + औदार्य = महादार्य
|
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भाषाभास्कर
४ यण ।
६२ हस्व वा दीर्घ इकार उकार ऋकार से पर कोई भिन्न स्वर रहे तो कम से इस्व वा दीर्घ इ उ ऋ को य व र हो जाते हैं। इसी विकार को यण कहते हैं। यथा
उदाहरण
| यदि पूर्व पद के
अंत में पहिली पांती का स्वर होवे और पर पद के आदि में दूसरी पांतीका स्वर होवे | तो दोनों मिलकर तीसरी पांती के वर्ण हो जायेंगे
प्रसिद्ध संधि
| सिद्ध संधि
MA9aaaaaaaDANAWARA
यदि + अषि = यद्यपि इति + आदि - इत्यादि प्रति + उपकार - प्रत्युपकार नि + अन = न्यून प्रति + एक = प्रत्येक अति + ऐश्वर्य = अत्यैश्वर्य युवति + ऋतु = युषत्यतु गोपी + अर्थ = गोप्यर्थ देवी + आगम = देव्यागम सखी + उक्त = सख्युक्त अनु + य = अन्वय सु + आगत = स्वागत
+ इत = अन्वित अनु + एषण = अन्वेषण वहु + ऐश्वर्य = वहश्वर्य सरयू + अम्बु = सरय्वम्ब पितृ + अनुमति = पिचनुमति मातृ + आनन्द = मात्रानन्द
श्रा
रा
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भाषाभास्कर
५. अयादि।
६३ ए ऐ ओ औ इन से जब कोई स्वर आगे रहता है तो क्रम से प्रय आय अव श्राव हो जाते हैं। इस विकार को अयादि कहते हैं। नीचे के चक में उदाहरण लिखे हैं ॥
उदाहरण
प्रसिद्ध संधि
सिद्ध संधि
अय
पद के याद पर्व पद के पांती का स्वर हो पंती का स्वर हो | आदि में दूसरी
तो अंत्य स्वर के वदले तीसरी पांती और पर
के वर्ण हो जाते हैं Nagesh | अंत में पहिली
4 aaula
ने +
अन = नयन ने + ऋक = नायक पा + अन = पवन
इच = पवित्र
ईश = गवीश पो + क = पावक
भी + दनी = भाविनी | भी + उक = भावुक
+ + +
স্বান্ত
স্থাৰ
श्राव
६४ यदि शब्द के अनन्तर में ए वा ओ रहे और पर शब्द के आदि में अ आवे तो अ का लोप हो जायगा। उसको लुप अकार कहते हैं और ऐसे ऽ चिन्ह से वोधित होता है। यथा सखे+अर्पयःसखेऽपय ॥
६५ अंत्य और आद्य स्वर के संयोग से सो मंधि फल होता है वह नीचे के चक्र देखने से ज्ञात होता है। जैसे अत्य स्वर ई और आदि स्वर ए हो तो दोनों का संधि फल वहां पर देखा जहां ईकार की पांती एकार की पांती से मिलजाती है तो वह सुमता पूर्वक प्राप्त हो जायगा। इसी रीति स्वर संधि के लिखे हुए जितने नियम हैं वे सब इस चक्र में प्रत्यक्ष देख पड़ेंगे।
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आदि स्वर
| औ
| य
या
ई
Amon444
य॒ यू.
य यु
ये ये
" Qll alsh shal Area
यो । यो । यो
अत्य स्वर
621601 62 64
6
भाषाभास्कर
अय | प्रया
.
प्रायो
| अवी | अवु
अयि प्राया आयि आयो
आयु आयू | आय | आयु । अव अवा वि
| अबू अवृ । अवृ । अवे | अवे। अवो आव | आवा | आवि | श्रावी | आव | आव - आवृ । आव आवे | आवै - आवो | आवो
- २ व्यंजन संधि ६६ व्यंजन अथवा स्वर के साथ जो व्यंजन का विकार होता है उसे व्यंजन संधि कहते हैं । संस्कृत में
विस्तार ऐसा बढ़ाके किया गया है कि जिसका बोध और स्मग्ण बड़ी कठिनता से होता है परंतु हिन्दी भाषा में लो थोडे से इस संधि के आवश्यक नियम हैं उन्हें लिखते हैं।
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माषाभास्कर
६० यदि ककार से परे घोष अन्तस्थ वा स्वर वर्ण रहे तो प्रायः के स्थान में ग होगा। जैसे
दिक् + गज = दिग्गज वाक् + दत्त = वागदत्त दिक् + अम्बर = दिगम्बर वाक् + ईश = वागीश
धिक् + याचना = धिगयाचना ६८ यदि किसी वर्ग के प्रथम वर्ग से परे सानुनासिक वर्ण रहे । प्रथम वर्ण के स्थान में निज वर्ग का सानुनासिक होगा । यथा
प्राक् + मुख = प्राङ्मुख वाक् + मय = वाङ्मय जगत् + नाथ = जगन्नाथ उत् + मत्त = उन्मत्त
चित् + मय = चिन्मय ६ यदि च ट प वर्ण से परे घोष अन्तस्थ वा स्वर वर्ण रहे तो प्रायः च के स्थान में ज और ट के स्थान में ड वा ड़ और प के स्थान में ब हो जाता है। जैसे
अच + अंत = अजंत षट् + दर्शन = षड्दर्शन अप + भाग = अबभाग
अप + जा = अब्जा ०० यदि ह्रस्व स्वर से परे छ वर्ण होवे तो उसे च सहित छ होता है और ना दीर्घ स्वर से परे रहे तो कहीं २ । जेसे
परि + छेद = परिच्छेद अव + छेद = अवच्छेद वृक्ष + छाया = वृक्षच्छाया गृह + छिद्र = गृहच्छिद्र लक्ष्मी + छाया = लक्ष्मीच्छाया
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भाषाभास्कर
-०१ जब त वाद से परे चवर्ग अथवा टवर्ग का प्रथम वा द्वितीय वर्ण हो तो त वा द के स्थान में च वा ट होता है। और चवगं वा टवर्ग के तृतीय वा चतर्थ वर्ण के परे रहते त वा द को न वा ड हो जाता है परंतु त वा द से जब श पर रहता है तो श को छ र त वा द को च होता है और लकार के परे रहते त वा द को ल हो जाता है। ऐसे ही त वा द से परे जब ह रहता है तो ह वा द को द होकर हकार को धकार होता है। जैसे नीचे चक्र में लिखा है ॥
उदाहरण
असिद्ध संधि | सिद्ध संधि
यदि पर्व पद के
अंत में पहिली N | पांती का वर्ण होवे
और पर पद के पांती का वर्ण हावे तो दोनों मिलकर तीसरी पांती के
वर्ण होंगे punaaNagaal आदि में दूसरी
aalu BollNI
उत् + चारण =उच्चारण सत् + चिदानन्द =सच्चिदानन्द सत् + जाति =सज्जाति उत् + ज्वल =उज्ज्व ल उत् + छिन्न उच्छिन्न तत् + टीका =तट्टीका उत् + लङ्घन ___=उल्लङ्कन सत् + शास्त्र =सच्छास्त्र उत् + शिष्ट =उच्छिष्ण उत् + हार उद्धार तत् + हित =तद्धित
EN
.
०२ यदि त से परे ग घ द ध ब भ य र व अथवा स्वर वर्ण रहे तो त के स्थान में द होगा। और जो द से परे इन में से कोई वर्ण पाये तो कुछ विकार न होगा । यथा
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भाषाभास्कर
सत्
सत्
उत
जगत्
पशुवत् + गामी = पशवगामी उत् + घाटन = उद्घाटन महत + धनुष = महद्धनुष भविष्यत् + वाणी = भविष्यवाणी
+ वंश = सदंश
प्रानन्द- सदानन्द
+ अय = उदय सत् + आचार = सदाचार जगत् + इन्द्र = जगदिन्द्र
+ ईश = जगदीश सत् + उत्तर = सदुत्तर महत् + आज = महदोज
महत् + औषध = महदोषध ०३ अनुस्वार से परे जब अन्तस्थ वा ऊष्म वर्ण रहता हे तो अनु स्वार का कुछ विकार नहीं होता । यथा
सं + यम = संयम सं + वाद = संवाद सं + लय = संलय
सं + हार = संहार ०४ यदि अन्तस्थ और ऊष्म को छोड़कर किसी वर्ग का वर्ण अनु. स्वार से परे रहे तो अनुस्वार को उसी वर्ग का सानुनासिक वर्ण हे' जाता है। जैसे
अहं + कार = अहङ्कार सं + गम = सङ्गम किं + चित = किञ्चित सं +चय = सञ्जय सं +तोष = सन्तोष सं + ताप = सन्ताप सं + पत = सम्पत
।
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०५
सं+ बन्ध = सम्बन्ध सं+ बुद्धि = सम्बुद्धि
सं+ भव = सम्भव अनुस्वार से परे स्वर वर्ण रहे तो म हो जायगा। जेसे
सं+आचार = समाचार सं+उदाय = समुदाय सं+ऋद्धि = समृद्धि
३ विसर्गसंधि ॥
२६ व्यंजन अथबा स्वर के साथ जो विसर्ग का विकार होता है उसे विसर्गसंधि कहते हैं ॥ _____० यदि इकार उकार पूर्वक विसर्ग से परे क ख वा प फ रहे तो विसर्ग को मूर्द्धन्य ष प्रायः हो जाता है। और स्थानों में विसर्ग ही बना रहता है। यथा
निः + कारण = निष्कारण निः + कपट = निष्कपट निः + पाप = निष्याप नि: + पत्ति = निष्पत्ति निः + फल = निष्फल
अन्तः+ करण = अन्तःकरण ___८ च छ विसर्ग से परे रहे तो विसर्ग को श और ट ठ परे होवे तो ष और त थ परे रहे तो स हो जाता है । यथा
निः + चल = निश्चल निः + चिन्त = निश्चिन्त निः + छल = निश्छल धनुः + टङ्कार = धनुष्टङ्कार
निः + तार = निस्तार 8. यदि विसर्ग से परे ग घ ज झ ड ढ द ध ब भ ङ ज ण न म य र ल व ह होवे तो विसर्ग को ओ हो जाता है। और स्वरों में से
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१८
हस्व प्रकार हो तो वह कार में मिल जाता है और उसके पहचानने के लिये ऐसा चिन्ह (अर्धाकार) कर देते हैं। जैसे
मन: + गत = मनोगत मनः + भाव = मनोभाव मनः + अ = मनोज मनः + योग = मनोयोग मनः + रथ = मनोरथ
+नीत = मनोनीत तेजः + मय = तेजोमय मनः + हर = मनोहर
मनः + अनवधानता = मनोऽनवधानता ८० यदि विसर्ग के पूर्व अश्रा छोड़ कर कोई दूसरा स्वर हो और विसर्ग से परे ऊपर के लिखे हुए अक्षर वा स्वर वर्ण रहे तो विसर्ग के स्थान में र हो जाता है। जैसे
निः + गुण = निर्गण निः + विन = निर्घिन नि: + जल निर्जल नि: + झर = निझर वहिः+ देश = वहिर्देश निः + धन = निर्धन नि: + बल
= निर्बल नि: + भय = निर्भय
नाय = निनाथ नि: + मल = निर्मल नि: + युक्ति = नियुक्ति
वन = निर्वन निः + विकार= निर्विकार
+ + + + +
+ +
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निः + हस्त = निर्हस्त निः + अर्थ = निरर्थ निराधार
निः + आधार = निः + इच्छा = निरिच्छा निः + उपाय = निरुपाय निः + औषध निरौषध
=
८१
यदि विसर्ग के पूर्व ह्रस्व र दीर्घ अकार को छोड़कर कोई दूसरा स्वर होवे और बिसर्ग से परे रकार है।वे तो विसर्ग का लोप करके पूर्व स्वर को दीर्घ कर देते हैं । यथा
निः + रस निः + रोग
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=
नीरस
नीरोग
=
निः + रन्ध्र = : नीरन्ध्र निः + रेफ = नीरेफ
इति संधिप्रकरण ॥
अथ तृतीय अध्याय ॥
٩٤
शब्द साधन ।
८२ कह आये हैं कि शब्दसाधन उसे कहते हैं जिस में शब्दों के भेद अवस्था और व्युत्पत्ति का बर्णन होते हैं ॥
८३ कान से जो सुनाई देवे उसे शब्द कहते हैं परंतु व्याकरण में केवल उन शब्दों का विचार किया जाता है जिनका कुछ अर्थ होता है । अर्थबोधक शब्द तीन प्रकार के होते हैं अर्थात संज्ञा क्रिया और
अव्यय ||
८४ संज्ञा वस्तु के नाम को कहते हैं । जैसे भारतवर्ष पृथिवी के एक खण्ड का नाम हे पीपल एक पेड़ का नाम हे भलाई एक गुण का नाम हे इत्यादि ।
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२०
८५ किया का लक्षण यह है कि उसका मुख्य अर्थ करना है और वह काल पुरुष और बचन से सम्बन्ध नित्य रखती है । जेसे मारा था जाते हैं पढ़ सकेंगी इत्यादि ॥
८६ अव्यय उसे कहते हैं जिसमें लिङ्ग संख्या और कारक न हो अर्थात इनके कारण जिसके स्वरूप में कुछ विकार न दिखाई देवे । जैसे परंतु यद्यपि तथापि फिर जब तव कब इत्यादि ॥
८७ पहिले संज्ञा तीन प्रकार की होती है अर्थात रूढ़ि योगिक और योगरूढ़ि ॥
८८ रुढि संज्ञा उसे कहते हैं जिसका कोई खण्ड सार्थक न हो सके । जैसे घोड़ा कोड़ा हाथी पोथी इत्यादि । घोड़ा शब्द में एक खण्ड घो और दूसरा डा हुआ परंतु दोनां निरर्थक हे इसलिये यह संज्ञा दि कहाती है॥
E जो दो शब्दों के योग से बनी हो अथवा शब्द और प्रत्यय मिलकर बने उसे यौगिक संज्ञा कहते हैं। जैसे बालबोध कालज्ञान नरमेध जीवधारी थलचारी बोलनेहारा कारक जापक पाठक इत्यादि ।
१० योगकुढि संज्ञा वह कहाती है जो स्वरुप में यौगिक संज्ञा के समान होती पर अपने अर्थ में इतनी विशेषता रखती है कि अवय. वार्थ को छोड़ संकेतितार्थ का प्रकाश करती है। जैसे पीताम्बर पङज गिरिधारी लम्बोदर हनुमान गणेश इत्यादि ॥ ___ तात्पर्य यह है कि पीत शब्द का अर्थ पीला है और अम्बर शब्द का अर्थ कपड़ा है परंतु जितने पीत वस्त्र पहिनेवाले हैं उन्हें छोड़कर विष्णु रूपी विशेष अर्थ का प्रकाश करता है इसलिये यह पद योगरूढ़ि है।
१ फिर संज्ञा के पांच भेद और भी हैं। जातिवाचक व्यक्तिवाचक गुणवाचक भाववाचक और सर्वनाम ॥
१२ जातिवाचक संज्ञा उसे कहते हैं जिसके अर्थ से वैसे रूप भर का ज्ञान हो। जैसे मनुष्य स्त्री घोड़ा बैल वृक्ष पत्थर पायी कपड़ा आदि। कहा है कि मनुष्य अमर है इस वाक्य में मनुष्य शब्द जातिवाचक है
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इस कारण कि उस से किसी विशेष मनुष्य का बोध नहीं परंतु मनुष्यगण अर्थात मनुष्य भर का बोध होता है* ॥ __६३ व्यक्तिवाचक मनुष्य देश नगर नदी पर्वत आदि के मुख्य नाम को कहते हैं। जैसे चण्डीदत्त बिश्वेश्वरप्रसाद भरतवर्ष काशी गंगा हिमालय बृन्दावन इत्यादि ॥
६४ गुणवाचक संज्ञा वह कहाती है जो विभेदक होती है इस कारण उसे विशेषण भी कहते हैं। वाक्य में गणवाचक संज्ञा अकेली नहीं आती परंतु यहां उदाहरण के लिये उसे अकेली लिखते हैं। जैसे पी.ला नीला टेढ़ा सीधा ऊंचा नीचा उत्तम मध्यम ज्ञानी मानी इत्यादि । ___६५ भाववाचक संज्ञा का लक्षण यह है कि जिसके कहने से पदार्थ का धर्म वा स्वभाव समझा जाय अथवा उस से किसी व्यापार का बोध हो । जेसे ऊंचाई चौड़ाई समझ बझ दौड़ धप लेन देन छीन छोर बोल चाल इत्यादि ॥ ___६६ सर्वनाम संज्ञा उसे कहते हैं जो और संज्ञाओं के बदले में कही जाय । जैसे यह वह आन और जो सो कोई कोन कई आप में तू इत्यादि । सर्वनाम संज्ञा का प्रयोजन यह है कि किसी बस्तु का नाम कहकर यदि फिर उसके विषय कुछ चर्चा करने की आवश्यकता हो तो उसके बदले में सर्वनाम आता है और सर्वनाम से पूर्वोक्त नाम बोधित हो जाता है। सर्वनामों से यह फल निकलता है कि बारम्बार किसी संज्ञा का कहना नहीं पड़ता। इस से न तो विशेष बात बढ़ती है और
* विद्यार्थी को चाहिये कि जातिवाचक का भेद इस रीति से समझ लेवे कि रामायण पोथी है भागवत भी पोथी हे हितोपदेश यह भी पोथी का नाम है तो कई पदार्थ हैं जो अनेक विषय में भिन्न २ हैं परंतु एक मुख्य विषय में समान हैं इस समानता के कारण उन सब पदाथों की एक ही जाति मानी जाती है और एक ही नातिवाचक नाम अर्थात पोथी उनको दिया गया है। रामायण के गुण भागवत वा हितोपदेश में नहीं हैं और रामायण नाम उन से कहा नहीं जाता परंतु पाथी के गुण रामायण में भागवत में और हितोपदेश में रहते हैं इस कारण पोथी यह जातिवाचक नाम तीनों से लगता है ।
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१२
भाषाभास्कर
..
न वाक्य में नीरसता होती है। सर्वनामों के रूपों में लिङ्ग के कारण कुछ विकार नहीं होता है जिन संज्ञाओं के स्थान में वे आते हैं उनके अनु. सार सर्वनामों का लिङ्ग समझा जाता है। सर्वनाम संज्ञा के दो धर्म है एक तो पुरुषवाचक जेसे में तू वह और दसरा गणीभूत जैसे कोन कोई पान और इत्यादि ।
लिङ्ग के विषय में ॥ ६० हिन्दी भाषा में दो ही लिङ्ग होते हैं एक पुल्लिङ्ग दूसरा स्त्रीलिङ्ग । संस्कृत और आन भाषात्रों में तीन लिङ्ग होते हैं परंतु हिन्दी में नपुंसक लिङ्ग नहीं है यहां सब सजीव और निर्जीव पदार्थों के लिङ्ग व्यवहार के अनुसार पुल्लिङ्ग वा स्त्रीलिङ्ग में समाप्त हो जाते हैं ॥
८ उन प्राणीवाचक शब्दों के लिङ्ग जान्ने में कुछ कठिनता नहीं पड़ती जिनके अर्थ से मिथुन अर्थात जाड़े का ज्ञान होता है क्योंकि पुरुषबोधक संज्ञा को पुल्लिङ्ग और स्त्रीबोधक संज्ञा को स्त्रीलिङ्ग कहते हैं । जेसे नर लड़का घोड़ा हाथी इत्यादि पुल्लिङ्ग और नारी लड़की घोड़ी हथिनी इत्यादि स्त्रीलिङ्ग कहाती हैं ॥ ___EE हिन्दी के सब शब्दों का अधिक भाग मंस्कृत से निकला हुआ है और संस्कृत में जिन शब्दों का पुल्लिङ्ग वा नपुंसकलिङ्ग होता है वे सब हिन्दी में प्रायः पुल्लिङ्ग समझे जाते हैं। और जो शब्द संस्कृत में स्त्रीलिङ्ग होते हैं वे हिन्दी में भी प्रायः स्त्रीलिङ्ग रहते हैं। जैसे देश सूर्य जल रव दुःख इन में से जल रत्न दुःख संस्कृत में नपुंसकलिङ्ग हैं परंतु हिन्दी में पुल्लिङ्ग हैं और भूमि बुद्धि सभा लज्जा संस्कृत में और हिन्दी में भी स्त्रीलिङ्ग हैं॥
१०० हिन्दी में जिन अप्राणीवाचक शब्दों के अंत में अकार वा श्राकार रहता है और उनका उपान्त्य वर्ग त नहीं होता है वे प्रायः पुल्लिङ्ग समझे जाते हैं । नेमे वर्णन ज्ञान पाप बच्चा कपड़ा पंखा ॥ __१०१ जिन निर्जीव शब्दों के अंत में ई वा त होता है वे प्रायः स्त्रीलिङ्ग हैं । जैसे मोरी बोली चिटी बात रात इत्यादि ॥
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१०२ जिन भाववाचक शब्दों के अंत में आव त्व पन वा पा हो वे सब के सब पुल्लिङ्ग हैं । जेसे चढ़ाव बिकाव मिलाव मनुष्यत्व स्त्रीत्व पशुत्व लड़कपन सीधापन बुढ़ापा इत्यादि ॥ . १०३ जिन भाववाचक शब्दों के अंत में आई ता वट वा हट हो वे स्त्रीलिङ्ग हैं। जैसे अधिकाई चतुराई भलाई उत्तमता कोमलता मित्रता बनावट सजावट चिकनाहट चिल्लाहट इत्यादि ॥ __१०४ सामासिक शब्दों का लिङ्ग अन्त्य शब्द के लिङ्ग के अनुसार होता है । जैसे स्त्रीलिङ्ग यह शब्द पुल्लिङ्ग हे इस कारण कि लिङ्ग शब्द पुल्लिङ्ग हे वैसे ही दयासागर पुल्लिङ्ग है इस कारण कि यद्यपि दया शब्द स्त्रीलिङ्ग हे तथापि अन्त्य शब्द अर्थात सागर पुल्लिङ्ग है ॥
अथ स्त्रीलिङ्ग प्रत्यय ॥ १०५ आकारान्त पुल्लिङ्ग शब्दों के अन्त्य आकार को प्रायः ईकार करने से स्त्रीलिङ्ग बन जाता है। कहीं २ आकार के स्थान में इया हो माता है और यदि अंत्याक्षर द्वित्व हो तो एक व्यंजन का लोप हो जाता है। यथा पुल्लिङ्ग।
स्त्रीलिङ्ग। गधा
गधी घोड़ा
घोड़ी चेला
चेली भांना
भांजी कुत्ता
कुत्ती वा कुतिया १०६ हलन्त* पुल्लिङ्ग शब्दों के अन्त्य हल से ई को मिला करके स्त्रीलिङ्ग बना लो । जैसे पुल्लिङ्ग ।
स्त्रीलिङ्ग। अहीर
अहीरी तरुन
तरुनी * चेत रखना चाहिये कि हिन्दी भाषा में अकारान्त शब्द प्रायः इलन्त के समान उच्चरित होते हैं।
.
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२४
दास
देव
ब्राह्मण
१००
व्यापार करनेवाले पुल्लिङ्ग शब्दों से इन करके जो शब्द के अंत में स्वर हो तो उसका लोध कर देते हैं । जैसे
युल्लिङ्ग ।
ग्वाला
तेली
वैपायी
૧૦૬ जाता है । जैसे
लोहार
सोनार
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पुल्लिङ्ग ।
ऊंट
बाच
Rir
सिंह
अहि
माषाभास्कर
बहुतेरे पुल्लिङ्ग शब्दों के आगे नी लगाने से स्त्रीलिङ्ग है।
दासी
देवी ब्राह्मणी
पुल्लिङ्ग ।
श्रा
चाबे
बे
तिवारी
पंडा
पांडे
स्त्रीलिङ्ग ।
ग्वालिन
लेलिन
वैपारिन
लोहारिन
सोनारिन
अहिनी
GOE
उपनामवाची पुल्लिङ्ग शब्दों से स्त्रीलिङ्ग बनाने के लिये अत्य स्वर को इन आदेश कर देते हैं और जो आदि अक्षर का स्वर होवे तो उसे ह्रस्व कर देते हैं । जैसे
स्त्रीलिङ्ग ।
ऊंटनो
बाघनी
मोरनी
महनी
स्त्रीलिङ्ग ।
ओझाइन
चौबाइन
दुबाइन तिवराइन
पंडाइन
पड़ाइन
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बाबू .
মিলি
मिसिराइन ठाकुर
ठकुराइन
बबुआइन ११० कई एक पुल्लिङ्ग शब्दों के स्त्रीलिङ्ग शब्द दूसरे ही होते हैं। जेसे पुल्लिङ्ग।
स्त्रीलिङ्ग। पिता
माता पुरुष
स्त्री राना
रानी बेल
गाय भाई
बहिन
वचन के विषय में।
१११ व्याकरण में वचन संख्या को कहते हैं और वे भाषा में दो ही हे एकवचन और बहुवचन । मिस शब्द के रूप से एक पदार्थ का बोध होता है उसे एकवचन और जिस से एक से अधिक समझा जाय उसे बहुवचन कहते हैं। जैसे लड़की गाती है यह एकवचन है और लड़कियां गाती हैं इसे बहुवचन कहते हैं ॥ __ ११२ संज्ञा में और क्रिया में एकवचन से बहुवचन बनाने की रीति
आगे लिखी जायगी ॥ बहुत से स्थानों में एकवचन और बहुवचन के रूपों में कुछ भेद नहीं होता इस कारण अनेक के बोध के निमित्त गण आति लोग इत्यादि लगाते हैं। जेसे ग्रहगण देवगण मनुष्यजाति पशुजाति पण्डित लोग राजा लोग इत्यादि ॥
कारक के विषय में।
११३ कारक उसे कहते हैं कि जिसके द्वारा वाक्य में विशेष करके क्रिया के साथ अथवा दूसरे शब्दों के संग संज्ञा का सम्बन्ध ठीक २ प्रकाशित होता है।
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११४ हिन्दी भाषा में कारक आठ होते हैं अर्यात १ कती
५ अपादान २ कर्म
'६ सम्बन्ध ३ करण
• अधिकरण ४ सम्प्रदान
८ सम्बोधन १ का कारक उसे कहते हैं जो क्रिया के व्यापार को करे । भाषा में उसका कोई विशेष चिन्ह नहीं है परंतु सकर्मक क्रिया के कती के आगे अपर्ण भूत को छोड़के शेष भतकालों में ने आता है। जैसे लड़का पढ़ता है पण्डित पढ़ाता था पिता ने सिखाया है * ॥
२ कर्म उसे कहते हैं जिसमें क्रिया का फल रहता है उसका चिन्ह को है। जेसे में पुस्तक को देखता हूं उसने पण्डित को बुलाया ॥
३ करण उसे कहते हैं जिसके द्वारा की व्यापार को सिद्ध करे उसका चिन्ह से है। जैसे हाथ से उठाता है पांव से चलता है।
४ सम्पदान वह कहाता है जिसके लिये की व्यापार को करता हे उसका चिन्ह को है। जैसे गुरु ने शिष्य को पाथी दी ॥
५ क्रिया के विभाग की अवधि को अपादान कहते हैं उसका चिन्ह से है। जेसे वृक्ष से पत्ते गिरते हैं वह मनुष्य लोटे से जल लेता है ॥
६ सम्बन्ध कारक का लक्षण यह है जिस से स्वत्व सम्बन्ध आदि समझा जाय उसके चिन्ह ये हैं का मे की। जैसे राना का घोड़ा प्रजा के घर मन की शक्ति ।
० कती और कर्म के द्वारा जो क्रिया का अाधार उसे अधिकरण कहते हैं उसके चिन्ह में पे पर हैं। जैसे वह अपने घर में रहता है वे आसन पर बैठते हैं ॥ ___ * सात सकर्मक क्रिया हैं अर्थात बकना बोलना भूलना जनना लाना लेजाना और खाजाना जिनके साथ भतकाल में कती के आगे ने नहीं आता है । लाना (ले+आना=लाना) लेजाना और खाजाना संयुक्त क्रिया है उनका पूर्वार्द्ध सकर्मक और उत्तरार्द्ध अकर्मक है इस से यह नियम निकलता है कि जब संयुक्त सकर्मक क्रिया का उत्तरार्द्ध अकर्मक होता हे तब उस क्रिया के भतकाल में कती के साथ ने चिन्ह नहीं होता
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२
। ८ सम्बोधन उसे कहते हैं जिस से कोई किसी को चिताकर अथवा पुकारकर अपने सन्मख कराता है उसके चिन्ह हे हो अरे इत्यादि हैं। से हे महारान रामदयाल हो अरे लड़के सुन ॥
११५ ऊपर की रीति से प्रत्येक संज्ञा की आठ अवस्था हो सकती है इन अवस्थाओं की सूचक प्रत्ययों को विभक्तियां कहते हैं ॥
की आदि की सूचक विभक्तियां । कारक। विभक्तियां। कारक। विभक्तियां। कता ० वा ने
अपादान कर्म को
सम्बन्ध का के की करण से
अधिकरण में पै पर सम्प्रदान को
सम्बोधन हे अरे हो ११६ विभक्तियां स्वयं तो निरर्थक हैं परंतु संज्ञा के अंत में जब आती हैं तो सार्थक हो जाती हैं और यद्यपि इन विभक्तियों में कुछ विकार नहीं होता तो भी संज्ञा के अंत में इनके लगाने से बहुधा विकार हुआ करता है।
११० इसका भी स्मरण करना चाहिये कि कता और सम्बोधन को छोड़ करके शेष कारकों के बहुवचन में शब्द और विभक्ति के मध्य में बहुवचन का चिन्ह ओं लगाया जाता है परंतु सम्बोधन के बहुवचन में निरनुनासिक ओ होता है ॥
अथ संज्ञा का रूपकरण । ११८ कह पाये हैं कि संज्ञा दो प्रकार की होती हे एक पल्लिङ्ग दूसरी स्त्रीलिङ्ग फिर प्रत्येक लिङ्ग की संज्ञा भी दो प्रकार की होती है एक तो वे जिनका उच्चारण हलन्तसा हुआ करता है दूसरी वे जिनका उच्चारण स्वरान्त होता है।
११६ संज्ञा की कारक रचना अनेक रीति से होती है इस कारण सुभीते के निमित्त जितनी संज्ञा समान रीति से अपने कारकों को रचती हे उन सभी को एक ही भाग में कर देते हैं। हिन्दी की सब संज्ञा चार भाग में आ सकती हैं। यथा
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१२० पहिले भाग में वे सब संज्ञा आती है जिनके एकवन और बहुवचन में विभक्ति के आने से संज्ञा का कुछ विकार नहीं होता है परंतु बहुवचन में कर्ता और सम्बोधन को छोड़कर शेष कारकों में शब्द के धागे ओ लगाकर विभक्ति लाते हैं ।
१२ दूसरे भाग की वे सब संज्ञा हैं जिनके एकवचन में और कती के बहुवचन में विभक्ति के कारण कुछ बदलता नहीं पर बहुवचन के कर्म आदि कारकों में वा बहुवचन के चिन्ह ओं का वा अंत्य दीर्य स्वर का विकार होता है।
१२२ तीसरे भाग में जो संज्ञा आती हैं उनका यह लक्षण है कि केवल उन्हीं में का कारक के बहुवचन का विकार होता हे॥
१३ चोये भाग में वे सब संज्ञा आती हैं जिनके प्रत्येक कारक के दोनों वचनों में विभक्ति के आने से संज्ञा कुछ बदल जाती है ।
पहिला भाग। १२४ इस भाग में हस्व उकारान्त एकारान्त आकारान्त और हलन्त पलिङ्ग शब्द होते हैं। विभक्ति के आने से उनका कुछ विकार नहीं होता परंतु कता और सम्बोधन के बहुवचन को छोड़कर शेष कारकों में शब्द से आगे ओं लगाकर विभक्ति लाते हैं। उदाहरण नीचे देते हैं। यथा १२५ ह्रस्व उकारान्त पुल्लिङ्ग वन्धु शब्द । कारक । एकवचन ।
बहुवचन । का बन्धु वा वन्धु ने* बन्धु वा बन्धुओं ने*
* चेत रखना चाहिये कि जिस कत्ता कारक के साथ ने चिन्ह होता हे वह अपर्णभूत को छोड़के केवल सकर्मक धातु की भूतकालिक क्रिया के साथ आ सकता है । और यदि कर्म कारक का चिन्ह लुप्त हो तो क्रिया के लिङ्ग वजन कर्म के अनुसार होंगे जैसे पण्डित ने पोथी लिखी महाराज ने अपने घोड़े भेजे । परंतु जो कर्म अपने चिन्ह को के साथ आवे तो क्रिया सामान्य पुल्लिङ्ग अन्य पुरुष एकवचन में होता है। जैसे मेने रामायण को पढ़ा है रानी ने सहेलियों को बुलाया इत्यादि । इस प्रयोग का वर्णन आगे लिखा जायगा ॥
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भाषाभास्कर
B
ब
कर्म करण सम्प्रदान अपादान सम्बन्ध अधिकरण सम्बोधन
कारक । कती कर्म करण सम्प्रदान अपादान सम्बन्ध अधिकरण सम्बोधन
रेणुओं को
बन्धुओं को बन्य से
बन्धुओं से बन्ध को
बन्धुओं को बन्ध से
बन्धओं से बन्ध का-के-की बन्धओं का-के-की बन्धु में
बन्धओं में हे बन्धु . हे बन्धुओ। १२६ ह्रस्व उकारान्त स्त्रीलिङ्ग रेणु शब्द ।
एकवचन । बहुवचन । रेणु वा रेणु ने रेणु वा रेणुओं ने
रेणुओं को
रेणुओं से रेणु को रेण से
रेणुओं से रेण का-के-की रेणओं का-के-की
रेणुओं में हे रेणु
हे रेणुओ ॥ १२० एकारान्त पुल्लिङ्ग दुबे शब्द ।
बहुवचन । दुबे वा दुबे ने दुबे वा दुबेओं ने
दुबेओं को दुबेओं से टुबेत्रों को
दुबेत्रों से दुबे का-के-की
दुबेओं का-के-की दुबेत्रों में है दुबेओ।
रेणु में
कारक।
एकवचन ।
कती
)
कर्म
)
)
करण सम्प्रदान अपादान सम्बन्ध अधिकरण सम्बोधन
R999999900
)
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भाषाभास्कर
कारक । कता
कर्म
करण
सम्प्रदान अपादान सम्बन्ध अधिकरण सम्बोधन
१२८ आकारान्त पुल्लिङ्ग कोदो शब्द । एकवचन।
बहुवचन । कोदो वा कोदो ने कोदो वा कोदाओं ने कोदो को कोदाओं को कोदो से
कोदाओं से कोदो को कोदाओं को कोदो से
कोदोओं से कोदो का-के-की कोदाओं का-के-की कोदो में
कोदोओं में हे कोदो
हे कोदोओ ॥ १२६ ओकारान्त स्त्रीलिङ्ग सरसों शब्द।
एकवचन । बहुवचन । सरसों वा सरसों ने सरसों वा सरसओं ने सरसों को
सरसओं को सरसों से
सरसों से सरसों को सरसोंओं को सरसों से
सरसओं से सरसों का-के-की सरसों का-के-को सरसों में
सरसों में हे सरसों
हे सरसेओ।
कारक। कती कर्म
करण
सम्प्रदान अपादान सम्बन्ध अधिकरण सम्बोधन
१३० हलन्त पुल्लिङ्ग जल शब्द ।
कारक। कता कर्म
एकवचन । जल वा जल ने जल को जल से जल को जल से
बहुवचन। जल वा जलों ने जलों को जलों से जलों को जलों से
करण
सम्प्रदान अपादान
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भाष.मास्कर
सम्बन्ध अधिकरण सम्बोधन
कारक। कती कर्म
जल का-के-की अलों का-के-की जल में
जले में हे जल
हे जलो ॥ १३१ हलन्त पुल्लिङ्ग गांव शब्द । एकवचन ।
बहुवचन । गांव वा गांव ने गांव वा गांवों ने गांव को
गांवों को गांव से
गांवों से गांव को
गांवों को गांव से
गांवों से गांव का-के-की गांवों का-के-की गांव में
गांवों में हे गांव
हे गांवो ॥
करण समप्रदान
अपादान सम्बन्ध अधिकरण सम्बोधन
a
दूसरा भाग। १३२ इस भाग में हस्व वा दीर्घ ईकारान्त पुल्लिङ्ग शब्द दीर्घ जत्रा रान्त पुल्लिङ्ग शब्द और दीर्घ अकारान्त स्त्रीलिङ्ग शब्द आते हैं। एक वचन में और कती के बहुवचन में विभक्ति के कारण कुछ बदलता नहीं पर कर्म आदि कारकों में इकारान्त शब्द से आगे ओं नहीं परंतु यां लगाकर विभक्ति लाते हैं और कदाचित् अंत्यस्वर दीर्घ हो तो उसे हूस्व कर देते हैं। उनके उदाहरण नीचे लिखते हैं । यथा
१३३ ह्रस्व इकारान्त पुल्लिङ्ग पति शब्द । कारक। एकवचन ।
बहुवचन । कती
पति वा पति ने पति वा पतियों ने पति को
पतियों को करण पति से
पतियों से सम्प्रदान पति को
पतियों को अपादान पति से
पतियों से सम्बन्ध
पति का-के-की पतियों का-के-की
कर्म
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भाषाभास्कर
अधिकरण पति में
पतियों में सम्बोधन हे पति
हे पतिया ॥ १३४ दीर्घ ईकारान्त पल्लिङ्ग धोबी शब्द । कारक। एकवचन ।
बहुवचन। कता
धोबी वा धोबी ने धोबी वा धोबियों ने कर्म धोबी को
धोबियों को करण धोबी से
धोबियों से समादान धोबी को
धबियों का अपादान धोबी से
धोबियों से सम्बन्ध
धोबो का-के-की धोबियों का-के-की अधिकरण धोबी में
धोबियों में सम्बोधन हे धोबी हे धोबियो ।
१३५ दीर्घ ऊकारान्त पुल्लिङ्ग डाकू शब्द । कारक । एकवचन । बहुवचन । कती डाक वा डाकू ने डाकू वा डाकुओं ने कर्म
डाकुओं को करण डाकू से
डाकुओं से सम्प्रदान
डाकुओं को अपादान
डाकुओं से सम्बन्ध
डाक का-के-की डाकुओं का-के-की अधिकरण ड कू में
डाकुओं में सम्बोधन हे डाकू
हे डाकुओ ॥ १३६ दीर्घ अकारान्त स्त्रीलिङ्ग बह शब्द । कारक ।
एकवचन । बहुवचन ।
वा बहू ने बहू वा बहुओं ने कर्म
बहुओं को करण सम्प्रदान अपादान
डाकू को
डाक से
की
In oal god old
बहुओं से बहुओं को बहुओं से
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भाषाभास्कर
बहू का-के-को
सम्बन्ध
बहुओं का-के-की अधिकरण बहू में
बहुओं में सम्बोधन
हे बहुओ ।
तीसरा भाग। १३० इस भाग में पुल्लिङ्ग शब्द नहीं हैं पर प्राकारान्त हस्व और दीर्घ इकारान्त और हलन्त स्त्रीलिङ्ग शब्द आते हैं। आकारान्त स्त्रीलिङ्ग शब्द के एकवचन में विकार नहीं होता बहुवचन में भी केवल इतमा विशेष हे कि कती में शब्द के अंत्यस्वर को सानुनासिक कर देते हैं । हूस्व और दीर्घ इकारान्त स्त्रीलिङ्ग शब्दों के रूप एकवचन में ज्यों के त्यों बने रहते हैं और बहुवचन में वे पुल्लिङ्ग ईकारान्त शब्दों के अनुसार अपने कारकों को रचते हैं केवल कती के बहुवचन में शब्द से आगे यां होता है और यदि दीर्घ ईकारान्त हो तो उसे ह्रस्व कर देते है। हलन्त स्त्रीलिङ्ग शब्द की इतनी विशेषता है कि कता के बहुवचन में शब्द से आगे रं लगा देते हैं । इनके उदाहरण नीचे लिखे हैं । यथा
. १३८ प्रकारान्त स्त्रीलिङ्ग स्वटिया शब्द । कारक। एकवचन ।
बहुवचन । कती
खटिया वा खटिया ने खटियां वा खटियाओं ने कर्म खटिया को
खटियाओं को करण खटिया से
खटियाओं से सम्प्रदान खटिया को
खटियाओं को अपादान खटिया से
खटियाओं से खटिया का-के-की खटियाओं का-के-की अधिकरंग सख्यिा में
खटियात्रों में सम्बोधन हे खटिया
हे खटियाओं ॥ १३६ हस्व इकारान्त स्त्रीलिङ्ग तिथि शब्द । कारक । एकवचन ।
बहुवचन । कती तिथि वा तिथि ने तिथियां वां तिथियों ने कर्म तिथि को
तिथियों को तिथि से
तिथियों से
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भाषाभास्कर
बहुवचन ।
सम्प्रदान
तिथि को तिथियों को अपादान
तिधि से तिथियों से सम्म न्य
तिथि का-के-की तिथियों का-के-की आधिकरण तिथि में तिथियों में सम्बोधन हे तिथि हे तिथियों ॥
१४. दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिङ्ग बकरी शब्द । कारक। एकवचन । कती
बकरी वा बकरी ने बकरियां वा बकरियों ने कर्म बकरी को
बकरियों को करण
बकरी से बकरियों से सम्प्रदाम
बकरी को बकरियों को अपादान बकरी से बकरियों से सम्बन्ध
चकरी का-के-की बकरियों का-के-की अधिकरण बकरी में
बकरियों में सम्बोधन हे वकरी हे बकरियो ।
१४१ हलन्त स्त्रीलिङ्ग घास शब्द । कारक।
एकवचन । बहुवचन । कती
घास वा घास ने घासे वा घाम ने कर्म घास को
घासां को करम घास से
घास से सम्प्रदान
घासे को अपादान घास से
घासों से सम्बन्ध घास का-के-की घासों का-के-की अधिकरण घास में
घासों में सम्बोधन
हे घास
घास को
चौथा भाग। १४२ इस भाग में आकारान्त पुल्लिङ्ग शब्द होते हैं । एकवचन में और कती को बहुवचन में विभक्ति के काने से का को ए हो जाता
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कारक ।
कती
कर्म
करण
सम्प्रदान
अपादान
सम्बन्ध
अधिकरण
रम्बोधन
है और शेष बष्टुवचन में आ को श्र आदेश करके फिर विभक्ति लाते हैं । यथा १४३ आकारान्त पुल्लिङ्ग घोड़ा शब्द |
कारक ।
कर्ता
कर्म
करण
सम्प्रदान
अपादान
सम्बन्ध
अधिकरण
सम्बोधन
भाषाभास्कर
एकवचन ।
घोड़ा वा घोड़े ने
घोड़े को
घोड़े से
घोड़े का
घोड़े से
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घोड़े का—ओ—की
घोड़े में
हे घोड़े
बहुवचन |
घोड़े वा घोड़ों ने
घोड़ों का
99
घोड़ों से
घोड़ों को
घोड़ों से
घोड़ों का - के-की
घोडों में
हे घोड़ो ॥
१४४
विशेषता यह है कि यदि संस्कृत आकारान्त पुल्लिङ्ग वा स्त्रीलिङ्ग शब्द हो वैसे आत्मा कती युवा राजा वक्ता श्रोता क्रिया संज्ञा आदि तो उसके रूपों में कुछ विकार नहीं होता परंतु बहुवचन में अंत्य आकार से परे न कर देते हैं । जैसे
संस्कृत आकारान्त राजा शब्द ।
एकवचन ।
बहुवचन ।
राजा वा राजा ने
राजा वा राजाओं ने
राजा को
राजाओं को
राजा से
राजाओं से
राजा को
राजाओं के
राजा से
रानाओं से
राजा का - केकी
राजाओं का -केराजाओं में
राजा में
हे राजा
हे राजाओ ॥
१४५
यदि व्यक्तिवाचक वा सम्बन्धवाचक आकारान्त पुल्लिङ्ग शब्द हो जैसे मन्ना मोहना रामा काका दादा पिता आदि तो उसकी कारकरचना हिन्दी अथवा संस्कृत श्राकारान्त पुल्लिङ्ग शब्द के समान दोनों रीति पर हुआ करती है । नेवे
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भाषाभास्कर
कर्म
१४६ व्यक्तिवाचक आकारान्त पुल्लिंग दादा शब्द । कारक ।
एकबचन । कती दादा वा दादा ने अथवा दादा वा दादे ने दादा को
दादे को
दादे से दादा से करण सम्प्रदान दादा को
दादे को अपादान
दादे से दादा से सम्बन्ध दादा का-के-की
दादे का-के-की अधिकरण दादा में
दादे में सम्बोधन हे दादा
हे दादे॥
बहुबचन । कती दादा वा दादाओं ने अथवा दादे वा दादों ने कर्म दादाओं को
दादां को करण दादाओं से
दादों से सम्प्रदान दादाओं का
दादां को अपादान दादाओं से
दादों से सम्बन्ध दादाओं का-के-की
दादों का-के-की अधिकरण हे दादाओ
__ हे दादा ॥ गुणवाचक संज्ञा के विषय में । १४० कह आये हैं कि गुणवाचक संज्ञा बिभेदक है अर्थात् दूसरी संज्ञा को विशेषता का प्रकाश करती है इसलिये वह विशेषण कहाती है और जिसकी विशेषता को जनाती है वह विशेष्य कहाता है। जैसे निर्मल जल इस में निर्मल विशेषण और जल विशेष्य है ऐसा ही सर्वच जाना ॥
१४८ विशेषण के लिङ्ग बचन और कारक विशेष्य निघ्न है अर्थात विशेष्य को जो लिङ्ग आदि हो वेही लिङ्ग आदि विशेषण के होंगे ॥ ___१४६ हिन्दी में अकारान्त को छोड़कर गुणवाचक में लिङ्ग बचन वा कारक के कारण कुछ बिकार नहीं होता । जैसे सुन्दर पुरुष सुन्दर स्त्री मुन्दर लड़के कोमल पुष्प कोमल पत्ते कोमल डालियों पर ॥
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भाषाभास्कर
१५० आकारान्त विशेषण में विकार होने के तीन नियम होते हैं जिन्हें चेत रखना चाहिये । यथा
१ पुल्लिङ्ग विशेष्य का आकारान्त विशेषण हो तो कती और कर्म के एकवचन में जब उनका चिन्ह नहीं रहता तब विशेषण का कुछ विकार नहीं होता। जैसे ऊंचा पेड़ ऊंचा पहाड़ देखा पीला वस्त्र पीला वस्त्र दो ॥
२ पुल्लिङ्ग विशेष्य का आकारान्त विशेषण हो तो शेष कारकों के एक वचन में और बहुवचन में विशेषण के अन्त्य आ को ए हो जाता है। जेसे बडे घर का स्वामी आया है वे ऊंचे पर्वत पर चढ़ गये हैं सकरे फाटक से कैसे जाऊं अच्छे लड़के भले दासों के लिये ॥
३ स्त्रीलिङ्ग विशेष्य का आकारान्त विशेषण हो तो सब कारकों के दोनों वचनों में विशेषण के अन्त्य आ को ई आदेश कर देते हैं। जैसे वह गोरी लड़की है लम्बी रस्सी लाओ हरी घास में गया है मीठी बातें बोलता है छोटी गैयाओं को दो ॥ ___१५१ यदि संख्यावाचक विशेषण हो और अवधारण की विवक्षा रहे
तो उसके अन्त में ओ कहीं सानुनासिक और कहीं निरनुनासिक कर देते हैं। जैसे दोनों जावेंगे चारो लड़के अच्छे हैं। यदि समुदाय से दो तीन श्रादि व्यक्ति ली जाये तो दो तीन आदि इन रूपों को विभक्ति जोड़ते हैं। जैसे दो को तीन से चार में ॥
१५२ एक बस्तु में दूसरी से वा उस जाति की सब बस्तों से गुण की अधिकाई वा न्यनता प्रकाश करने के लिये यह रीति होती है कि विशेषण में कुछ विकार नहीं होता विशेष्य का का कारक आता है और जिस संज्ञा से उपमा दी जाती है उसका अपादान कारक होता है । जैसे यह उस से अच्छा है यमुना गंगा से छोटी है लड़की लड़के से सुन्दर है यह सब से अच्छा है हिमालय सब पर्वतों से ऊंचा है।
यह हिन्दी में साधारण रीति है पर कहीं २ संस्कृत की रीति के अनुप्तार तर और तम ये प्रत्यय विशेषण को जोड़ते हैं। जैसे कोमल कोमलतर कोमलतम प्रिय प्रियतर प्रियतम शिष्ट शिष्टतर शिष्टतम आदि ॥
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भाणभास्कर
चैथा अध्य य॥
सर्वनामों के विषय में। १५३ सर्वनाम संज्ञा के लिङ्ग का नियम यह है कि जिनके बदले में सर्वनाम आवे उन शब्दों के लिङ्ग के समान उसका भी लिङ्ग होगा। जेसे पण्डित ने कहा में पढ़ाता हं यहां पण्डित पुल्लिङ्ग हे तो मैं भी पुल्लिङ्ग हुआ कन्या कहती है कि मैं जाती हूं यहां कन्या शब्द के स्त्रीलिज होने के कारण सर्वनाम भी स्त्रीलिङ्ग है ऐसा ही सर्वच जाना । __१५४ सर्वनाम संज्ञा के कई भेद हैं जैसे पुरुषवाची अनिश्चयवाचक निश्चयवाचक आदरसूचक सम्बन्धबावक और प्रश्नवाचक ।।
१ पुरुषवाची सर्वनाम ॥ १५५ पुरुषवाची पर्वनाम तीन प्रकार के हैं १ उत्तमपुरुष २ मध्यमपुरुष ३ अन्यपुरुष । उत्तमपुरुष सर्वनाम में मध्यमपुरुष तू और अन्यपुरुष वह है । मैं बोलनेवाले के बदले तू सुननेवाले के पलटे और जिसकी कथा कही जाती है उसके पर्याय पर अन्य पुरुष आता है। जैसे में तुम से उसकी कथा कहता हूं ॥
१५६ उत्तम पुरुष में शब्द । कारक।
एकवचन । बहुवचन । कती
मैं वा मैं ने हम वा हम ने वा हमों ने कर्म
मुझ को मुझे हम को हमों का वा हमें मुझ से
हम से वा हमों से सम्प्रदान मुझ को मुझे हम को हमों का वा हमें अपादान मुझ से
हम से वा हमों से सम्बन्ध मेरा-रे-री हमारा-रे-री अधिकरण मुझ में
हम में वा हमों में ॥ ___१५० सम्बन्ध कारक की विभक्ति (रा रे री ) केवल उतम और मध्यमपुरुष में होती है और ना ( ने नी) यह निजवाचक वा आदरसूचक आप शब्द के सम्बन्ध कारक में होता है। इन रूप का अर्थ और उनकी योजना का ( के की ) के समान हैं।
करण
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भाषाभास्कर
३
१५८ मध्यम पुरुष तू शब्द । कारक।
एकवचन । बहुध वन । कत्ता * तू वा तू ने तुम वा तुम ने वा तुम्हें ने कर्म
तुक को वा तुझे तुमको तुम्हें वा तुम्हों को करण तुझ से
तुम से वा तुम्हों से सम्प्रदान तुझ को तुझे तुमको तुम्हें तुम्हों को अपादान तुझ से
तुम से वा तुम्हों से सम्बन्ध
तेरा-रे-री तुम्हारा-रे-री अधिकरण तुझ में
तृम में वा तुम्हों में सम्बोधन
हे तुम ॥
अन्य पुरुष सर्वनात । १५९ अन्य पुरुप सर्वनाम दो प्रकार का है एक निश्चः वा 1 और . दूपरा अनिश्चयवाचक । निश्चयवाचक भी दो प्रकार का होता है अर्थात यह और वह निकटवर्ती के लिये यह और दूरवर्ती के लिये वह है ॥ .
१६० निश्चयवावक यह।
कारक । कती कर्म
करण
सम्प्रदान अपादान सम्बन्ध अधिकरण
एकवचन । बहवचन । यह वा इस ने ये वा इन ने वा इन्हों ने इस को वा इसे इन को वा इन्हें वा इन्हों को . इस से इन से वा इन्हें। से इस को वा इसे इन को इहें वा इन्हें। को इस से
इन से वा इन्हों से इस का-के-की इन का वा इन्हों का-के-की इस में
इन में वा इन्हीं में ॥ १६१ निश्चयवाचक वह ।
* त वा तें और उन वा विन और जो वा जोन यह केवल देश भेद से उच्चारण की विलक्षणता है ॥
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४०
भाषाभास्कर
कर्म
कारक। एक वचन । बहुवचन। कती *वह वा उसने वे उन ने वा उन्हें| ने
उसको वा उसे उनको वा उन्हें वा उन्हें। को करण उस से उन से वा उन्हें। से सम्प्रदान उसको वा उसे उनको वा उन्हें वा उन्हें। को अपादान
उन से वा उन्हें। से सम्बन्ध उस का-के-की उनका वा उन्हें। का-के-की अधिकरण उस में
उन में वा उन्ही में ॥ १६२ कती कारक के एकवचन में और बहुवचन में ने चिन्ह के साथ उत्तमपुरुष और मध्यमपुरुष का कुछ विकार नहीं होता परंतु अन्यपुरुष यह को इस और ये को इन तथा वह को उस और वे को उन आदेश करते हैं ऐसे ही सब विभक्तियों के साथ समझो ॥
१६३ यदि उत्तम वा मध्यमपुरुष से परे कोई संज्ञा हो और उस संज्ञा के आगे ने वा का (के की) चिन्ह रहे तो मैं को मुझ तू को तुझ मेरा को मुझ-का और तेरा को तुझ-का आदेश कर देते हैं। जैसे मैंने यह बिना संज्ञा हे संज्ञा लगाओ तो मुझ ब्राह्मण ने हुा । ऐसे ही . तुझ निर्बुद्धि ने मुझ कङ्गाल का घर हम लोगों का वस्त्र इत्यादि ॥ ।
१६४ उत्तमपुरुष और मध्यमपुरुष के सम्बन्ध कारकके एकवचन में में को मे औरत को ते और बहुवचन में हम को हमा और तुम को तुम्हा आदेश करके सम्बन्ध कारक की विभक्ति का के की को रारेरी हो जाता है और शेष विभक्तियों के साथ संयोग होवे तो जैसा ने के साथ कहा है सोई जाना ॥ ___ १६५ इन सर्वनामों के कर्म और सम्प्रदान कारक में दो २ रूप होने से लाभ यह है कि दो को एकटे होकर उच्चारण को बिगाड़ देते हैं इस कारण एक को सहित और एक को रहित रहता है। जैसे में इसका तुमत्रा दूंगा यहां मैं इसे तुमको दंगा ऐसा बोलना चाहिये इत्यादि ।
१६६ आदर के लिये एक में बहुवचन और वहुत्व के निश्चयार्थ बहुवचन में लेग वा सब लगा देते हैं। जैसे तू क्या कहता है यहां आदर
* यह और वह इन रूपों को कभी २ बहुवचन में भी योजना करते है। जेसे यह दो भाई आपस में नित्य लड़ते हैं।
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भाषाभास्कर
पूर्वक तुम क्या कहते हो ऐसा बोलते हैं और हम सुनते हैं यहां बहुत्व के निश्चयार्थ हम लोग सुनते हैं अथवा हम सब सुनते हैं ऐसा बोलते हैं।
१६० जब अन्यपुरुष के साथ कोई संज्ञा आती है और कारक का चिन्ह उस संज्ञा के आगे रहता है तो अन्यपुरुष से केवल उसी संज्ञा का निश्चय विशेष करके होता हे कुछ अन्य पुरुष सम्बन्धी वस्तु का ज्ञान नहीं होता। जैसे उस परिवार का उस घोड़े पर और उसका परिवार और उसके घोड़े पर इस से अन्यपुरुष सम्बन्धी परिवार और घोड़े का ज्ञान होता है॥
अनिश्चयवाचक सर्वनाम कोई शब्द।। १६८ इसके कहने से किसी पदार्थ का निश्चय नहीं होता इसलिये यह अनिश्चयवाचक कहाता है। कती कारक में कोई शब्द ज्यों का त्यों बना रहता है परंतु शेष कारकों में कोई को किसी आदेश करते हैं। इसका बहुवचन नहीं होता परंतु दो बार कहने से बहुवचन समझा जाता है। जैसा कोई २ कहते हैं इत्यादि ॥ कारक।
एकवचन । कती
कोई वा किसी ने कर्म
किसी को करण
किसी से सम्प्रदान
किसी को अपादान
किसी से सम्बन्ध
किसी का-के-की अधिकरण
किसी में ॥ १६९ कोई शब्द के समान कुछ शब्द भी हैं परंतु अव्यय होने से इसकी कारकरचना नहीं होती और संख्या के अनिश्चय में वा क्रियाविशेषण की रीति पर प्रायः इसका प्रयोग होता है। जैसे कुछ भेद छ रुपये कुछ बात कुछ लोग कुछ लिखा कुछ पड़ी इत्यादि ॥
आदरसूचक सर्वनाम आप शब्द । १०० भादर के लिये मध्यम और अन्यपुरुष को आप आदेश हे!ता है। उसके कारक हलन्त पुल्लिङ्ग संज्ञा के समान होते हैं और जिस किया
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भाषाभास्कर
का आप शब्द कती रहेगा वह अवश्य बहुवचनान्त होगी कमी से बहवचन में बहुत्व प्रकाशित करने के लिये लोग शब्द. लगा देते हैं । जैसे कारक। एकवचन ।
बहुवचन । का
आप वा आप ने आप लोग वा आप लोगों ने कर्म श्राप को
आप लोगों को करण आप से
आप लोगों से सम्प्रदान आप को
आप लोगों को अपादान आप से
आप लोगों से सम्बन्ध
आप का-के-की आप लोगों का-के-की अधिकरण आप में
आप लोगों में ॥ १०१ प्रायः मध्यमपुरुष के बदले आदर के लिये आप शब्द आता हे परंतु अन्य पुरुष के निमित्त भी इसका प्रयोग होता है उसकी विद्यमानता के रहते हाथ बढ़ाने से समझा जाता है कि मध्यम नहीं पर अन्यपुरुष की चर्चा हो रही है ॥
१०२ आप शब्द निज का भी वाचक होके संज्ञाओं का विशेषण होता हे का कारक जैसे मैं आप बालंगा तुम आप कहे। लड़के आप आये हैं। इत्यादि ॥ । १०३ जब कर्ता के साथ आप शब्द आता है तब उसका कुछ विकार नहीं होता परंतु शेष कारकों में आप को अपना आदेश कर देते हैं और उस से निज का सम्बन्ध समझा जाता है और उसके रुप भाषा के आका- . रान्त शब्द की रीति पर होते हैं। जैसे कारक।
एकवचन । कता
आप कर्म
अपने को करणा
अपने से सम्प्रदान
अपने को अपादान
अपने से सम्बन्ध
अपना-ने-नी अधिकरण
अपने में ॥
।
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भाषाभास्कर
४३
१०४ श्राप शब्द के पर्वोक्त रूप उत्तम मध्यम और अन्यपुरुष में श्रा जाते हैं और एकवचन का प्रयोग बहुवचन में होता है। जिस सर्वनाम के आगे वे आते हैं उसके सम्बन्धवान विशेषण समझे जाते हैं । जेसे में अपना काम करता हूं तू अपनी बोली नहीं समझता है वे अपने घर गये हैं इत्यादि ॥
१८५ आपस यह परस्परबोधक नियमरहित सूप आप शब्द से बना हुआ है प्रायः इसके सम्बन्ध और अधिकरण कारक उत्तम मध्यम और अन्य पुरुषों में आया करते हैं। जैसे आपस की लड़ाई में आपस का मेल हम आपस में परामर्श करेंगे तुम लोग आपस में क्या कहते हो ॥
प्रश्नवाचक सर्वनाम कौन शब्द ।। __ १०६ प्रश्नवाचक सर्वनाम कौन शब्द का कारक के दोनों वचनों मे ज्यों का त्यों बना रहता है पर शेष कारकों के एकवचन में कौन को किस और बहुवचन में किन वा किन्ह आदेश करके उनके आगे विभक्त लाते हैं। जैसे कारक । एकवचन।
बहुवचन । कौन किसने कौन किन ने कर्म
किस को किसे किन को किन्हें करण किस से
किन से सम्प्रदान
किस को किसे किन को किन्हें अपादान किस से
किन से सम्बन्ध
किस का-के-की किन का-के-की अधिकरण किस में
किन में॥ १०० कौन शब्द के समान क्या शब्द भी प्रश्नवाचक है पर उसकी कारकरचना न होने के कारण उसे अव्यय कहते हैं और वह विशेषण के तुल्य आया करता है। जैसे क्ग बात क्या ठिकाना क्या कहंगा ॥
१०८ कौन और क्या ये प्रश्नवाच्य अकेले आवें तो कोन शब्द से प्रायः मनुष्य समझा जायगा और क्या शब्द से अनाणिवाचक का बोध होगा। जैसे कौन है अर्थात कोन मनुष्य है किस (मनुष्य ) का है किन ने किया क्या है अर्थात क्या वस्तु है क्या हुआ क्या देखा इत्यादि।
कती
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माषाभास्कर
४५
कता
परंतु जो संज्ञा के साथ आवे तो कौन और क्या दोनों निर्जीव और सजीव को लगते हैं। जैसे किस मनुष्य से किन लोगों में किस उपाय से ज्या ज्ञानी पुरुष हे क्या चार है क्या योद्धा है।
सम्बन्धवाचक सर्वनाम । १०६ सम्बन्धवाचक सर्वनाम उसे कहते हैं जो कही हुई संज्ञा से कुछ वर्णन मिलाता है। जेसे अपने जो घोड़ा देखा था ये। मेरा है। सम्बन्धवाचक सर्वनाम जे जहां रहता है वहां सो अथवा वह शब्द भी अवश्य लिखा वा समझा जाता है इसलिये इसे सम्बन्धवाचक कहते हैं।
१८० जो वा जोन कर्ता के दोनों वचन में ज्यों का त्यों बना रहता है पर और कारकों के एकवचन में जो को जिस और बहवचन में जिन वा जिन्ह आदेश हो जाता है। यथा कारक। एकवचन ।
बहुवचन। जो वा जिम ने जो वा जिन ने कर्म जिस को वा जिसे जिन को जिन्ही को जिन्हें करण जिस से
जिन से जिन्हों से सम्प्रद न जिस को जिसे जिन को जिन्हों को जिन्हें अपादान जिस से
जिन से जिन्हें। से सम्बन्ध __जिस का-के-की जिन का जिन्हें। का-के की अधिकरण जिस में
जिन में जिन्हों में॥ १८१ जो शब्द का परस्पर सम्बन्धी सो वो तीन शब्द शती कारक के दोनों वचनों में जैसे का तैसा बना रहता है पर शेष कारकों के एक वचन में सो को तिस ओर बहुवचन में तिन वा तिन्ह आदेश कर देते हैं। जैसे
कारक। एकवचन । बहुवचन । कतो सो वा तिस ने सो वा तिन ने कर्म तिस को तिसे तिन को तिन्हें तिन्ही को करण
तिस से तिन से तिन्ही से सम्प्रदान तिस को तिसे तिन को तिन्हें तिन्ही को अपादान तिस से
तिन से तिन्ही से
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माषाभास्कर
४५
सम्बन्ध तिस का-के-की तिन का-के-की अधिकरण तिस में
तिन में तिन्हेां में ॥ १८२ चेत रखना चाहिये कि निश्चयवाचक प्रश्नवाचक और सम्बन्धवाचक सर्वनामों में कता को छोड़ के शेष कारकों के बहुवचन में सानुनासिक हों विभक्ति के पर्व कोई २ विकल्प से लगा देते हैं। जैसे इनने वा इन्हों ने जिनका वा जिन्हें| का बोलते हैं। परंतु कोई २ वैयाकरण कहते हैं कि जिस रूप में ओं वा हों आवे वह सदा बहुत्व बताने के निमित्त होता है। जैसे हम को तुम्हों को अर्थात हम लोगों को तुम लोगों को इत्यादि। और अन्य रूप हमको तुमको आदि केवल आदरार्थ बहुवचन में आते है ॥ __ १८३ - इस उस किस जिस तिस सर्वनामों के स को तना आदेश करने से ये परिमाणवाचक शब्द अर्थात इतना उतना कितना जितना और तितना बनाये जाते हैं और उन्हीं सर्वनाम के साथ सामानतासचक सा (स सी) के लगाने से ये प्रकारवाचक शब्द भी अर्थात ऐसा कैसा जैसा तैसा और वैसा हुए हैं। इस+ सा= ऐसा किस + सा= कैसा जिस+सा =
सा और तिस + सा= तैसा । यह पांचों गुणवाचक की रीति पर आते हैं और उनके विकार होने का नियम लिङ्ग वचन के कारण वही है जो आकारान्त गुणवाचक के विषय बताया गया है ॥
१८४ ऊपर के लिखे हुए सर्वनामों को छोड़ के कितने एक शब्द और भी आते हैं जो इन्हीं सर्वनामों के तुल्य होते हैं। जैसे एक दो दोनों और सब अन्य कई के आदि ।
इति सर्वनाम प्रकरण ॥
पांचवां अध्याय।
क्रिया के विषय में ।
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१८५ कह पाये हैं कि क्रिया उसे कहते हैं जिसका मुख्य अर्थ करना है वह काल पुरुष और वचन से सम्बन्ध रखती है ॥
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भाषाभास्कर
१८६ क्रिया के मन को धातु कहते हैं और उसके अर्थ से व्यापार का बोध होता है ॥
१८७ चेत करना चाहिये कि जिस शब्द के अन्त में ना रहे और उसके अर्थ से कोई व्यापार समझा जाय तो वही क्रिया का साधारण रूप है जिसे क्रियार्थक संज्ञा भी कहते हैं। जैसे लिखना सीखना वालना इत्यादि ॥ ___ १८८ इस क्रियार्थक संज्ञा के ना का लोप करके जो रह जाय उसे ही क्रिया का मूल जाना क्योंकि वह सब क्रियाओं के सपों में सदा विद्यपान रहता है । जैसे खोलना यह एक क्रियार्थक संज्ञा है इसके ना का लाप किया तो रहा खाल इसे ही मल अर्थात धातु समझे। और ऐसे ही सर्वच ॥
१८६ क्रिया दो प्रकार की होती है एक सकर्मक दूसरी अकर्मक । सकर्मक क्रिया उसे कहते हैं जो कर्म के साथ रहती है अर्थात जिस क्रिया के व्यापार का फल कती में न पाया जाय जैसे पण्डित पोथी को पढ़ता है यहां पण्डित कता है क्योंकि पढ़ने की क्रिया पण्डित के प्राधीन है। यदि यहां पण्डित शब्द न बोला जायगा तो पढ़ने की क्रिया के साधन का बोध भी न हो सकेगा और पोथी इस हेतु से कर्म है कि इस क्रिया का जो पढ़ा जाना रूप फल है सो उसी पोथी में है तो यह क्रिया सकर्मक हुई ऐसे ही लिखना सुन्ना आदि और भी जाना । __१६० अकर्मक क्रिया उसे कहते हैं जिसके साथ कर्म नहीं रहता अर्थात उसका व्यापार और फल दोनों एकत्र होकर कता ही में मिलते हैं। जैसे पण्डित सोता है यहां पण्डित कती है और कर्म इस वाक्य में कोई नहीं पण्डित ही में व्यापार और फल दोनों हैं इस कारण यह क्रिया अकर्मक कहाती है ऐसे ही उठना बैठना आदि भी जाना ॥ ____ १६१ सकर्मक क्रिया के दो भेद हैं एक कर्तप्रधान और दूसरी कर्मप्रधान जिस क्रिया का लिङ्ग वचन कती के लिङ्ग वचन के अनुसार हो उसे कर्तृप्रधान और कर्म के लिङ्ग और वचन के समान जिस क्रिया का लिङ्ग वचन होवे उसे कर्मप्रधान क्रिया कहते हैं । यथा कर्तप्रधान।
__ कर्मप्रधान । स्त्री कपड़ा सीती है कपडा सीया जाता है
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माषाभास्कर
किसान गेहं बोवेगा गेहूं बोया जायगा लड़की पढ़ती थी लड़की पढ़ाई जाती थी।
घोड़े घास खाते हैं घोड़े से घास खाई जाती है ॥ १६२ ध्यान रखना चाहिये कि यदि कर्मप्रधान क्रिया के संग की की आवश्यकता होवे तो उसे करण कारक के चिन्ह के साथ लगा दो। जेसे रावण राम से मारा गया लड़के से रोटियां नहीं खाई गई हम से तुम्हारी बात नहीं सुनी जाती ॥ __१६३ समझ रक्खो कि जैसे कर्तप्रधान क्रिया के साथ कता का होना आवश्यक है वैसा ही कर्मप्रधान क्रिया के संग कर्म भी अवश्य रहता है परंतु जहां अकर्मक क्रिया का रूप कर्मप्रधान क्रिया के समान मिले वहां उसे भावप्रधान जाना ॥ __१६४ इस से यह बात सिद्ध हुई कि जब प्रत्यय कती में होता तो कर्त्ता प्रधान होता है और जब कर्म में होता है तब कर्म। इसी रीति से भाव में जब प्रत्यय आता है तो भाव ही प्रधान हो जाता है। जेसे रात भर किसी से नहीं जागा जाता बिना बोले तुम से नहीं रहा जाता बिना काम किसी से बेठा जाता है इत्यादि ॥
१६५ धातु के अर्थ को भाव कहते हैं हिन्दी भाषा में भावप्रधान क्रिया कम आती है और प्रायः उसका प्रयोग नहीं शब्द के साथ बोला जाता है॥ ___१६६ क्रिया के करने में जो समय लगता है उसे काल कहते हैं उसके मुख्य भाग तीन हैं अर्थात भूत वर्तमान और भविष्यत । भतकालिक क्रिया उसे कहते हैं जिसकी समाप्ति हो चुकी हो अर्थात जिस में आरम्भ और समाग्नि दोनों पाई जायं । जैसे तुमने कहा मैंने सुना है। वर्तमानकालिक क्रिया वह कहाती है जिसका आरम्म हो चुका हो परंतु समाप्ति न हुई हो। जैसे वे खेलते हैं मैं देखता हूं। भविष्यत कात्न की क्रिया का लक्षण यह है कि जिसका आरम्य न हुआ हो । जैसे में पढुंगा तुम सुनोगे इत्यादि ॥
“१६० छः प्रकार की भूतकालिक क्रिया होती हैं अर्थात सामान्यभत पूर्णभूत अासन्नभूत संदिग्धभूत अपूर्णभूत और हेतुहेतुमद्धत ॥
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४८
भाषाभास्कर
१ सामान्यभत क ल की क्रिया से क्रिया की पूर्णता तो समझी जाती हे परंतु भूतकाल की विशेषता बोधित नहीं होती। __ २ पूर्णभूत उसे कहते हैं जिस से क्रिया की पूर्णता और भतकाल का दरता दोनों समझी जाती हैं। ___३ आसन्नभूत से क्रिया की पूर्णता और भूतकाल की निकटता भी जानी जाती है ॥
४ संदिग्धभत से भतकालिक क्रिया का संदेह समझा जाता है।
५ अपूर्णभूत काल की क्रिया से भतकाल तो पाया जाता है परंतु क्रिया की पूर्णता पाई नहीं जाती ॥
६ हेतुहेतुमद्धत क्रिया उसे कहते हैं जिस में कार्य और कारण का फल भतकाल का होता है। ___ १६८ वर्तमानकाल की क्रिया के दो भेट हैं अर्थात सामान्यवर्तमान और संदिग्धवर्तमान । सामान्यवर्तमान क्रिया से जाना जाता है कि कता क्रिया को उसी समय कर रहा है। संदिग्धवर्तमान से वर्तमानकालिक क्रिया का संदेह समझा जाता है। __q8 भविष्यतकालिक क्रिया की दो अवस्था होती है अर्थात सामान्यभविष्यत और संभाव्यभविष्यत । सामान्यभविष्यत क्रिया का अर्थ उक्त हुआ है। संभाव्यभविष्यत की क्रिया से भविष्यत काल और किसी बात की चाह जानी जाती है। ___ २०० क्रिया के दो भेद और भी हैं एक विधि दूसरी पूर्वकालिक किया। विधि क्रिया उसे कहते हैं जिस से आज्ञा समझी जाती है। पर्वकालिक क्रिया से लिङ्ग वचन और पुरुष का बोध नहीं होता और उसका काल दूसरी क्रिया से प्रकाशित होता है ॥
क्रिया के संपर्ण रूप के विषय में । २०१ कह आये हैं कि क्रिया के साधारण रूप के ना कः लोप करके जो शेष रहता हे सो क्रिया का धातु है और क्रिया के समस्त रूपों में धातु निरन्तर अटल रहता है। अब ये दो बातें चेत रखना चाहिये ।
१ क्रिया के धातु के अन्त में ता कर देने से हेतुहेतुमदत क्रिया बनती है। जैसे धातु खाल और हेतुहेतुमद्धत है खोलता ।
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न
२ क्रिया के धातु के अन्त में आ कर देने से सामान्यभूत काल की क्रिया होती है। जैसे धातु खाल और सामान्यभूत भूतहे खाला ऐसे ही सर्वच समझो * २०२ ये तीन अर्थात धातु हेतुहेतुमद्भुत और सामान्यभूत क्रिया के संपूर्ण रूप के मुख्य भाग हैं इस कारण कि इन्हीं से क्रिया के सब रूप निकलते हैं । जैसे
૧ धातु से संभाव्यभविष्यत सामान्यभविष्यत विधि और पूर्बका - लिक क्रिया निकलती हैं ॥
२ हेतुहेतुमद्भूत से सामान्यवर्त्तमान अपूर्णभूत और संदिग्धवर्त- . मान क्रिया निकलती हैं ॥
भाषाभास्कर
३
सामान्यभूत से श्रासन्नभूत पूर्णभूत और संदिग्धभूत को क्रिया निकलती है। जैसा. नीचे क्रियावृक्ष में लिखा है ।
Tullhinet
सामान्यवर्त्तमान
हेतुहेतुमद्वत
संदिग्धवर्त्तमान 'सामान्यभविष्यत विधि और पूर्वकालिक संभाव्यभविष्यत
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धातु
सामान्यभूत
ME
संदिग्धभूत
* नो धातु स्वरान्त हो तो सामान्यभूत क्रिया के बनाने में उच्चारण के निमित्त धातु के अन्त में या लगा देते हैं और जो धातु के अन्त में ई वा ए होवे तो उसे ह्रस्व कर देते हैं। नेसे धातु खा और सामान्यभूत खाया वैसे ही पी पिया छू छूया दे दिया धो धोया आदि जानो ॥
7
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माषाभास्कर
क्रिया के बनाने के विषग में।
१ धातु से। २०३ संभाष्यभविष्यत-धात हलन्त हो तो उसको श्रम से ए ए ऐ ओ एं इन स्वरों के लगाने से तीनों पुरुष की क्रिया दोनों वचन में हो जाती हैं। और जो धातु स्वरान्त हो ते। ऊ ओ को छोड़ शेष प्रत्ययों के आगे व विकल्प से लगाते हैं। जेसे हलन्त धातु बोल से बोलं बोले आदि होते हैं और स्वरान्त धातु खा से खाऊं खाये वा खावे धादि होते हैं॥
२०४ सामान्यभविष्यत-संभाव्यभविष्यत क्रिया के आगे पुल्लिङ्ग एक वचन के लिये गा बहुवचन के लिये गे और स्त्रीलि एकवचन के लिये गी बहुवचन के लिये गों तीनों पुरुष में लगा देते हैं। जेसे खाऊंगा खावेगा खावेगी आदि ॥
२०५ विधिक्रिया-विधि क्रया और संभाव्यभविष्यत क्रिया में केवल मध्यमपुरुष के एकवचन का भेद होता है। विधि में मध्यमपुरुष का एकवचन धातु ही के समान होता है। जेसे खोल खोले खोलें आदि जाना* ।
__ २ हेतुहेतुमद्धत से। २०६ सामान्यवर्तमान-हेतुहेतुमद्धत क्रिया के आगे क्रम से हूं है है हैं हो हैं वर्तमान काल के इन चिन्हों के लगाने से सामान्यवर्तमान की क्रिया बनती है। जैसे खेलता हूं खेलते हैं खाता हे खाते हो ॥
२०० अपर्णभूत-हेतुहेतुमदत क्रिया के आगे था के लगाने से अपूर्णभूत काल की क्रिया हो जाती है। जैसे खेलता था खाता था खेलते थे आदि ॥ ___ २०८ संदिग्धवर्तमान-हेतुहेतुमद्धत क्रिया के आगे लिङ्ग और वचन के अनुसार होना क्रिया का भविष्यत काल के रूप लगाने से संदिग्ध वर्तमान की क्रिया बनतो है। जेसे खोलता हाऊंगा खोलता होवेगा आदि ।
* होना देना और लेना इन तीनों की विधि क्रिया दो रूप से पाती हैं । जेसे हो और होओ दं और देऊं दो और देओ लो और लेखो चादि कोई २ बोलते और लिखते ॥
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मापामास्वर
३ सामान्यभूत से। २०६ प्रासन भत-सामान्यभत की अकर्मक क्रिया से आगे ये चिन्ह अर्थात हूं हे हे हे हे। हे कर्ता के बचन और पुरुष के अनुसार लगाने से आसन्नभूत क्रिया वनती है परंतु सकर्मक क्रिया से आगे कर्म के वचन के अनुसार हे वा तीनों पुरुष में पाना है । नेसे में बोला हूं त बोला हे मैंने घोड़ा देखा है मैंने घोड़े देखे हैं तुमने घोड़ा देखा है तुमने घोड़े देखे हैं इत्यादि ॥
२१० पूर्णभूत-सामान्यभूत क्रिया के आगे था के लगाने से पर्णभत क्रिया हो जाती है। जेसे मेंने खाया था तने खाया था में बोला था तू बोला था आदि । ____ २११ संदिग्धभूत-सामान्यभूत क्रिया के आगे होना इस क्रियाकेभविप्यतकाल सम्बन्धी रूपों के लिङ्ग वचन के अनुसार लगाने से संदिग्धभत
की क्रिया हो जाती है । जैसे मैंने देखा होगा तूने देखा होगा आदि । ___ २१२ चेत रखना चाहिये कि आकारान्त क्रिया में लिङ्ग और वचन के कारण भेद तो होता है परंतु पुरुष के कारण विकार नहीं होता। आकारान्त पुल्लिङ्ग क्रिया हो तो एकवचन में ज्यों की त्यों बनी रहेगी परंतु बहुवचन में एकारान्त हो जाती है स्त्रीलिङ्ग के एकवचन में ईकारान्त हो जाती है और बहुवचन में सानुनासिक ईकारान्त हो जाती है ॥
२१३ यदि आकारान्त क्रिया के साथ प्राकारान्त सहकारी क्रिया अर्थात था हो तो दोनों में लिङ्ग और वचन का भेद पड़ेगा परंतु स्त्रीलिङ्ग के बहुवचन में केवल इतना विशेष है कि पिछली क्रिया के अंत्य स्वर के ऊपर साननासिक का चिन्ह लगा देना चाहिये ॥
२१४ आकारान्त छोड़ के और जितनी क्रिया हैं उन सभी के रूप दोनों लिङ्ग में ज्यों के त्यों बने रहते हैं उनके लिङ्ग का बोध इस रीति से होता है कि यदि की पुल्लिङ्ग हो तो क्रिया भी पुल्लिङ्ग और जो कता स्त्रीलिङ्ग हो तो क्रिया भी स्त्री लङ्ग समझी जायगी। . ___ २१५ नीचे के चक्र में क्रिया के संपर्ण रूपों के अंत्य अक्षर काल लिङ्ग वचन और पुरुष के अनुसार लिखे हैं उन्हे धातु से लगाकर किया बना लो।
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ध्यंजनान्त धात
सामान्यभत ____ आसन्नभत
पर्णभत एकवचन बहुवचन । एकवचन । बहुवचन एकवचन
बहुवचन | स्त्रीलिङ्ग पुल्लिङ्ग | स्त्रीलिङ्ग पलिङ्ग स्त्रीलिङ्ग पुल्लिङ्ग स्त्रीलिङ्ग | पुल्लिङ्ग | स्त्रीलिङ्ग आ
आ है | ई है | ए हैं | ई हैं | आ था| ई थी | ए थे| ई थी | ई पा है । ई है | ए है । ई हैं |आ था| ई थी | ए थे| ई थी
उत्तम
मध्यम
प्रा
who
उत्तम
name
lane
ar
स्वरान्त धात
Showdohd
मध्यम
lane
ur luhu
lano
उत्तम
मध्यम
स्वरान्त वा व्यंजनान्त धात
| ये । । या है | ई है | ये हैं | ई है |या था| ई थी | ये थे। ई थी | | ये रे या है | ई है | ये हैं। ई है | या था| ई ची येथेई थी |
के । ई या है | ई है। ये हैं। ई हैं या था| ई थी | ये थे । ई थी | हेतु हेतुमदत सामान्य वर्तमान
अपर्णभूत ता । ती ते । ती | ता हूं | ती हूं | ते हैं | ती है | ता था | ती थी | ते थे । ती ची | ता । ती
ता है | ती है | ते हो | ती हो ता था | ती थी| ते थे | ती थी तातो ते तीता है| नी है ते हैं। ती है ता था | ती थी| तेथे ती थी संभाव्यभविष्यत सामान्यभविष्यत
विधि क्रिया एं । ऊंगा | जंगी | एंगे | एगी - ए ओ ओ एगा । एगी। आगे ओगी (धातु) (धातु) ओ ओ । ए रं । एं । एगा । एगी । एंगे | एम ए | ए । रं रं
उत्तम
ऊं
मध्यम
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भाषाभास्कर
हो
सामान्यभंत
२१६ अकर्मक क्रिया के धातु दो प्रकार के होते हैं एक स्वरान्त दसरा व्यंजनान्त । अब उन क्रियाओं का उदाहरण जिनका धातु स्वरान्त होता है होना क्रिया के समस्त रूपों में लिख देते हैं ।
होना क्रिया के मुख्य भाग ॥ २१० . धातु हेतुहेतुमसत होता
हुआ २१८ पहिले सामान्यभत और जिन कालों की क्रिया उस से निकलती हैं उन्हें लिखते हैं।
१ सामान्यभत काल ।
कता-पुल्लिङ्ग
एकवचन । उत्तम पुरुष मध्यम ॥
तू हुआ । तुम हुए अन्य ॥ वह हुआ
कती-स्त्रीलिङ्ग
बहुवचन ।
920
hey hom hem Momote
cho Phận
तुम हुईं
Đ
२ पूर्णभूत काल
कती-पुल्लिङ्ग में हुआ था तू हुआ था वह हुआ था
का-स्त्रीलिङ्ग
ou so sog
hem 1669
55
EMEER
में हुई थी
SALSORasha
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भाषाभास्कर
आसन्नभत काल । कर्ता-पुल्लिङ्ग
ཟླ ༧ ༧
hom hem
oW MUML
कता-स्त्रीलिङ्ग में हुई हुं
6GLeo_on_so com
༡༧ ༧
hom109009 Motobur
___ तुम हुई हो
60160161
वह हुई हे
४ संदिग्धभूत काल ।
कता-पुल्लिङ्ग में हुआ हाऊंगा हम हुए होवेंगे तू हुआ होगा तुम हुए होगे वा होओगे वह हुआ होगा वे हुए होवेंगे
कता-स्त्रीलिङ्ग में हुई होऊंगी हम हुई होवेंगी तू हुई होगी
तुम हुई होगी वह हुई होगी वे हुई होगी २५६ हेतुहेतुमद्धत और जिन कालों की क्रिया उस से निकलती है उन्हें लिखते हैं
५ हेतुहेतुमद्भत काल ।
कता-पुल्लिङ्ग में होता
हम होते तू होता
तुम होते वह होता
वे होते कता-स्त्रोलिङ्ग में होती
हम होतो
तुम होती वह होतो
धे होती
तू होती
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माषाभास्कर
v
तुम होते है। वे होते हैं
२ सामान्य वर्तमान काल।
कता-पुल्लिङ्ग में होता हूं
हम होते हैं तू होता है वह होता हे
कला-स्त्रीलिङ्ग में होती हूं
हम होती है तू होती है
तुम होती हो वह होती है
वे होती है ३ अपूर्णभूत काल ।
___ कना-पुल्लिङ्ग में होता था
हम होते थे तू होता था
तुम होते थे वह होता था
वे होते थे . कता-स्त्रीलिङ्ग में होती थी
हम होती थीं • तू होती थी
तुम होती थीं वह होती थी
वे होती थीं २२० जिन कालों की क्रिया धातु से निकलती हैं उन्हें लिखते हैं:
१ विधि क्रिया।
की-पुल्लिङ्ग वा स्त्रीलिङ्ग में होऊ
हम होवें
तुम होओ वह होवे
धे होवें आदरपूर्वक विधि। परोक्ष विधि ।
इलिये
इषियो
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भागामास्कर
२ संभाष्यभविष्यत काल ।
का-पुल्लिङ्ग वा स्त्रीलिङ्ग मे होऊ
हम होवे तू होवे
तुम हो वा हो वह होवे
वे हो। ३ सामान्यभविष्यत काल ।
कता-पुल्लिङ्ग में होऊंगा
हम होवेगे तू होवेगा
तुम होओगे वह होवेगा
वे होवेंगे कता-स्त्रीलिङ्ग में हाऊंगी
हम होवेंगी तू होवेगी वा होगी
तुम होओगी वा हांगी वह होवेगी वा होगी
वे होवेंगी वा हांगी ४ पर्वकालिक क्रिया।
होके होकर वा हो करके । २२१ अब उन क्रियाओं का उदाहरण रहना क्रिया के समस्त रूपों में देते है जिनका धातु व्यंजनान्त होता है ॥
रहना क्रिया के मुख्य भाग । আন্ত हेतुहेतुमदत
रहता सामान्यभूत २२२ सामान्यभूत और जिन कालों की क्रिया उस से निकलती है उन्हें लिखते हैं।
१ सामान्यभूत काल ।
कता-पुल्लिङ्ग एकवचन ।
बहुवचन । हम रहे
रहा
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भाषाभास्कर
५०
༡༧
त रहा
तुम रहे वह रहा
वे रहे कता-स्त्रीलिङ्ग में रही
हम रहीं तू रही
वे रहीं २ आसन्नभूत काल ।
___ कती-पुल्लिङ्ग . में रहा हूं तू रहा है
तुम रहे हो
तुम रहीं
वह
रही
h
# ༡༧
ine
____कती-स्त्रीलिङ्ग में रही हूं
हम रही है त रही है
तुम रही हो बह रही है
वे रही है ३ पूर्णभूत काल ।
कता-पुल्लिङ्ग में रहा था
हम रहे थे त रहा था
तुम रहे थे वह रहा था
कर्त-स्त्रीलिङ्ग में रही थी
हा रही थीं तू रही थी
तुप रही थीं वह रही थी . वे रही थी
४ संदिग्धभूत काल ।
कती-पुल्लिङ्ग में रहा होऊंग।
हन रहे होवेंगे वा होंगे तू रहा होवेगा वा होगा तुम रहे होगे वा होगे वह रहा होवेगा वा होगा वे रहे होवेंगे वा होंगे
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भाषाभास्कर
।
में रहता
तुम रहते
कता-स्त्रीलिङ्ग में रही होऊंगी
हम रही होगी तू रही होवेगो
तुम रही है।ओगा वा होगी वह रही होवेगी
वे रही होवेंगो २२३ हेतुहेतुमदत और जिन कालों की क्रिया उस से निकलती हैं उन्हें लिखते हैं।
१ हेतुहेतुमद्त काल । कता-पुल्लिङ्ग
हम रहते तू रहता वह रहता
धे रहते कती-स्त्रीलिङ्ग में रहती
हम रहती तू रहती
तुम रहती वह रहती
वे रहती २ सामान्य वर्तमान काल । कता-पुल्लिङ्ग
हम रहते हैं तू रहता है
तुम रहते हो वह रहता है
वे रहते हैं ___ कर्ता-स्त्रीलिङ्ग में रहती हूं
हम रहती हैं तू रहती है
तुभ रहती हो वह रहती है
व रहती हैं ३ अपर्णभूत काल ।
कता-पुल्लिङ्ग में रहता था हम रहते थे तू रहता था
तुम रहते थे बह रहता था
वे रहते थे
में रहता हूं
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२२४
मैं रहती थी
तू रहती थी. वह रहती थी
भाषाभास्कर
में रहता होऊंगा
तू रहता होगा वह रहता होगा
में रहूं
तू रह
वह रहे
कर्त्ता - स्त्रीलिङ्ग
में रहती होऊंगी
तू रहती होवेगी
वह रहती होवेगी
तू रहे वह रहे
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संदिग्धवर्त्तमान काल । कती - पुल्लिङ्ग
आदरपूर्वक विधि |
रहिये
हम रहती थीं तुम रहती थीं वे रहती थीं
में रहूंगा
कर्त्ता - स्त्रीलिङ्ग
जिन कालों की क्रिया धातु से निकलती हैं उन्हें लिखते हैं ॥
१ विधि क्रिया ।
कती - पुल्लिङ्ग वा स्त्रीलिङ्ग
हम रहते हेावेंगे
तुम रहते होगे वा हे गे रहते हेावेंगे वा होंगे
वे
हम रहती होगी
तुम रहती होगी वा होगी वे रहती होवेंगी
२ संभाव्य भविष्यत काल । कती - पुल्लिङ्ग वा स्त्रीलिङ्ग
हम रहें
तुम रहो
वे रहें परोक्ष विधि |
रहिये। ।
हम रहे
तुम रहो वे रहे
३ सामान्यभविष्यत काल । कती - पुल्लिङ्ग
१८
हम रहेंगे
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भाषाभास्कर
तू रहेगा वह रहेगा
व रहेंगे कता-स्त्रीलिङ्ग में रहूंगी
हम रहेंगी तू रहेगी
तुम रहोगी वह रहेगी
व रहेंगी ___४ पर्वकालिक क्रिया।
रहके रहकर वा रहकरके ॥
पा
__ सकर्मक क्रिया के रूप ॥ . २२५ सकर्मक क्रिया के धातु दो प्रकार के होते हैं एक स्वरान्त दसरा व्यंजनान्त । अब उन सकर्मक क्रियाओं का उदाहरण पाना प्यिा के संपूर्ण रूपों में लिखते हैं जिनका धातु स्वरान्त होता है ॥
पाना क्रिया के मुख्य भाग । धातु हेतुहेतुमद्धत
पाता सामान्यभूत
पाया २२६ सामान्यभूत और जिन कालों की क्रिया उस से निकलती है उन्हें लिखते हैं ।
१ सामान्यभूत काल ।
र एकवचन । कर्म-पुल्लिङ्ग और बहुवचन । मैंने वा हमने पाया
मैंने वा हमने पाये तूने , तुमने पाया
तूने , तुमने पाये उसने, उन्हों ने पाया
उसने , उन्हेंों ने पाये कर्म-स्त्रीलिङ्ग और एकवचन । कर्म-स्त्रीलिङ्ग और बहुवचन । मैंने वा हमने पाई
मैंने वा हमने पाई तूने , तुमने पाई
तूने , तुमने पाई लसने, उन्ह। ने पाई
उसने, उन्होंने पाई
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भाषाभास्कर
Android
___२ आसन्नभूत काल । कर्म-पुल्लिङ्ग और एकवचन । कर्म-पुल्लिङ्ग और बहुवचन । मैंने वा हमने पाया है मैंने वा हमने पाये हैं तने , तुमने पाया है तने , तुमने पाये हैं उसने, उन्हों ने पाया है उसने , उन्हों ने पाये हैं कर्म-स्त्रीलिङ्ग और एकवचन । कर्म-स्त्रीलिङ्ग और बहुवचन । मैंने वा हमने पाई है मैंने वा हमने पाई हैं तने , तुमने पाई है तने , तुमने पाई हैं उसने, उन्हों ने पाई है उसने , उन्हों ने पाई हैं
३ पर्णभत काल । कर्म-पुल्लिङ्ग और एकवचन । कर्म-पुल्लिङ्ग और बहुवचन । मैंने वा हमने पाया था मैंने वा हमने पाये थे तूने , तुमने पाया था तने , तुमने पाये थे उसने , उन्हों ने पाया था उसने , उन्हों ने पाये थे कर्म-स्त्रीलिङ्ग और एकवचन। कर्म-स्त्रीलिङ्ग और बहुवचन । मैंने वा हमने पाई थी मैंने वा हमने पाई थी तूने , तुमने पाई थी तूने , तुमने पाई थीं उसने , उन्हों ने पाई थी उसने , उन्हों ने पाई थीं
४ संदिग्धभत काल । कर्म-पुल्लिङ्ग और एकवचन । कर्म-पुल्लिङ्ग और बहुवचन । मैंने वा हमने पाया होऊंगा मैंने वा हमने पाये होगे तूने , तुमने पाया होगा तूने , तुमने पाये होओगे उसने, उन्हों ने पाया होगा उसने , उन्हें ने पाये होवेंगे कर्म-स्त्रीलिङ्ग और एकवचन । कर्म-स्त्रीलिङ्ग और बहुवचन । मैंने वा हमने पाई होऊंगी मैंने वा हमने पाई होवेंगी तूने , तुमने पाई होगी तूने , तुमने पाई होगी उसने , उन्हों ने पाई होगी उसने , उन्हों ने पाई होवेंगी २२० हेतुहेतुमद्धत और जिन कालों की क्रिया उस से निकलती है इन्हें लिखते हैं।
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भाषाभास्कर
१ हेतुहेतुमद्भुत काल ।
का-पुल्लिङ्ग
एकवचन। में पाता
बहुवचन । हम पाते
तू पाता
तुम पाते वे पाते
वह पाता
का-स्त्रीलिङ्ग
में पाती
हम पाती तुम पाती
तू पाती
में पाता हूं
492906920
पाता है
106000
वह पाता है
में पाती हूं तू पाती है वह पाती है
वे पाती २ सामान्यवर्तमान काल । कर्ता-पुल्लिङ्ग
हम पाते हैं तुम पाते हो
वे पाते हैं कर्ता-स्त्रीनिङ्ग
हम पाती हैं तुम पाती हो
वे पाती हैं ३ अपूर्णभूत काल । कत्ता-पुल्लिङ्ग
हम पाते थे तुम पाते थे
वे पाते थे की-स्त्रीलिङ्ग
हम पाती थीं तुम पाती थीं धे पाती थों
में पाता था तू पाता था वह पाता था
में पाती थी तू पाती थी वह पाती थी
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8 संदिग्धवर्त्तमान काल । मैं पाता होऊंगा
२२८
तू पाता होगा
वह पाता होगा
मैं पाती होऊंगी
तू
पाती होवेगी
वह पाती होवेगी
मैं पाऊं
तू पा वह पावे
आदरपूर्वक विधि |
पाइये
मैं पाऊं
पावे
तू वह पावे
मैं पाऊंगा तू पावेगा वह पावेगा
भाषाभास्कर
हम पाती होवेंगी
तुम पाती होगी
वे पाती होगी.
जिन कालों की क्रिया धातु से निकलती हैं उन्हें लिखते हैं ।
१ विधि क्रिया ।
मैं पाऊंगी
तू पावेगी वह पावेगी
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कती - पुल्लिङ्ग ।
कती स्त्रीलिङ्ग
हम पाते होवेंगे
तुम पाते होओगे वा होगे
वे
पाते होवेंगे
हम पावें
तुम पाओ वे पावें
कर्त्ता - स्त्रीलिङ्ग
परोक्ष विधि |
पाइयो
२ संभाव्यभविष्यत काल । कर्ता - पुल्लिङ्ग वा स्त्रीलिङ्ग
हम प वें
तुम पात्र
वे पावें
३ सामान्यभविष्यत काल ।
कर्त्ता - पुल्लिङ्ग
#
हम पायेंगे
पाओगे
तुम वे पावेंगे
63
हम पावेंगी
तुम पाओग वे पावेंगो
((
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भाषाभास्कर
४ पर्वकालिक क्रिया।
पाके पाकर वा पाकरके ॥ ____ २२६ अब उन सकर्मक क्रियाओं का उदाहरण देखना क्रिया के समस्त रूपों में लिखते हैं जिनका धातु व्यंजनान्त होता है ॥
देखना क्रिया के मुख्य भाग । धातु
देख हेतुहेतुमद्भत
देखता सामान्यभूत
देखा २३० सामान्यभत और जिन कालों की क्रिया उस से निकलती है उन्हें लिखते हैं।
१ सामान्यभूत काल । कर्म-पुल्लिङ्ग और एकवचन। कर्म-पुल्लिङ्ग और बहुवचन । मैंने वा हमने देखा
मैंने वा हमने देखे तूने " तुमने देखा
तूने " तुमने देखे उसने” उन्हों ने देखा
उसने” उन्हें। ने देखे कर्म-स्त्रीलिङ्ग और एकवचन। कर्म-स्त्रीलिङ्ग और बहुवचन । मैंने वा हमने देखी
मैंने वा हमने देखीं तूने " तुमने देखी
तूने " तुमने देखों उसने” उन्हों ने देखो
उसने" उन्हों ने देखी २ आसनभूत काल । कर्म-पुल्लिङ्ग और एकवचन । कर्म-पुल्लिङ्ग और बहुवचन । मैंने वा हमने देखा है मैंने वा हमने देखे हैं
तूने " तुमने देखे हैं उसने" उन्हों ने देखा है उसने” उन्हों ने देखे हैं कर्म-स्त्रीलिङ्ग और एकवचन । कर्म-स्त्रीलिङ्ग और बहुवचन ।
मैंने वा हमने देखी है मैंने वा हमने देखी हैं तूने "तुमने देखी है तूने "तुमने देखी है उसने" उन्हों ने देखी है
उसने" उन्हों ने देखी है
बन, तुमने देखा है
.
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भाषाभास्कर
३ पूर्णभूत काल । कर्म-पुल्लिङ्ग और एकवचन। कर्म-पुल्लिङ्ग और बहुवचन । मैंने वा हमने देखा था मैंने वा हमने देखे थे तूने वा तुमने देखा था तने वा तुमने देखे थे उसने वा उन्हों ने देखा था उसने वा उन्हें। ने देखे थे कर्म-स्त्रीलिङ्ग और एकवचन । कर्म-स्त्रीलिङ्ग और बहुवचन। मैंने वा हमने देखी थी मैंने वा हमने देखी थीं तूने वा तुमने देखी था तूने वा तुमने देखी थीं उसने वा उन्हों ने देखी थी उसने वा उन्हें। ने देखी थीं २३१ शेष कालों की क्रियाओं के रूप रहना क्रिया के रूपों के अनुसार बनाये जाते हैं ।
२३२ ऊपर के सब उदाहरण कर्तृवाच्य हैं अब सकर्मक धातु के कर्मवाच्य क्रिया का उदाहरण लिखते हैं। कर्मवाच्य में की प्रगट नहीं रहता परंतु कर्म ही कती के रूप से आता है उसके बनाने की यह रीति है कि मुख्य धातु की सामान्यभूत क्रिया के आगे जाना इस क्रिया के रूपों को काल पुरुष लिङ्ग और वचन के अनुसार लिखते हैं ।
देखा-जाना क्रिया के मुख्य भाग । धातु
देखा जा हेतुहेतुमद्दत
देखा जाता सामान्यभूत
देखा गया २३३ सामान्यभूत और जिन कालों की क्रिया उस से निकलती है उन्हें लिखते हैं॥
१ सामान्यभूत काल ।
पुल्लिङ्ग मैं देखा गया
हम देखे गये तू देखा गया
तुम देखे गये वह देखा गया
वे देखे गये
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६६
भाषाभास्कर
में देखी गई
हम देखी गई तू देखी गई
तुम देखी गई वा! देखी गई
वे देखी गई २ आसन्नभूत काल।
पुल्लिङ्ग में देखा गया हूं
हम देखे गये हैं गया है
तुम देखे गये हो गया है
वे देखे गये हैं
AMAVAN
स्त्रीलिङ्ग
में देखी गई हूं
हम देखी गई हैं तू देखी गई है
तुम देखी गई हो वह देखी गई है
वे देखी गई हैं ३ पूर्णभूत काल ।
पुल्लिङ्ग में देखा गया था
हम देखे गये थे तू देखा गया था
तुम देखे गये थे वह देखा गया था
वे देखे गये थे
स्त्रीलिङ्ग मैं देखी गई थी
हम देखी गई थी तू देखी गई थी
तुम देखी गई थीं वह देखी गई थी
वे देखी गई थीं ४ संदिग्धभूत काल ।
पुल्लिङ्ग में देखा गया होऊंगा हम देखे गये होवेंगे तू देखा गया होगा
तुम देखे गये होओगे वह देखा गया होगा
वे देखे गये होवेंगे ___२३४ हेतुहेतुमद्धत और जिन कालों को किया उस से निकलती है उन्हें लिखते हैं।
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24
3
१ हेतुहेतुमद्धत काल
पुल्लिङ्ग मैं देखा जाता
हम देखे जाते तू देखा जाता
तुम देखे जाते वह देखा जाता
व देखे जाते
स्त्रीलिङ्ग में देखी जाती
हम देखी जाती तू देखी जाती
तुम देखी जाती वह देखी जाती
वे देखी जाती २ सामान्यवर्तमान काल ।
पुल्लिङ्ग में देखा जाता हूं
हम देखे जाते हैं तू देखा जाता है
तुम देखे जाते हो वह देखा जाता है
व देखे जाते हैं
स्त्रीलिङ्ग मैं देखी जाती हूं
हम देखी जाती है तू देखी जाती है
तुम देखी जाती हो वह देखी जाती है
वे देखी जाती हैं ३ अपूर्णभूत काल ।
पुल्लिङ्ग में देखा जाता था
हम देखे जाते थे तू देखा जाता था
तुम देखे जाते थे वह देखा जाता था
वे देखे जाते थे
स्त्रीलिङ्ग
में देखी जाती थी तू देखी जाती धी वह देखी जाती थी
हम देखी जाती थीं तुम देखी जाती थी वे देखी जाती थीं
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४ संदिग्धवर्तमान काल ।
में देखा जाता होऊंगा।
__ हम देखे जाते होवेगे तू देखा जाता होगा। तुम देखे जाते होगे वह देखा जाता होगा
वे देखे जाते होवेंगे
स्त्रीलिङ्ग में देखी जाती हाजंगी हम देखी जाती होवेंगी त देखी जाती होगी - तुम देखी जाती होओगी
वह देखी जाती होगी वे देखी जाती होगी २३५ जिन कालों की क्रिया धातु से निकलती हैं उन्हें लिखते हैं।
१ विधि क्रिया । में देखा जाऊं
हम देखे जावें तू देखा जा
तुम देखे जाओ वह देखा जावे
वे देखे जावें श्रादरपूर्वक विधि ।
परोक्ष विधि। देखे जाइये
देखे जाइये। २ संभाव्यभविष्यत काल ।
में देखा जाऊं
हम देखे जावें वा जायें तू देखा जावे वा जाय तुम देखे जाओ वा जावो वह देखा जावे वा जाय वे देखे जावें वा जायें
. स्त्रीलिङ्ग में देखी जाऊं
हम देखी जावें वा जायें तू देखी जावे वा जाय तुम देखी जाओ वा जावो वह देखी जावे वा जाय वे देखी जावें वा जायें
३ सामान्यभविष्यत काल ।
पुल्लिङ्ग में देखा जाऊंगा
हम देखे जावेंगे वा जायेंगे तू देखा जावेगा वा जायगा तुम देखे जाओगे वा जावे.गे
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भाषाभास्कर
वह देखा जावेगा वा जायगा वे देखे जावेगे वा जायेंगे
स्त्रीलिङ्ग में देखी जाऊंगी
हम देखी जावेंगी वा जायेगी त देखी नावेगी वा जायगी तुम देखी जाओगी वा जावोगी
वह देखी जावेगी वा जायगी वे देखी जावेंगी वा जायेगी २३६ कह आये हैं कि सामान्यभूत काल की क्रिया बनाने की यह रीति है कि हलन्त धातु के एकवचन में आ और बहुवचन में ए लगा देते हैं परंतु एक हलन्त धातु की क्रिया है अर्थात करना और पांच स्वरान्त धातु की क्रिया हैं अर्थात देना पीना लेना होना और जाना जिनकी भूतकालिक क्रिया पूर्वोक्त साधारण रीति के अनुसार बनाई नहीं जाती उनकी आदरपूर्वक विधि और परोक्षविधि क्रिया भी साधारण रीति के अनुरोध नहीं होती इस कारण उन्हें नीचे के चक्र में एकच लिख देते हैं।
सामान्यभत काल । साधारणरूप| एकवचन । बहुवचन पादरपूर्वकविधि परोक्ष विधि
पुल्लिङ्ग स्त्रीलिङ्ग पुल्लिङ्ग स्त्रीलिङ्ग करना
कीजिये कीजियो देना | दिया दीदिये दी | दीजिये । दीजियो पीना
पिया पी पिये | पी | पीजिये । पीजियो लेना
लीजिये लीजियो होना हा
हूजिये जाना गया| गई गये | गई
२३० जान पड़ता है कि संस्कृत धातु कृ के कुछ विकार करने से हिन्दी की दो एकार्थक क्रिया निकली हैं अर्थात कीना और करना इन के सामान्यभूत और आदरपूर्वक विधि क्रिया ये हैं ॥
करना का सामान्यभूत करा आदरपूर्वक विधि करिये कीना , , किया है , कीजिये
काश
ता
लिया
हजियो
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00
.
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२३८ इन दिनों में करा और करिये ये रूप प्रचलित नहीं है पर उनके स्थान में किया और कीजिये ऐसे रूप होते हैं। कीना भी अप्रचलित हुआ है परंतु उसकी जगह में करना आता है ॥ __२३६ देना पीना लेना होना इन चारों की भूतकाल और विधि क्रिया के बनाने में जो विशेषता होती है सो प्रायः उच्चारण की सुगमता के निमित्त हे॥ ___ २४० बुद्धि में आता है कि दो एकार्थक संस्कृत धातु अर्थात या और गम से जाना क्रिया के समस्त रूप बन गये हैं या के यकार को ज आदेश करके ना चिन्ह लगाने से साधारण रूप जाना बनता है जिसकी सामान्यभूत काल की क्रिया अर्थात गया गम से निकली है ॥ .
२४१ भया यह एक क्रिया है जो भूतकाल छोड़ के और किसी काल में नहीं होती। संभव है कि संस्कृत धातु भू से निकली है वा होना धातु के सामान्यभूत के ही दोनों रूप हैं अर्थात कोई हुआ और कोई २ इसी को भया भी कहते हैं ॥ ___ २४२ कह आये हैं कि क्रिया दो प्रकार की होती है अकर्मक और सकर्मक इनको छोड़ के और भी एक प्रकार की क्रिया है जिसे प्रेरणार्थक कहते हैं इस कारण कि उस से प्रेरणा समझी जाती है ॥
प्रायः अकर्मक क्रिया से सकर्मक और सकर्मक से प्रेरणार्थक क्रिया बनती अब उनके बनाने की रीति बताते हैं॥
२४३ अकर्मक को सकर्मक बनाने की साधारण रीति यह है कि धातु के अंत्य व्यंजन से आ मिला देते हैं और अकर्मक को प्रेरणार्थक रचने के लिये वा मिलाया जाता है। यथा अकर्मक । सकर्मक।
प्रेरणार्थ क । उड़ना उड़ाना
उड़वाना गिरना गिराना
गिरवाना चढ़ना चढ़ाना
चढ़वाना दबना दबाना
दबवाना बजना
बजवाना लगना
लगाना
बनाना
लगवाना
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२४४
प्राय: तीन अक्षर की सकमेक और प्रेरणार्थक क्रिया ऊपर की रीति के अनुसार बनाई जाती है परंतु सकर्मक के बनाने में दूसरा अक्षर हल हो जाता है अर्थात उसके स्वर का लोप होता है । जैसे
कर्मक
कर्म |
प्रेरणार्थक |
घूमना
जागना
जीतना
* चमकाना
पिघ्लाना
बिथ् राना
चमकना
पिघलना
बिथरना
भटकना
भट्काना
सरकना
सकाना
लटकना
लट्काना
२४५
यदि दो अक्षर का अकर्मक धातु हो और उनके बीच में दीर्घस्वर रहे तो उसे ह्रस्व करके आ और वा मिला देने से सकर्मक और प्रेरणार्थक क्रिया बनती है । जैसे
कर्म ।
सकर्मक
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चमकवाना
पिघलवाना
बिथरवाना
भटकबाना
सरकवाना
लटकवानां
घुमाना
जगाना
जिताना
डुबाना वा डबाना
भिगाना वा भिगोना
प्रेरणार्थक
घुमवाना
जगवाना
जितवाना
डुबवाना
भिगवाना
लिटवाना
डूबना
भीगना
लेटना
लिटाना
२४६
कई एक सकर्मक और कई एक अकर्मक धातु हैं जिनका स्वर ह्रस्व करके ला और लवा लगाने से द्विकर्मक और प्रेरणार्थक बन जाती हैं । यथा
कर्म |
पीना
देना
धोना
૦૧
द्विकर्मक |
पिलाना
दिलाना
धुलाना
*इन में हल का लक्षणं लिखा है परंतु लिखनेवाले की इच्छा है चाहे लिखे चाहे न लिखे
प्रेरणार्थक |
पिलवाना
दिलवाना
धुलवाना
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*राना
सीना सिलाना सिलवाना सीखना सिखाना
सिखवाना बैठना बिठाना
बिठवाना रुलाना
रुलवाना २४० कितने एक अकर्मक धातु के पहिले अक्षर के स्वर को दीर्घ कर देने से सकर्मक क्रिया हो जाती है परंतु प्रेरणार्थक के रचने में स्वर का विकार नहीं होता केवल वा के मिलाने से बन जाती है। जैसे अकर्मक । सकर्मक।
प्रेरणार्थक । कटना काटना
कटवाना खुलना खालना
खुलवाना गड़ना गाड़ना
गड़वाना पलना पालना
पलवाना मरना मारना
मरवाना लदना लादना
लदवाना २४८ कोई २ सकर्मक और प्रेरणार्थक क्रिया नियम विरुद्ध हैं। जैसे अकर्मक। सकर्मक ।
प्रेरणार्थक । छुटना छोड़ना
छुड़वाना ताडना फटना फाड़ना
फड़वाना फूटना फोड़ना
फुड़वाना बिकना
बिकवाना रहना रखना
· रखवाना २४६ आना जाना सकना होना आदि कितनी एक ऐसी अकर्मक क्रिया हैं जिन से सकर्मक और प्रेरणार्थक क्रिया नहीं बनती हैं।
* खाना और लेना इनके द्विकर्मक और प्रेरणार्थक क्रिया ऊपर की रीति के अनुसार बनती हैं परंतु उनके पहिले अक्षर का स्वर इ हो जाता हे जेसे खाना खिलाना लेना लिवाना ॥
टूटना
तुड़वाना
बेचना
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संयुक्त क्रिया के विषय में। २५० हिन्दी में अनेक क्रिया होती हैं जो और क्रियाओं से मिलके पाती हैं और नवीन अर्थ को उत्पन्न करती हैं ऐसी क्रियाओं को संयुक्त क्रिया कहते हैं। संयुक्त क्रिया में प्राय: दो भिन्न क्रिया होती हैं परंतु कहीं कहीं तीन २ आती हैं ।
२५१ चेत रखना चाहिये कि संयुक्त क्रिया के आदि की क्रिया मुख्य है उसी से संयुक्त क्रिया का अर्थ समझा जाता है और उसी के अनुसार संयुक्त क्रिया अकर्मक वा सकर्मक जानी जाती है ॥ __ २५२ संयुक्त क्रिया नाना प्रकार की हैं पर उनकी मुख्य क्रिया को मान करके उनके तीन भाग किये हैं। पहिला भाग वह है जिस में आदि की क्रिया धातु के रूप से आती है। दूसरा भाग वह है जिस में आदि की क्रिया सामान्यभत के रूप से रहती है। और तीसरा भाग वह है जिस में प्रादि की क्रिया अपने साधारण रूप से होती है ॥
२५३ पहिले उन्हें लिखते हैं जिन में मुख्य क्रिया धातु के रूप से पाती हे वे तीन प्रकार की हैं अर्थात अवधारणबोधक शक्तिबोधक और पूर्णताबोधक ।
२५४ १ अवधारणबोधक-आना उठना जाना डालना देना पड़ना बेठना रहना लेना ये सब और क्रियाओं के धातु से मिलके आती हैं। देना और लेना अपने २ धातु से भी मिलके आती हैं। जैसे देख-आना
गिर-पड़ना बोल-उठना
मार-बैठना खा -जाना
हो -रहना काट-डालना
पढ़-लेना रख -देना
दे - देना चल-देना
ले - लेना २५५ २ शक्तिबायक-सकना क्रिया परतंत्र कहाती है इस कारण कि वह अकेली नहीं पाली पर और क्रियाओं के धातु से मिलके शक्तिबाधक हो जाती है। जैसे
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________________
ON
बोल सकना
उठ सकना
दे सकना
-
२५६
३ पूर्णताबोधक – और क्रियाओं के धातु के साथ चुकना क्रिया के आने से पूर्णताबोधक संयुक्त क्रिया बनती है । जैसे
चल सकना
चढ़ सकना
लिख सकना
भाषाभास्वार
1
खा - चुकना
कह चुकना हो चुकना कर चुकना
मार चुकना
देख चुकना
२५७
जिन में मुख्य क्रिया सामान्यभूत काल के रूप से आती है वे दो प्रकार की हैं अर्थात नित्यतावेधक और इच्छाविधिक ॥
२५८
१ नित्यताबोधक – सामान्यभूत कालिक क्रिया के साथ लिङ्ग वचन और पुरुष के अनुसार करना क्रिया के आने से नित्यताबोधक क्रिया हो जाती है । जैसे
किया- करना
·
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कहा - करना आया- करना
दिया करना
देखा करना
* आया जाया करना
२५६
२ इच्छाबोधक • सामान्यभूत कालिक क्रिया से परे चाहना क्रिया के लगाने से व्यापार करने का कर्त्ता की इच्छा जानी जाती है । जैसे
बेला-चाहना
आया-चाहना
* जाया- चाहना
देखा-चाहना
२६०
इस प्रकार की संयुक्त क्रिया से कहीं २ ऐसा बोध भी है ता हे कि क्रिया का व्यापार होने पर है । जैसे वह गिरा चाहता है वह मरा चाहता है घड़ी जना चाहती है इत्यादि ॥
मारा-चाहना सीखा - चाहना
२६१
संयुक्त क्रिया जिन में आदि की क्रिया साधारण रूप से आती हे से दो प्रकार की हैं अर्थात आरम्भबोचक और अवकाशबोधक |
जाना की सामान्यभूत कालिक क्रिया का साधारण रूप गया होता है किन्तु संयुक्त क्रियाओं में गया नहीं परंतु जाया नित्य आता है |
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भाषाभास्कर
२६२ १ प्रारम्भबोधक - मुख्य क्रिया के साधारण रूप के अंत्य आ को आदेश कर लिङ्ग वचन और पुरुष के अनुसार लगना क्रिया के मिलाने से आरम्भबोधक क्रिया हो जाती है । जैसे
998
बेने लगना
सेने लगना
होने लगना
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आने -लगना
चलने लगना
देने - लगना
REB
२ अवकाशबोधक मुख्य क्रिया के साधारण रूप के अंत्य श्र को ए आदेश करके देना वा पाना क्रिया के लगाने से लिङ्ग वचन के अनुसार अवकाशबोधक क्रिया बनती है । जैसे जाने देना
और पुरुष
बोलने देना
सेाने देना
छठवां अध्याय ॥ कृदन्त के विषय में ।
ou
आने -पाना
उठने पाना
चलने- पाना
२६४
ध्यान करना-भय-खाना चुप रहना सुध लेना इत्यादि भिन्न क्रिया हैं। बोलना चालना देखना-भालना चलना-फिरना कूदना - फांदन समझना-बूझना इत्यादि एकार्थक ही दो क्रिया है
इति क्रिया प्रकरण ॥
२६५ क्रिया से परे जा ऐडे प्रत्यय होते हैं कि जिन से कर्तृत्व आदि समझे जाते हैं तो उन्हें कृत कहते हैं और कृत के आने से जो शब्द बनते हैं उन्हें कृदन्त अथवा क्रियावाचक संज्ञा कहते हैं इस कारण कि प्राय: क्रिया के सदृश अर्थ को प्रकाश करते हैं ॥
२६६ हिन्दी में पांच प्रकार की संज्ञा क्रिया से बनती हैं अर्थात कर्मवाचक कर्मवाचक करणवाचक भाववाचक और क्रियाद्योतक । उनके बनाने की रीति नीचे लिखते हैं ॥
१ कर्तृवाचक |
२६० कर्तृवाचक संज्ञा उसे कहते हैं जिस से कर्तापन का बोध होता है । उनके बनाने की रीति यह है कि क्रिया के साधारण रूप के अंत्य आ को ए आदेश करके उसके आगे हारा वा वाला लगा देते हैं । जैसे
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भाषाभास्कर
मारनेहारा वा मारनेवाला बोलनेहारा वा बोलने वाला इत्यादि ॥ फनी स्त्रीलिङ्ग हो तो हारा और वाला के अंत के आ को ई कर देते हैं। । जेसे मारनेहारी बोलनेवाली ॥ ____२६८ क्रिया के धातू से भी अक इया वा वेया प्रत्यय करने से कर्तवाचक संज्ञा हो जाती हैं। जैसे पालने से पालक पजने से पजक जड़ने से जड़िया लखने से लखिया जलने से जलवेया जीतने से जितवैया इत्यादि ॥ ।
२६६ यदि धातु का स्वर दीर्घ हो तो वैया प्रत्यय के लगाने पर उसे इस्व कर देते हैं। जैसे खाने से खवैया गाने से गवैया आदि जाना ।
२ कर्मवाचक । २०० कर्मवाचक संज्ञा उसे कहते हैं जिसके कहने से कर्मत्व समझा जाता है वह सकर्मक ही क्रिया से बनती है और उसके बनाने की यह रीति है कि सकर्मक क्रिया के साधारण रुप के चिन्ह ना को पुल्लिङ्ग में श्रा और स्त्रीलिङ्ग में ई आदेश कर देते हैं अथवा उस सूप के साथ हुआ लगा देते हैं। जैसे देखा देखी वा देखा हुआ देखी हुई किया की वा किया हुआ की हुई आदि ॥
३भाववाचक । २०१ कह आये हैं कि भाववाचक संज्ञा उसे कहते हैं जिस के कहने से पदार्थ का धर्म वा स्वभाव समझा जाय अथवा जिस से किसी व्यापार का बोध हो । व्यापार की भाववाचक संज्ञा कई प्रकार में बनाई जाती हैं। जैसे
२०२ १ बहुधा क्रिया के साधारण रूप के ना का लोप करके जो रह जाती है वही भाववाचक संज्ञा है । जैसे बोल दार पुकार समझ मान चाह लूट आदि ॥
२०३ २ कहीं कहीं साधारण रूप के ना को आव आदेश करने से भाववाचक संज्ञा है। जाती है। जैसे बिकाव मिलाव चढ़ाव आदि ॥ ____२४ ३ कहीं कहीं क्रिया के साधारण रूप के अंत्य आ का लोप करने से भाववाचक संज्ञा होती है । जेसे लेन देन खान पान आदि ॥ ___८०५ ४ कहीं २क्रिया के साधारण रूप के ना का लोप करके आई के लगाने से भाववाचक संज्ञा हे.ती है। जैसे बोआई सनाई ठगाई दिखार्द कृत्यादि ।
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भाषाभास्कर
२०६ कहीं कहीं क्रिया के साधारण रूप के ना का लोप करके वट • . या हट प्रत्यय करने से भाववाचक संज्ञा होती है। जैसे बनावट रंगाघट सिखावट चिल्लाहट झंझनाहट इत्यादि ॥
४ करणवाचक । २०० करणवाचक संज्ञा उसे कहते हैं जिसके कहने से ज्ञात होता हे कि किसके द्वारा कती व्यापार को सिद्ध करता है। उसके बनाने की यह रीति है कि क्रिया के साधारण रूप के अंत्य आ को ई आदेश कर देते हैं। जैसे ओढ़नी कतरनी कुरेलनी घोटनी ढंकनी खोदनी इत्यादि ।
२०८ कहीं कहीं क्रिया से धातु से आ लगा देते हैं । जैसे घेरा फेरा मला आदि। कोई कोई धातु हैं जिन से ना प्रत्यय करने से करण वाचक संज्ञा हो जाती है। जैसे बेलना इत्यादि ॥
५ क्रियाद्योतक । २०६ क्रियाद्योतक संज्ञा उसे कहते हैं जो संज्ञा का बिशेषण होके निरन्तर क्रिया को जनावे उसके बनाने की यह रीति है कि क्रिया के साधारण रूप के अंत्य ना को ता करने से क्रियाद्योतक संज्ञा हो जाती हे अथवा उसके आगे हुआ लगा देते हैं। जैसे देखता वा देखता हुआ बोलता वा बोलता हुआ मारता वा मारता हुआ इत्यादि ।
सातवां अध्याय
अथ कारक प्रकरण । २८० व्याकरण के उस भाग का कारक कहते हैं जिस में पदों की अवस्थाओं का वर्णन होता है ॥
प्रथम अर्थात का कारक । २८१ प्रातिपदिकार्थ अर्थात संज्ञा के अर्थ की उपस्थिति जहां नियम पूर्वक रहती है वहां प्रथम अर्थात का कारक होता है। जैसे बुद्धि देव ऊंचा नीचा आदि ॥
२८२ जहां पर लिङ्ग वा परिमाण अथवा संख्या का प्रकाश करना अपेक्षित रहता है वहां प्रथम कारक बोला जाता है। जैसे लड़का लड़की आध पाव घी आध सेर चीनी एक दो बहुत इत्यादि ।
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भाषार स्कर
२८३ क्रिया के व्यापार का करनेहारा जब प्रधान * अर्थात उक्त होता है तब प्रथम कारक रहता है। जैसे बालक खेलता है लड़कियां घोड़ती थी वृक्ष फलेगा इत्यादि ॥
२८४ क्रिया के व्यापार का फल जिस में रहता है वह जब उक्त हो जाता है तब उस में प्रथम कारक होता है। जैसे पोथी बनाई जाती हे वृत्तान्त लिखे जाते हैं ।
२८५ उद्देश्य विधेयभाव में अर्थात जब संज्ञा संज्ञा का बिशेषण हो जाती है विधेयवाचक संज्ञा का का कारक होता है। जैसे ज्ञान सब से उत्तम धन है सेना रुपा लोहा आदि धातु कहाते हैं उसका हृदय पत्थर हो गया है ॥
२८६ यदि एक ही कती की दो वा अधिक क्रिया हो तो कर्ता केवल प्रथम क्रिया के साथ उक्त होता है शेष क्रिया यों के साथ उसका अध्याहार किया जाता है। जैसा वह दिन दिन खाता पीता साता जागता है वे न बोते हैं न लवते हैं न खत्तों में बटोरते हैं ॥
द्वितीय अर्थात कर्म कारक । २८७ क्रिया के व्यापार का फल जिस में रहे और वह अनुक्त होवे तो उस में द्वितीय क रक हो जाता है। जैसे आम को खाता हे तारों को देखता है फलों को बटोरता है ॥
___ * ध्यान रखना चाहिये कि कत्ती दो प्रकार का है प्रधान और अप्रधान । प्रधान उस कती को कहते हैं जिसके लिङ्ग वचन और पुरुष के अनुसार क्रिया के लिङ्ग आदि होते हैं। जैसे गुरु चेलों को सिखाता है इस वाक्य में गुरु प्रधान कर्ता है इस कारण कि जो लिङ्ग आदि उस में हैं सा ही क्रिया में हैं । अप्रधान कती के साथ ने चिन्ह आता है और उसकी क्रिया के लिङ्ग और वचन कर्म के लिङ्ग और वचन के अनुसार होते हैं। जैसे पण्डित ने पोथी लिखी लड़के ने लड़को मारी उसने घोड़े भेजे । जब कर्म कारक अपने चिन्ह को के साथ आता है तब क्रिया सामान्य पुल्लिङ्ग अन्य पुरुष एक वचन में होती है कर्म पुल्लिङ्ग हो वा स्त्रीलिङ्ग हो । असे पण्डित ने पोथी को लिखा है लड़की ने रोटी को खाया है।
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३८८ अपादान आदि कारक की विवक्षा जब नहीं होती और कर्म नहीं रहता है तो वहां अपादान आदि कारकों के स्थान में मुख्य कर्म को छोड़कर द्वितीय कारक हो जाता है । जैसे आज मेरी गैया का कौन दुहेगा अर्थ यह है कि मेरी गेया से आज दूध को कौन दुहेगा ||
२८६ कर्म कारक का चिन्ह को बहुधा लोप होता है परंतु उसके लेप करने की कोई दृढ़ रीति नहीं है । कोई २ वैयाकरण समझते हैं कि उसका लाना और न लाना विवक्षा के आधीन है परंतु औरों की बुद्धि में सामान्य वर्णन वा बिशेष वर्णन मानकर उसका लोप करना वा उसे लाना चाहिये । जैसे वह तुलसीदास के रामायण को पढ़ता है यहां विशेष रामायण अर्थात तुलसीकृत रामायण की चर्चा है वाल्मीकी की नहीं ॥
२६० श्रप्राणीवाचक संज्ञा का कर्म कारक हो तो प्रायः चिन्ह रहित होगा। जैसे मैं चिट्ठी लिखता हूं तुम जाके काम करो वह फल तोड़ता है इत्यादि । व्यक्तिवाचक अधिकारवाचक और व्यापारकर्तृवाचक संज्ञा के कर्म में प्रायः के लगाना चाहिये। जैसे मोहनलाल को बुलाओ चौधरी को भेज देना वह अपने दास को मारता है इत्यादि ॥
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२६१ यदि एक ही वाक्य में कर्म कारक और सम्प्रदान कारक भी आवें तो उच्चारण की सुगमता के निमित्त प्राय: कर्म के चिन्ह का लेप होता है | जैसे दरिद्रों को दान दे। ॥
तृतीय अर्थात करण कारक |
२६२
जिसके द्वारा कती क्रिया को सिद्ध करता है उसे करण कहते हैं करण में तृतीय कारक होता है । जैसे लेखनी से लिखते हैं पव से चलते हैं छूरी से आम को काटते हैं खड्ग से शत्रुओं का मारते हैं ॥ २६३ हेतु द्वारा और कारण इनके योग में तृतीय कारक होता है । जेसे इस हेतु से मैं वहां नहीं गया आलस्य के हेतु से वह समय पर न पहुंचा वह अपनी अज्ञानता के कारण उसे समझ नहीं सकता कारण से उसका निवारण में नहीं कर सकता ज्ञान के द्वारा मोच होता मन्त्री के द्वारा राजा से भेंट हुई
इस
हे
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O
___२६४ विशेषता यह है कि जब हेत वा कारण के साथ योग होता हे तो कारक के चिन्ह का लोप वक्ता की इच्छा के आधीन रहता हे परंतु जब द्वारा शब्द का संयोग रहे तो अवश्य कारक के चिन्ह का लोप करना उचित हे॥ __२६५ लिया करने की रीति वा प्रकार के बताने में करण कारक आता है। जैसे उसने उन पर क्रोध से दुष्ट की वह सार शक्ति से यत्न करता है जो कुछ तुम करो सो अन्तःकरण से करो इस रीति इस प्रकार से । __२६६ मल्यवाचक संज्ञा में प्रायः करण कारक होता है। जैसे कल्याण कञ्चन से मोल नहीं सकते अनाज किस भाव से बेचते हैं दो सहन रुपैयों से हाधी माल लिया ॥
२६० जिस से कोई वस्तु अथवा व्यक्ति उत्पन्न होवे उसको करण कारक कहते हैं। जैसे कपास ऊन आदि से वस्त्र बनता है दूध से घी उत्पन्न होता है ज्ञान से सामर्थ्य प्राप्त होता है आप से आप कुछ नहीं हो सकता है ॥
२६८ किसी क्रिया का कती जब उक्त नहीं रहता तो उस कती में तृतीय कारक होता है। जैसे मुझ से तड़के नहीं उठा जाता । यदि क्रिया सकर्मक हो तो उसके कर्म में प्रथम कारक होगा। जेसे तुम से यह नहीं मारा जायगा । यदि क्रिया द्विकर्मक हेवे तो उसके मुख्य कर्म में प्र यम कारक होगा परंतु गौण कर्म जो सम्प्रदान कारक के रूप से आता हे उसे द्वितीय कारक होगा। जैसे मुझ से पैसे उसको नहीं दिये जाते । ___२६: इस कारक के चिन्ह का लेप अनेक स्थानों में होता है। जेसे न आंखों देखा न कानों सुना मेरे हाथ चिट्ठी भेजता है ।
चतुर्थ अर्थात सम्प्रदान कारक । ३०० जिसके लिये देते हैं उसे सम्प्रदान कहते हैं । सम्प्रदान में चतुर्थ कारक होता है। जैसे दरिद्रों को धन दे। हमके। पीने का जल दे। इत्यादि ॥
३०१ जिस लिये वा जिसके निमित्त कुछ किया जाता है उसके प्रकाश करने में सम्प्रदान कारक होता है। जैसे भोजन बनाने को
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भाषाभास्कर
(वा बनाने के लिये) बनिये से सीधा तालाते है हमसे मिलने को आते थे |
व स्नान को गये हैं वे
३०२ येोग्यता उपयुक्तता औचित्य आदि के बताने में यह कारक श्राता है | जैसे यह तुमको योग्य नहीं है यह तुमको उचित नहीं है लड़कों को, चाहिये कि माता पिता की आज्ञा को मानें ॥
३०३ कहीं २ आवश्यकता के प्रकाश करने में चतुर्थ कारक होता है । जैसे अब मुझको जाना है तुमको आना होगा उसको अब पाठ सीखना हे ॥ ३०४ नमस्कार स्वस्ति आदि शब्द के योग में चतुर्थ कारक होता है । जैसे राजा और प्रजा के लिये स्वस्ति हो आपको नमस्कार श्रीमच्चि दानन्दमूर्तये नमः । विशेष यह है कि प्रायः हिन्दी में भी नमः के साथ योग होने से संस्कृत का ही चतुर्थ्यन्त पद बोलते हैं। जैसे प्रायः पुस्तकों में श्रीपरमात्मने नमः इत्यादि लिखते हैं ॥
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पञ्चम अर्थात अपादान कारक ।
३०५ विभाग के स्थान का ज्ञान जिस से होता है उसे अपादान कहते हैं अपादान में पञ्चम कारक होता है । जैसे पर्वत से गिरा है घर से आया है नगर से गया है ॥
३०६ भिन्नता परिचय अपेक्षा अर्थ का बोध हो तो अपादान कारक हेगा। जैसे यह उस से जुदा है यह इस से भिन्न है जिसको वेदान्तियों के सब सिद्धान्तों से अच्छा परिचय होगा वह ऐसी में न पड़ेगा दयानन्द स्वामी से मेरा परिचय हुआ है बुद्धिमान शत्रु बुद्धिहीन मित्र से उत्तम है धन से विद्या श्रेष्ठ है ॥.
३०० परे रहित आदि शब्द के संयोग में पञ्चम कारक होता है । जैसे मेरे घर से परे वाटिका है नदी से परे को भर पर मेरा मित्र रहता है हमारे माता पिता अब चलने फिरने से यह मनुष्य विद्या से रहित है ॥
रहित हो गये हैं
निर्धारण अर्थ से अर्थात जब वस्तुओं के समूह में से एक
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३०८
वस्तु वा व्यक्ति का निश्चय किया जाता है तो और अपादान देनों की विभक्तियां आती हैं । जैसे पर्वतों में से हिम लय अच्छा है कत्रियों में से कालिदास अच्छा है ॥
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भाषाभास्कर
षष्ठ अर्थात सम्बन्ध कारक ।
____३०६ जिस कारक से स्वत्व स्वामित्व प्रकाशित होत है उरे सम्बन्ध कहते हैं । सम्बन्ध में छठा कारक होता है । जेसे साना की सेना पण्डित का पत्र लड़के के कपड़े इत्यादि ॥
३१० कार्य कारण में भी सम्बन्ध होता है। जैसे बाल की भीत सोने के कड़े चांदी की डिबिया मिट्टी का घड़ा पृथिवी का खण्ड । __ ३११ तुल्य समान सदृश आधीन आदि शब्द के योग में सम्बन्त कारक होता है । जैसे यह उसके तुल्य नहीं है पृथिवी गेंद के समान गोल है उसका मुंह चांद के सदृश है मैं आज्ञा के अनुसार सब कुछ करूंगा स्त्रियों को चाहिये कि अपने २ पति के आधीन रहें ॥
३१२ कर्तृकर्मभाव सेव्यसेवकभाव जन्यजनकभाव और अंगांगिभाव में सम्बन्ध कारक होता है। जैसे तुलसीदास का रामायण बिहारी को सतसई महाराजा की सेना रानी की बेटी सिर का बाल हाथ की उंगली इत्यादि ।
३१३ परिमाण मल्य काल वयस योग्यता शक्ति आदि के प्रकाश करने में सम्बन्ध कारक होता है। जैसे दो हाथ की लाठी बड़े पाट की नदी कोस भर की सड़क बारह एक बरस की लड़की यह तीस बरस की बात है यह कहने के योग्य नहीं है यह राज्य अब ठहरने का नहीं है ॥
३१४ समस्तता भेद समीपता आधीनता आदि के प्रकाश करने में । सम्बन्ध कारक होता है। जैसे खेत का खेत सब के सब आकाश और पृथिवी का भेद में उसके घर के समीप गया ॥ __३१५ केवल धातु वा भाववाचक के प्रयोग में सकर्मक क्रिया के फर्म को सम्बन्ध कारक हे ता है। जैसे रोटी का खाना गांव की लूट ॥
सप्तम अथोत अधिकरण कारक । ३१६ क्रिया का जे। आधार है उसे अधिकरण कहते हैं। अधिकरण में सप्तम कारक बोलते हैं। जैसे वह घर में है पेड़ पर पक्षी हे वह नदी तीर पे खड़ा है ।
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३१० प्राधार तीन प्रकार का हे ओपश्लेषिक वैपयिक और अभिव्यापक । औपश्लेषिक उस आधार को कहते हैं जिसके किसी अवर ब से संये ग हो । जैसे वह चटाई पर बैठता है वह बटनाही में रांधता है। वैषयिक उस आधार का नाम है जिस से विषय का बोध हो । जेसे मोक्ष में उसकी इच्छा लगी है अर्थात उसकी इच्छा का विषय मोक्ष है । और अभिव्यापक वह आधार है जिस में आधेय संपूर्ण रूप से व्याप्त हो । जैसे आत्मा सब में व्याप्त है बन से दर वा निकट * ॥
३१८ निर्धारण अर्थ में अधिकरण होता है। जहां अनेक के मध्य में एक का निश्चय होता है वहां निधारण जाना । जैसे पशुओं में हाथी बड़ा है पत्थरों में हीरा बहुमल्य है ॥ ___३१६ हेतु के प्रकाश करने में सनम और पञ्चम दोनों कारक होते है । जैसे ऐसा करो जिस में वह कार्य सिद्ध हो वा ऐसा कहा जिस से प्रयोजन सिद्ध हो ॥
आठवां अध्याय ॥
तद्धित प्रकरण । ३२० तद्धित उसे कहते हैं जिस से संज्ञा के अंत में प्रत्ययों के लगाने से अनेक शब्द बनते हैं । जो हिन्दी में व्यवहूत प्रत्यय हैं उन्हें नीचे लिखते हैं ।
३२१ तद्धित के प्रत्यय से अपत्यवाचक कर्तवाचक भाववाचक ऊनपाचक और गुणवाचक संज्ञा उत्पन्न होती हैं । जैसे
३२२ १ अपत्यवाचक संज्ञा नामवाचक से निकलती हैं । नामवाचका के पहिले स्वर को वृद्ध करने से अथवा ई प्रत्यय होने से जैसे शिव खे शेव विष्णु से वैष्णव गोतम से गौतम मनु से मानव वशिष्ठ से वा.शष्ठ महानन्द से महानन्दी रामानन्द से रामानन्दी हुआ है ॥ __३२३ २ कर्तवाचक संज्ञा उसे कहते हैं जिस से किसी क्रिया के ध्यापार का कती समझा जाय संज्ञा से हाग वाला और इया इन प्रत्ययों
* तत्वकौमुदी मू० ५६६ ।
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के लगाने से बनती है । जैसे चुरिहारा दूधवाला कृतिया मखनिय इत्यादि ॥
३२४ ३ भाववाचक संज्ञा और संज्ञा से इन प्रत्ययों के लगाने से बनती हैं जैसे आई ई त्व ता पन पा वट हट । उनके उदाहरण ये है चतुराई बोआई लड़काई लम्बाई मनुष्यत्व स्त्रीत्व उत्तमता मित्रता बालकपन बुढ़ापा बनावट कड़वाहट चिकनाहट इत्यादि ॥
३२५
४ जनत्राचक संज्ञा प्रायः आ कोई आदेश करने से हो जाती है । जैसे रस्सा रस्सी गोला गोली लड़का लड़की टेकड़ा टेकड़ी डाला डाली इत्यादि ॥
३२६ कहीं २ अक वा इया के लगाने से भी ऊनवाचक संज्ञा बनती है । जैसे मानव मानवक वृक्ष वृक्षक खाट खटिया डिब्बा डिबिया आम अंबिया इत्यादि ॥
३२०
५ गुणवाचक संज्ञा तद्धित की रीति से उत्पन्न होती है नीचे के प्रत्ययों के लगाने से । जैसे
आ–ठण्ढ ठगढ। प्यास प्यासा भूख भूखा मैल मेला इत्यादि ॥ इक—यह प्रत्यय प्रायः संस्कृत गुणवाचक संज्ञाओं का है । संज्ञा के पहिले अक्षर का स्वर वृद्धि से दीर्घ करके इक लगाते हैं जैसे प्रमाण से प्रामाणिक शरीर से शारीरिक संसार से सांसारिक स्वभाव से स्वाभाविक धर्म से धार्म्मिक हुआ है ॥
इत—आनन्द आनन्दित दुःख दुःखित क्रोध क्रोधित शेक शेकित ॥ इय वा इया - समुद्र समुद्रिय झांझझिया खटपट खटपटिया ॥ ई - ऊन ऊनी धन धनी धर्म धर्मी भार भारी बल बली ॥
ईला एला वा ऐला-सज सजीला रंग रंगीला घर घरेला बन बनेला ॥
लुलू वाल - दय। दयालु झगड़ा झगड़ालू कृपा कृपाल ॥
बन्त - कुल कुलवन्त बल बलवन्त दया दयावन्त ॥ वान–आशा आशावान क्षमा क्षमावान ज्ञान ज्ञानवान रूप रूपवान ॥
इति तद्धितप्रकरण ॥
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नवां अध्याय ॥
समास के बिषय में।
३२८ विभक्ति सहित शब्द पद कहाता है । यथा प्रत्येक पद में विभक्ति होती है। कभी दो तीन आदि पद अपनी २ विभक्ति त्याग करके मिल जाते हैं उनके मिलाने से एक शब्द बन जाता है जिस में विभक्ति का रुप नहीं परंतु उसका अर्थ रहता है। जैसे प्रेमसागर इस उदाहरण में दो शब्द हैं अर्थात प्रेम और सागर उनका परा रूप यह था कि प्रेम का सागर पर का के लाप करने से प्रेमसागर एक शब्द बन गया। इसी रीति से तीन आदि पद के योग को भी समास कहते हैं ॥
३२६ समास छः प्रकार के होते हैं अर्थात १ कर्मधारय २ तत्पुरुष ३ बहुब्रीहि ४ द्विगु ५ द्वन्द्व ६ अव्ययीभाव ॥
३३० १ कर्मधारय समास उसे कहते हैं जिस में बिशेषण का बिशेष्य के साथ सामानाधिकरण्य हो । जैसे परमात्मा महाराज सज्जन नीलकमल चन्द्रमख इत्यादि । ___३३१ २ तत्पुरुष समास वह है जिस में पूर्व पद कता छोड़ के दूसरे कारक की विभक्ति से युक्त हो और पर पद का अर्थ प्रधान होवे तत्पुरुष समास में प्रायः उत्तर पद प्रधान होता है इस कारण कि स्वतन्त्रता से उन्हीं का अन्वय क्रिया में होता है। जैसे प्रियवादी नरेश इन में वादी और ईश शब्द प्रधान हे पूर्व पद का अन्वय क्रिया में नहीं है । इसी रीति से हिमालय जन्मस्थान विद्याहीन बुद्धिरहित यज्ञस्तम्भ शरणागत ग्रामवास इत्यादि जाना ॥ ___३३२ ३ बहुब्रीहि समास उसे कहते हैं जिस में दो तीन आदि पद मिलके समस्त पद के अर्थबोध के साथ और किसी पद से सम्बन्ध रखे । जेसे नारायण चतुर्भुज । इन शब्दों का अर्थ हे जल स्थान और चार बांह परंतु इन से विष्णु ही का बोध होता है अर्थात जिसका जल स्थान है और चार बांह हे वह विष्णु समझा जाता है। बहुव्रीहि समास से जो पद सिद्ध होता है वह प्रायः बिशेषण हो जाता
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हे और बिशेष्य के लिङ्ग विभक्ति और वचन प्राप्त करता है । इसी रीति से दिगम्बर मृगलाचन पं.त.म्बर श्यामकर्ण दुराचार दीर्घबाहु इत्यादि जाना ॥ ___३३३ ४ द्विगु समास उसे कहते हैं जिस में पर्व पद संख्यावाचक हो उत्तर शब्द चाहे जेसा हो। यह समास बहुधा समाहार अर्थ में आता है । यथा चतुर्यग चतुर्वर्ण त्रिलोक त्रिभुवन पञ्चरत्न इत्य दि ॥
३३४ ५ द्वन्द्व समास उसे कहते हैं जहां जिन पदों से समास होता है उन सभी का अन्वय एक ही क्रिया में है।। जैसे हाथ पांव बांधे। इस उदाहरगा में हाथ और पांव दोनों का अन्वय बांधो क्रिया के साथ है। इसी रीति से पितामाता गुरुशिष्य रातदिन जाति कुटुम्ब अन्नजल लेनदेन इत्यादि जाना ॥ ___ ३३५ ६ अव्ययीभाव समास वह है जिस में अव्यय के साथ दूसरे शब्द का योग हो यह क्रियाविशेषण होता है। जैसे अतिकाल अनुरूप निर्भय यथाशक्ति प्रतिदिन इत्यादि ।
दसवां अध्य.य ।
अव्यय के विषय में। ३३६ कह चुके हैं कि अव्यय उसे कहते हैं जिस में लिङ्ग वचन वा कारक के कारण विकार नहीं होता अर्थात जिसका स्वरूप सदा एकसा रहता है। जैसे अब और वा भी फिर इत्यादि ॥
३३० अव्यय छः प्रकार के हैं १ क्रिय विशेषण २ सम्बन्धवाचक ३ उपसर्ग ४ योजक ५ विभाजक और ६ विस्मयादिबोधक ॥
१ क्रियाविशेषण । ३३८ क्रियाविशेषण उसे कहते हैं जिस से क्रिया का विशेष काल घा भाव वा राति आदि का बोध होता है वह चार प्रकार का है १ कालवाचक २ स्थानवाचक ३ भाववाचक ४ परिमाणवाचक । इन में से जा मुख्य और बोलचाल में बहुधा आते हैं उन्हें नीचे लिखते हैं।
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प्रब
तब
कब
जब
श्राज
कल
फिर
यहां
वहां
कहां
जहां
तहां
इधर
अकस्मात
अचानक
अर्थात
केवल
क्या
ज्यों
त्यां
झटपट
ठीक
तथापि
प्रति
अत्यन्त
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भाषाभास्कर
कालवाचक |
परसें
तरसें
नरसे
तड़के
सवेरे
प्रातः
सदा
स्थानवाचक ।
उधर
किधर
जिधर
तिधर
वार
पार
भाववाचक ।
निकट
निरन्तर
यद्यपि
यथार्थ
वृथा
यों
परस्पर
शीघ्र
सचमुच
तमेत
परिमाणवाचक |
कुछ बिरले
सर्वदा
निदान
वारंवार
तुरन्त
पश्चात
एकदा
सनातन
आसपास
सर्वच
निकट
समीप
नेरे
दूर
निरर्थक हां
foll
अवश्य
तो
भी
न
नहीं
ਸਰ
मानों
स्वयं
एकबेर
दोबेर
८०
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८८
अधिक अतिशय
कभी कभी
जहां जहां
भाषामा स्वर
३३३ कई एक क्रियाविशेषण के अंत में निश्चय बनाने के लिये ही वाहीं लाते हैं । जैसे अभी तभी कभी नभी यहीं वहीं । कई एक दे|हराकर बे|ले जाते हैं और बहुधा अनेक क्रियाविशेषण एक साथ आते हैं । जैसे
बेर बेर
कहीं कहीं
बहुत प्रायः
तनिक
इत्यादि
अब तक
कब तक
कभी नहीं
ऐसा वैसा
अब तब
ज्यों ज्यों अनिश्चय जनाने को दो समान अथवा असमान क्रियाविशेषण के मध्य में न लगा देते हैं । जैसे
३४०
कहीं न कहीं
जब न तब
३४१
कभी न कभी कितने एक क्रियाविशेषण हैं जो संज्ञा के तुल्य विभक्ति के साथ आते हैं। जैसे कि इन उदाहरणों में यहां की भूमि अच्छी है अब की बेर देख लूं मैं उधर से आता था यह आज का काम है कि कल का ॥
जहां कहीं
जब कभी कहीं नहीं और कहीं
त्यों त्यों
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३४२ गुणवाचक संज्ञा भी क्रियाविशेषण हो जाती हैं जैसे इसका धीरे धीरे सरकाओ पेड़ों को सीधे लगाते जाओ। वह अच्छा चलता है
वह सुन्दर सीती है ॥
G
३४३ बहुतेरे अव्यय शब्दों के साथ करके पूर्वक से आदि के लगाने से क्रिया विशेषण हो जाते हैं । जैसे इन वाक्यों में एक राजाने विनय पूर्वक फिर कहा आलस्य से काम करता है बा राजा बुद्ध से चलता है वह सुख से राज्य करता है ॥
२ सम्बन्धमूचकं ।
३४४
सम्बन्धसूचक अव्यय उन्हें कहते हैं जिस से बोध होता है कि संज्ञा में और वाक्य के दूसरे शब्दों में क्या सम्बन्ध है । वे दे। प्रकार के हैं पहिले वे जिनके पूर्व संज्ञा की विभक्ति नहीं आती। जैसे ग्रह
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भाष भास्कर
ऊपर
रित समेत उघा लो नत्यादि । दुसरे वे चिमके पूर्व संज्ञा के सम्बन्ध कारक की विभक्ति पाती है। जैसे आगे पस बाहिर
तुल्य पीके संग
बिषय बायां स.थ बदले दहिमा कीचे भीतर तले बीच ३४५ ऊपर के लिखे हुए शब्द सचमुच अधिकरणावाची संज्ञा हैं पर उनके अधिकरण चिन्ह के ले.प करने से वे अव्यय हो गये हैं। जैसे पागा शब्द अधिकरण की विभक्ति सहित तो आगे में हो गया फिर अधिकरण के चिन्ह में का ले.प किया तो हुआ अ.गे जेसा देवमन्दिर घर के भागे में है फिर अधिकरण के चिन्ह में का लोप करके तो रहा देव. मन्दिर घर के आगे है। ऐसे ही सर्वत्र जाने। ॥
३ उपसर्ग। ___३४६ नीचे के लिखे हुए अव्यय शब्द संस्कृत और हिन्दी में उपसर्ग कहते हैं। उपसर्ग संस्कृत में प्राय: क्रियावाचक शब्द के पर्व युक्त होके क्रिया के भिन्न २ अर्थ का प्रकाश करते हैं ॥ ___ ३४७ कहीं दो कहीं तीन और कहीं चार उपसर्ग भी एकत्र होते हैं। जैसे विहार व्यवहार सुव्यवहार समभिव्याहार अ.दि ॥ ___३४८ उपसर्ग द्योलक हैं वाचक नहीं अर्थात जिस क्रिया से युक्त होते हैं उसी के अर्थ का नाश करते हैं पर असंयुक्त होके निरर्थक रहते हैं। कहीं ऐसा होता है कि उपसर्ग के आने से पद का अर्थ बदल जाता है। जैसा दान आदान इत्यादि ।
४६ उपसर्ग के प्रधान अर्थ वा भाव जो संयोग में उत्पन्न होते हैं नीचे लिखते हैं ॥
प्र-अतिशय गति यश उत्पत्ति व्यवहार आदि का द्योतक है। जैसे प्रण म प्रस्थान प्रसिद्ध प्रभृति प्रयोग इत्यादि ।
परा-प्रत्यावृत्ति नाश अनादर आदि का द्योतक है। जेसे पात्रय पराभव परास्त इत्य दि ।
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भाषाभास्कर
अप-हीनता धेरूप्य भ्रश का द्योतक है । जेसे अपयश अपनाम अपवाद अपलक्षण अपशब्द इत्यादि । __ सम्-संयोग आभिमुख्य उत्तमता आदि का द्योतक है । जेसे सम्बन्ध संमुख सन्तुष्ट संस्कृत इत्यादि ॥ - अनु-सादृश्य पश्चात अनुक्रम आदि का द्योतक है। जेसे अनुरूप अनुगामी अनुमव अनुताप इत्यादि ॥ __ अव-अनादर दंश का द्योतक है। जैसे अवज्ञा अवगुण अवगीत : अवधारम इत्य दि ॥
निस-निषेध का द्योतक है। जेसे निराकार निर्दोष निर्जीव निर्भय निस्सन्देह इत्यादि ॥
दुस-कष्ट दुष्टता निन्द। आदि का द्योतक है। जैसे दुर्गम दस्त्यन दुर्जन दुर्दशा दुर्बुद्धि टुर्नाम इत्यादि ॥ _ वि-भिन्नता हीनता अस दृश्यता आदि का द्योतक है। जेसे वियोग विप विदेह विवर्ण विलक्षण इत्यादि ।
नि-निषेध अवरोध श्रादि का द्योतक है। जैसे निवारण निकृति.. निरोध इत्यादि ॥ ___ अधि-उपरिभाव प्रधानता स्वामित्व आदि का द्योतक है। जैसे अधिराज अधिकार अधिरथ इत्यादि ॥
अति-अतिशय उत्कर्ष आदि का द्योतक है। जैसे अतिकाल अतिभाव अतिगुप्त इत्यादि ॥
सु-उत्तमता श्रेष्ठता सुगमता आदि का द्योतक है। जेसे सुजाति सुपुत्र सुलभ इत्यादि ॥
कु-बुराई दुष्टता आदि का द्योतक हे। जेसे कुकर्म कुपुत्र कुजाति इत्यादि। उत्-उच्चता उत्कर्ष आदि का द्योतक है। जैसे उदय उदाहरण उत्पत्ति इत्यादि ॥ . अभि-प्रधानता समीपता भिन्नता इच्छा आदि कायोतक है । जैसे अभिजात अभिप्राय अभिमत अभिक्रम अभिगमन इत्यादि ॥ . - प्रति-प्रत्येकता सादृश्यता बिरोध श्रादि का द्योतक है। जैसे प्रतिदिन प्रतिशब्द प्रतिवादी इत्यादि ।
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भाषाभास्कर
. परि-सर्वतोभाव अतिशय त्याग आ.दे का द्योतक है । जेसे परिपूर्ण परिजन परिच्छेद परिहार इत्यादि । ___ उप-समीपत्ता निकृष्टता आदि का द्योतक है। जेसे उपवन उपयहा' उपपत्ति इत्यादि ॥
आ-सीमा यहण विरोध आदि का द्योतक है। जैसे आभोग आकार पादान आगमन आरोग्य इत्यादि ॥
अ-रहितता निषेध आदि का द्योतक है। जेसे अबल अक्षय अपवित्र । स्वरादि शब्द के आगे के आने से अन् हो जाता है । जेसे अनादि अनन्त अनुचित अनेक इत्यादि ॥ ___ सह वा स-संयोग सङ्गति आदे का द्योतक है। जेसे सहकर्मी सहगमन सहचर साकार सचेत इत्यादि ।
४ समुच्चयबोधक। ३५० जो शब्द दो पदों वा वाक्यों वा वाक्यें। के अंश के मध्य में आते हैं और प्रत्येक पद के भिन्न क्रिया सहित अन्बय का संयोग अथवा विभाग करते हैं उन्हें संयोजक और विभाजक अव्यय कहते हैं । जेसे संयोजक शब्द ।
विभाजक शब्द । ओ, यथा
वा और यदि एवं जो
क्या-क्या भी
परंतु
अथवा
पुनर
किन्तु
चाहे फिर
जो ___ ५ विस्मयादिबोधक शब्द । ३५१ विस्मयादिबोधक अव्यय उसे कहते हैं जिस से अन्तःकरण का भाव वा दशा प्रकाशित होती है वे नाना प्रकार के हैं। जैसे पीड़ा वा क्लेश बोधक यथा माह अह अहह आहा ओहो होहो हाय हाय वाह-वह बा चाहि च बापरे अहहह मेवार बप्पारे । आनन्द वा.
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भाषाभास्कर
आश्चर्यबोधक यथा वाह वाह धन्य धन्य जय जय । लज्जा वा निस। दर बोधक यथा छी छी धिक फिश दर इत्यादि जानो ॥
एग्यारहवां अध्याय ।
अथ वाक्यविन्यास । ३५२ वाक्यविन्यास व्याकरण के उस भाग को कहते हैं जिस में। शब्दों के द्वारा वाक्य बनाने की रीति बताई जाती है ॥ __ ३५३ पहिले की लिखी हुई रीतियों से जिन शब्दों को सिद्ध कर आये हैं उन्हें वाक्य में किस क्रम से रखना चाहिये इसका कोई नियम बतलाया नहीं गया इसलिये उसे अब लिखते हैं जिसे जानकर जहां जो पद रखने के योग्य है उसे वहां रखें ॥
३५४ पदों के उस समह को वाक्य कहते हैं जिसके अंत में क्रिया रहकर उसके अर्थ को पूर्ण करती है। वाक्य में प्रत्येक कारक न चाहिये परंतु की और क्रिया के बिना वाक्य नहीं बनता ॥ - ३५५ जिसके विषय में कुछ कहा जाता है उसे उद्देश्य कहते हैं और जो कहा जाता है वही विधेय कहाता है। जैसे घास उगती है घोड़ा दौड़ता है। __३५६ उद्देश्य और विधेय दोनों को विशेषण के द्वारा हम बढ़ा सकते हैं। जैसे हरी घास शीघ्र उगती है काला घोड़ा अच्छा दौड़ता है ।। ___३५० समझना चाहिये कि जब वाक्य में केवल कता और क्रिया दोही होते हैं तब कताउटेश्य और क्रिया विधेय रहती है। जैसे आंधी आती है यहां आंधी उद्देश्य है और आना क्रिया उसके ऊपर विधेय है ऐसे ही और भी जाना ॥ __ ३५८ यदि कती को कहकर उसका विशेषण क्रिया के पूर्व रहे तो फती को उद्देश्य करके उसके विशेषण सहित क्रिया को उस पर विधेय जानो। जेसे नगरों में कूए का पानी खारा होता है। इस वाक्य में कती जो पानी है उस पर उसको विशेषण खाग के साथ होना क्रिया विधेय है। ___३५६ यदि एक क्रिया के दो कती वा दो कर्म होवें और परस्पर एक दूसरे के विशेष्य विशेषण न हो सके तो पहिली संज्ञा को उद्देश्य और दूसरी संज्ञा सहित क्रिया को विधेय जाना । जेसे वह लड़का राजा हो गया यह मनुष्य पशु हे वह पुरुष स्त्री बन गया है ।
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भाषाभास्कर
पदयोजना का कम। ३६० साधारण रीति यह है कि वाक्य के आदि में कला और अंत में क्रिया और यदि और कारकों का प्रयोजन पड़े तो उन्हें कता और क्रिया के बीच में लिखा। जैसे स्त्री सूई से कपड़ा सोती है कपोत अपनी
चांच से दानों को बीन २ कर खाता है ॥ . ३६१ जो पद कती से सम्बन्ध रखते हैं उन्हें कता के निकट रखा
और क्रिया के साथ जिसका सम्बन्ध हो उसे क्रिया के संग लगाओ। जेसे मेरा घोड़ा देखने में अति सुन्दर है बुड्डा माली पेड़ों से प्रतिदिन फल तोडता है। __३६२ यदि वाक्य में कती और क्रिया को छोड़कर और भी संज्ञा वा विशेषण रहें और उनके साथ दूसरे शब्दों के लिखने की आवश्यकता पड़े तो जो पद जिस से सम्बन्ध रखता हो उसे उसके संग जोड़ दो। जेसे ग्रामीण मनुष्य नागौरी बेल के समान परिश्रमी होते हैं दरिद्र मनुष्य को कंकरेली धरती ही रेशमी बिछौना है। ___ ३६३ गुणवाचक शब्द प्रायः अपनी संज्ञा के पूर्व और क्रियाविशेषण क्रिय. के पूर्व आता है । जैसे बड़ी लकड़ी बहुत कम मिलती है मे.टी रस्सी बड़ा बोझ भली भांति सम्भालती है ॥ ____३६४ पूर्वकालिक क्रिया उस क्रिया के निकट रहती जिस से वाक्व समाप्त होता है। जैसे लड़का आंख मंदकर सोता है ब्राह्मण पलथी बांधकर रोटी खाता है॥ . ३६५ अवधारण विशेषता वा छंद की पूर्णता के लिये सब शब्द निन स्थान को छोड़ कर वाक्य के दूसरे २ स्थानों में आते हैं। जैसे
सिया सहित रघुपति पद देखी।
करि निज जन्म सुफल मुनि लेखी॥ ३६६ प्रश्नवाचक सर्वनाम को उसी स्थान पर रखना चाहिये जिसके बिषय में मुख्यता पूर्वक प्रश्न रहे और यदि वाक्य ही पूरा प्रश्न हो तो उसे पाक्य के आदि में लिखना चाहिये । जेसे क्या यह वही है जिसे तुमने देखा था यह कोन पुस्तक हे उसे किसे दोगे यह क्या करती हे इत्यादि ॥
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माषाभास्कर
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___३० जहां प्रश्नवाचक शब्द नहीं रहता उस वाक्य में बोलनेवाले की
ठा वा उसके उच्चारण के स्वरभेद से प्रश्न समझा जाता है। जैसे वह आया है मैं जाऊं घंटा बजा है मुझे डराते हो ऐं हाट बन्य हो गई। __३६८ सकर्मक धातु की भतकालिक क्रिया को छोड़कर शेष क्रिया के लिङ्ग और वचन कती के लिङ्ग और वचन के समान होते हैं। यह बात केवल कर्तप्रधान क्रिया की है। जैसे नदी बहती है लड़के खेलते हैं राजा दण्ड देगा।
३६६ यदि सकर्मक क्रिया हो और काल भूत हो तो पूर्वोक्त रीति . के अनुसार कती के आगे ने आवेगा और यदि कर्म का चिन्ह लग्न हो तो क्रिया के लिङ्ग वचन कर्म के अनुसार होंगे नहीं तो कती के लिड और वचन के अनुसार । जैसे लड़की ने घोड़े देखे लड़के ने पोथी पढी कुक्कटी ने अण्डे दिये बकरियों ने खेत चरा पिता ने पुत्र को पाया रानी ने सहेलियों को बुलाया इत्यादि ॥ ___ ३०० यदि एक ही क्रिया के अनेक कती रहें और वे लिङ्ग में समान न होवें तो क्रिया में बहुवचन होगा और लिङ्ग उसके अन्तिम कता के समान रहेगा । जैसे पृथ्वी चंद्रमा और सब यह सूर्य के आस पास घूमते हैं घोड़े बैल और बकरियां चरती हैं ॥ ___ ३०१ यदि अनेक लिङ्ग में असमान कती और क्रिया के मध्य में समुदायवाचक कोई पद आपड़े तो क्रिया पुल्लिङ्ग और बहुवचनान्त होगी। से नर नारी राजा रानी सब के सब बाहर निकले हैं ॥
३०२ जो वाक्य में कई एक संज्ञा रहें और उनके समच्चायक से एकवचन समझा जाय तो निया में एकवचन होगा। जेसे धन जन स्त्री और राज्य मेरा क्यों न गया चार मास और तीन बरस इसके करने में लगा है।
३०३ यदि वाक्य में एक क्रिया के अनेक कती रहें और उनके समुच्चायक से बहुवचन विवक्षित है।वे तो क्रिया में बहुवचन हेगा । जैसे हसके मोल लेने में मैंने चार रुपैये सात आने छ दाम दिये हैं।
३०४ आदर के लिये क्रिया में बहुवचन होता है चाहे आदरपूर्वक शब्द कता के साथ रहे चाहे न रहे । जैसे लाला जी आये हैं पण्डित जी गये हे तुम क्या कहते हो।
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महाभास्कर
३०५ जो उद्देश्य बहुत रहें और विधेय एक हो तो अप्तिम उद्देश्य का लिङ्ग होना और विधेय संज्ञा हो तो विधेय के अनुसार लिङ्ग वचन होगा । जेसे कश्मीर के लड़के लड़कियां सुन्दर होती हैं घास पेड़ बूडी लता बल्ली बनस्पति कहती हैं । __३०६ यदि एक ही क्रिया के अनेक का हो और उनके बीच में विभाजक शब्द रहे तो क्रिया एकवचनान्त होगी। जैसे मेरा घोड़ा वा खेत आज बेचा जायगा मुझे न भख न प्यास लगती है ॥ ___ ३०७ यदि एक क्रिया के उत्तश्च मध्यम और अन्यपुरुष का हों तो ब्रिया उत्तमपुरुष के अनुसार होगी। जैसे हम और तुम चलेंगे त और में पढ़ेगा वे और हम तुम सुनेंगे ॥ ___३०८ यदि किसी क्रिया के मध्यम और अन्यपुरुष कर्ता रहें तो क्रिया मध्यमपुरुष के अनुरोध से होगी। जेसे वह और तुम चलो वे और तुम पढ़ा ॥
विशेष्य और विशेषण का वर्णन । ____३६ वाक्य में जो प्रधान अर्थात मुख्य संज्ञा रहती है उसे विशेष्य कहते हैं और उसके गुण बतानेवाले शब्द के। विशेषण । जैसे यह यशस्वी पुरुष है। यहां पुरुष प्रधान अर्थात मुख्य संज्ञा है इसलिये उसे विशेष्य कहते हैं और उसके गुण का बतानेवाला यशस्वी शब्द अप्रधान अर्थात सामान्यवाचक है इसलिये उसको विशेषण कहते हैं। ऐसे ही सर्वच जाना ॥
३८० कहीं २ केवल विशेषण आजाता है। जैसे ज्ञानियों को ऐसा करना उचित नहीं है। यहां उसके विशेष्य मनुष्य शब्द का अध्याहार होता है ऐसे ही और भी जाना ॥
३८१ केवल आकारान्त गुणवाचक शब्दों में विशेषता होती है कि बधान कती के एकवचन को छोड़कर और शेष कारकों के एकवचन बहुवचन में आ को ए हो जाता है। जैसे ऊंचे पेड़ लम्बे मनुष्यों को सुन्दर स्त्री सुन्दर लड़का सुन्दर बन ॥
३८२ यदि आकारान्त गुणवाचक स्त्रीलिङ्ग शब्द का विशेषण होकर श्रावे तो सब कारकों में उसके आ को ई होती है। जेसे मोटी रस्सी मोटी रस्सियां मोटी रस्सी से मोटी रस्सियों से ॥
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भाषाभास्कर
३८३ जब गुणवाचक शब्द अपने विशेष्य के साथ आता है ना उस में न तो कारक न बहुवचन के चिन्ह रहते हें केवल विशेष्य के आगे आते हैं । जैसे मो.टयां रस्सियां मोटियों रस्सियों से ऐसा कहना अशुद्ध है। परंतु विशेष्य बोला न जाय और विशेषण ही दीख पड़े तो कारक के चिन्ह और आदेश भी बने रहते हैं । जेसे दीनों को मत सताओ भूखां को खिलाते हैं धनियों का आदर वहुत हे ता है निर्बलों की सहायता करो।
३८४ जब कर्म कारक का चिन्ह नहीं रहता ते। विशेषण कर्म के अनुसार होता है। जैसे मैंने लाठी सीधी की घोड़ी निका नके घर के साम्हने खड़ी करो । परंतु जब कर्म कारक का चिन्ह देख पड़ता है तब विशेषण कर्ता के अनुसार होता है। जैसे तुमने कांटों को क्या टेढा किया काठ के रङ्ग को और गहरा कर दे। ॥ ___३८५ यदि अकर्मक क्रिया के भिन्न २ लिङ्ग के अनेक कता हो जिनका विशेषण भी मिले तो उस में अंत्य का का लिङ्ग होगा । जैसे उस घर के पत्थर चना और ईट अच्छी हैं मेरा पिता माता और दोनों भाई जीते हैं सांवला लड़का और उसकी गोरी बहिनें होड़ती आती हैं। . ३८६ कर्तवाचक कर्मच चक और क्रियाद्योतक संज्ञा भी विशेषण
हे।के प्राप्ती हैं और उन में वही नियम होते हैं जो ऊपर लिख आये हैं। जैसे लिखनेवाले रामानन्द को बुलाओ गानेवाली लड़की के साथ मरा हुआ घोड़ा खेत में पड़ा है निकाला हुआ घोड़ा बाहर लाओ । हिलती हुई डाली से फल गिरता है । इस में हिलती हुई क्रियाद्योतक संज्ञा हैं और वह अपने विशेष डाली की क्रिया बताती है ऐसे ही सर्वत्र । ... ३८० संख्यावाचक शब्द भी संख्यापूर्वक प्रत्यय ा अथवा वां के आने से संज्ञा का विशेषण होता है। और जो नियम आकारान्त गुणवाचक के हे सो उस में भी लगते हैं। जैसे तीसरी लड़की चे.ये लड़के की पाथी सातवें मास का नवां दिन दसवी स्त्री से ॥ ___ ३८८ एक विशेष्य के अनेक प्रकारान्त विशेषण होते। सब में वही लिङ्ग वचन होग. जो संज्ञा का है । जेसे बड़ी लम्बी कड़ी बड़े उंचे पेड़ पर स्वप में बड़ी ऊंची डावनी मर्नि मेरे ममुख आई ।
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भाषाभास्कर
३८८ कह पाये है कि उस पद के समुदायक को वाक्य कहते हैं जिसके अंत में क्रिया रहकर उसके अर्थ को पूर्ण करती है। वह कर्तप्रधान और कर्मप्रधान के भेद से दो प्रकार का होता है ॥
१ कर्तप्रधान वाक्य । ___३६० कता अपने अपेक्षित कारक और क्रिया के साथ जब रहता हे तो वह वाक्य कहाता है। उस में जा और शब्दों की आवश्यकता हो तो ऐसे शब्द आवेंगे जिनका आपस में सम्बन्ध रहेगा । जैसे बढ़ई ने बड़ीसी नाव बनाई है लेखक ने सुन्दर लेखनी से मेरे लिये पोथी लिखी है इत्यादि ॥ __ ३६१ जे। ऐसे शब्द वाक्य में पड़ेंगे कि जिम्मका परस्पर कुछ सम्बन्ध न रहे तो उन मे कुछ अर्थ न निकलेगा इस कारण वह वाक्य अशुद्ध होगा।
२ कर्मप्रधान वाक्य । ३६२ जेसे कर्तप्रधान वाक्य में कला अवश्य रहता है वैसे ही कर्मप्रधान वाक्य में कर्म का रहना आवश्यक है क्योंकि यहां कर्म ही का के रूप से आया करता है। इस से यह रीत है कि पहिले कर्म और अंत में किया और अपेक्षित कारक और विशेषण सब बीच में अपने २ सम्बन्ध के अनुसार रहें । जेसे पर्वत में से सोना चांदी आदि निकाली जाती हैं बड़े विचार से यह सुन्दर अन्य भली भांति देखा गया ॥ __ ३६३ यह भी जानना चाहिये कि जैसे कर्तप्रधान क्रिया में कती प्रधान रहता है और कर्मप्रधान क्रिया में कर्म वैसे ही भावप्रथान क्रिया में भाव ही प्रधान हो जाता है।
३६४ जहां अकर्मक क्रिया का रूप कर्मप्रधान क्रिया के समान श्राता है और कर्ता भी करण कारक के चिन्ह से के साय मिले वहां भावप्रधान जाना। जेसे उस से बिना बोले कब रहा जायगा मुझ से रात को जागा नहीं जाता इत्यादि ॥ ___ ३६५ धातु के अर्थ को भाव कहते हैं वह एक हे और पुल्लिङ्ग भी
है इसलिये भावप्रधान क्रिया में भी एक ही वचन होता है और वह किया पुल्लिङ्ग रहती है।
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माषाभास्कर
।
- ३६ यद्यपि इस क्रिया का प्रयोग हिन्दी भाषा में बहुत नहीं पाता तथापि नहीं के साथ इसे बहुत बोलते हैं और इस से केवल भाव अर्थात व्यापार का बोध होला है ॥
३६० यद्यपि ऊपर के लिखे हुए नियमों के पढ़ने से कोई ऐसी विशेष बात नहीं बच रहती जिसके निमित्त कुछ लिखना पड़े तथापि वाक्यविन्यास में ये तीन बातें मुख्य हैं आकांक्षा योग्यता और आसत्ति जिनके बिन जाने वाक्य बनाने में कठिनता होती है । __३६८ १ एक पद की दूसरे पद के साथ अन्वय के लिये जे। चाह रहती है उसे आकांक्षा कहते हैं। जैसे गेया घोड़ा हाथी पुरुष यह वाक्य नहीं कहाता है क्योंकि आकांक्षा नहीं है परंतु चरती दौड़ता नहाता सीता इन क्रियाओं के लगाने से वाक्य बन जाता है इसलिये कि अन्वय के लिये इनकी चाह अपेक्षित है ॥
३६६ २ परस्पर अन्वित होने में अर्थ बोध के औचित्य को योग्यता कहते हैं। जैसे यदि कई कहे कि आग से सींचते हैं तो यह भी वाक्य न होगा क्योंकि सींचना क्रिया की योग्यता आग के साथ बाधित होती है। इस कारण जल से सींचता है यह वाक्य कहाता है ॥ - ४०० ३ पदों के सान्निध्य को प्रत्यासत्ति कहते हैं अर्थात जिस पद का अन्वय जिस शब्द के साथ अपेक्षित हो उनके बीच में बहुत से काल का व्यवधान न पड़ने पावे नहीं तो भार के बोले हुए कर्तपद के साथ सांझ के उच्चरित क्रिया पद का अन्वय हो जायगा । जैसे रामदास भार चार मार पीट लेन देन आग पानी घी चीनी इसको कहके सांझ को आओ हुआ पकड़ा होती है करते हैं ले जाओ ऐसा कहा यह वाक्य न कहावेगा।
॥ इति वाक्यविन्यास ॥
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भाषाभास्कर
बारहवां अध्याय ॥
अथ छन्दोनिरूपण ।
(१) छन्द का लक्षण यह है कि जिस में मात्रा वा वर्ण की गिनती रहती है और प्रायः उस में चार पाद होते हैं ॥
(२) वर्ण दो प्रकार के होते हैं अर्थात गुरु और लघु एक माधिक को लघु द्विमात्रिक को गुरु कहते हैं ॥
(३) अनुस्वार और विसर्ग करके युक्त जो लघु है उसको गुरु कहते हे और पद के अन्त में और संयोग के पूर्व में रहनेवाले को भी गुरु बोलते हैं और स्वरूप ठसका वक्र लिखा जाता है जैसा कि ऽ यह चिन्ह हे और लघु का स्वरूप एक सीधी पाई जैसे । यह है ॥
(४) वर्णवृत्तों में आठ गण होते हैं और प्रत्येक गमा तीन २ वर्षों का माना गया है १ मगण २ नगण ३ भगण ४ यगण ५ जगण ६ रगण ० सगण ८ तगण ॥
(५) तीन गुरु का मगण होता है और तीन लघु का नगण होता हे और आदिगुरु भगण और आदिलघु यगण मध्यगुरु जगण मध्यलघु रगण और अन्तगुरु सगण और अन्तलघु तगण कहाते हैं ॥ इन में मगण नगण भगण और यगण ये चारों छन्द के आदि में शुभ हैं और शेष चारों अशुभ । जैसे
मगण = sss] नगण = । । ।
.. ये च.रों शुभ है भगण = ।। यगण = । ।) जगण = । ।
रगया
= s।
ये चारों अशुभ है
सगया
तगण = ss
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१००
भागाभास्कर
() और माघ.कृत के पांच गण है .र्थ.त ट ठ ड ढ ण इन में - मात्रा का टगण और पांच मात्रा का ठगण और चार माचा का डगण . । चार तीम मात्रा का ढगण और दा माचा का णगण होता हे ॥ ___(6) और टगण के तेरह भेद हैं और ठ के आठ और ड के पांच घोर ढ के तीन और गण के दो भेद हैं ॥
जेसे छ माचा के टगण का उदाहरण । ___ इसकी यह रीति है कि गुरु हैतो ऊपर नीचे दोनों ओर अंक देता जाय और लघु के ऊपर ही लिखे जिसका क्रम यह है कि पहिले एक लिखे फिर दो फिर एक और दो को मिलाके तीन लिखे फिर दो और तीन मिला के पांच लिखे फिर तीन और पांच मिलाके पाठ लिखे फिर पांच और आठ मिलाके १३ लिखे इसी प्रकार पर्व पर्व का अंक जोड़ता ज.य अन्त में जो अंक पावें उतने ही जाने । जेसे १३८ १ २ ३ ५ ८ १३
555 । । ।।। । (८) प्रस्तार बनाने की यह रीति है कि प- २ ५ १३ हिले सब गुम् रखना फिर पहिले गुरु के ऽ ऽ ऽ नीचे लघु लिखना और आगे जैसा ऊपर । । ss हो वैसा ही लिखता जाय जो मात्रा बचे । ऽ । ऽ ठसे पीछे गुरु लिखकर लघु लिखे यदि ।। ।। एक ही मात्रा बचे तो लघु ही लिखे दो । । । बचे तो १ गुरु लिखे तीन बचे तो गुरु ऽ । ऽ। लिखके लघु लिखे चार बचे तो दो 55 ।।
गुरु लिखे पांच बचे दो गुरु लिखके लघु । । ।। लिखे इत्यादि । फिर उसके नीचे जा । 5 ।।। पहिला गुरु हो तो उसके नीचे लघु लिखे ।।।।।
प्रागे ऊपर के समान जो बचे सो पूर्वोक्त । ।।।।। रीति से लिखे इसी प्रकार जब तक सब लघु न हो जायं तब तक बराबर लिखता चला जावे। जेसे कि पृष्ठ की दहिनी ओर पर लिखा
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माषाभास्कर
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(e) छन्दों का मल यह है कि वर्णवृत्त में एक वर्ण से लेकर छब्बीस वर्ग लो के एक २ चरण होते हैं उनके प्रस्तार निकालने की यह रीति है कि एक चरण में जितने अक्षर हों उन्हें लिखकर उनके ऊपर क्रम से द्विगुणोत्तर अंक लिखता जाय फिर अन्तिम वर्ण के ऊपर जो संख्या आवे उसका दुगुणा प्रस्तार का प्रमाण बतावे । जेसे मध्या का प्रस्तार वा भेद जानना है तो sss ऐसा लिखकर द्विगुणोत्तर अंक दिया अन्त
" sss में ४ आया उसका दूना किया तो हुए ८ इसे ही मध्या का प्रस्तार जाना ॥ ___ नष्ट अर्थात प्रस्तार में चौथा भेद जानना हेवे
__ उसके निकालने की रीति । (१०) प्रत्येक वर्ण के प्रस्तार में प्रश्नकता के प्रत्येक प्रश्नविषयिक रूप जानने की यह रीति है कि जो प्रश्न का अंक सम हो मे पहिले लघु लिखे और जो विषम हो तो गुरु लिखे फिर उसका आधा करे विषम हो तो उस में जोड़ दे फिर आधा करे और सम हो तो याही अधा करे और आधा किये पर जब सम रहे तब लघु लिख दे और विषम रहे तो गुरु ऐसे ही बराबर आधा करता जाय और जब २ विषम आवे तब २ उस में एक जोड़ कर आधा किया करे और जब तक वर्ण संख्या परीन हो तब तक लिखा करे । जैसे किसी ने पूछा कि आठ वर्ण के प्रस्तार में ८६ वां सूप कैसा होता है तो ८६ सम है इसलिये पहिले १ लघु लिखा फिर आधा किया तो हुए ४३ से विषम है इस कारण १ गुरु लिखा और विषम है इस हेतु एक जोड़ दिया तो हुए ४४ आधा किया २२ हुए सो सम है इस से फिर एक लघु लिखा और आधा किया हुए ११ यह विषम है इस निमित्त एक गुरु लिखकर एक उस में जोड़ दिया तो हुए १२ आधा किया ६ हुए सो सम है इस हेतु एक लघु लिखा आधा किया ३ हुए सो विषम है इस से एक लखा और एक जोड़ दिया ४ हुए आधा किया २ रहे सम हे एक लघु लिख लिया आधा किया १ रहा सो विषम हे गुरु लिखा तो ऐसा रूप हुआ । ऽ।ऽ।ऽ।ऽ यदि प्रश्नकर्ता के उक्त अंक की पूर्णता न वे और अन्त में आकर एक ही रहजाय तो उस में एक जोड़दे और आधा करे फिर उस में १ जोड़ता जाय जब
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माषाभास्कर
प्रश्नकता के कहे हुए अंक तक पहुंचे तब बस करे । जेसे आठ वर्ण के प्रस्तार में तीसरा रूप कौन है तो ३ विषम हे इस से एक गुरु ले लिया एक और जोडा ४ हुए आधा किया २ हुए सो सम हे एक लघु लिखा आधा किया ९ रहा सो विषम एक गुरु लिखा और एक जोड़ दिया तो २ हुए आधा किया १ रहा विषम है एक गुरु लिखा एक जोड़ा २ हुए आधा किया १ रहा सो विषम है इस हेतु एक गुरु लिखा एक जोड़ा इसी प्रकार जब तक आठ वर्ण परे न हुए तब तक लिखते गये ते। ऐसा रूप हुआ। जैसे । 55ssss उद्दिष्ट अर्थात जब कोई रूप लिखकर पछे कि यह काथा
रूप है तो उसके बताने को रीत ॥ (११) जब कोई पूछे कि असुक रूप कोथा है तो उसके ऊपर द्विगुण अंक लिख दे और लघु के ऊपर के अंक में एक मिला दे फिर जितना हो उसे ही उसका रूप जाने । जैसे किसी ने पूछा कि १२ ४ ८ १६ ३२
२९ काथा रूप है तो लघु के ऊपर दो अंक है अर्थात ।। 55 २ और ८ इन का योग किया तो हुए १० इस में एक मिलाया तो हुए ११ इस से जाना कि छ वर्ण के प्रस्तार में यह ग्यारहवां रूप हुआ इसे क्रिया करके उद्दिष्ट की विधि से मिलाया चाहे तो ग्यारह विषम है इससे गुरु लिखकर उस में एक जोड़ दिया १२ हुए आधा किया ६ रहे तब लघु लिखा आधा किया तो ३ रहे विषम है गुरु लिखा १ मिलाया ४ हुए आधा किया २ रहे सम हे लघु लिखा फिर आधा किया १ रहा विषम हे गुरु लिखा एक जोड़ा २ हुए आधा किया सम हे लघु लिया इसी प्रकार छ वर्ण तक करते गये तो भी वही रूप निकला । जेसे ।
अब उन वृत्तों के प्रस्तार का नियम लिखा जाता
है जो मात्रा से बनते हैं ॥ (१२) प्रश्नकती जितनी मात्रा का प्रश्न करे उतनी मात्रा लिखले और उनके ऊपर पूर्व से युग्मांक लिखता जाय फिर चौथा रूप पूछा गया हो उस संख्या का अंत के अंक में घटा दे जो शेष रहे उस में यदि पर्व
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माषाभास्कर
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अंक घट सकता हो तो उसे घटा दे फिर उस अंक की अगली और पिछली कलाओं को मिलाकर नीचे गुरु लिख दे और फिर जब निश्शेष 'न हो और कुछ शेष बचता जाय तो ऐसे ही जा पूर्व का अंक हो और वह घट सके तो घटा दे और उसके आगे पीछे की कलाओं को मिला दे और उसके नीचे गुरु लिख दे इसी प्रकार जब तक निश्शेष न होय तब तक लिखता और ऐसा करता चला जाय तो अभीप्सित प्रस्तार निकल आवेगा। जैसे
१२३ ५ ८१३ यहां अन्तिम संख्या १३ हे इस में
घटाया तो बचे ५ में पूर्व का अंक ५ घटा दिया तो निश्शेष हो गया तो ऐसा रूप हुआ जैसे ।।। ऽ । यदि किसी ने छठा रूप पूछा तो अन्तिम संख्या १३ में गये छ रहे ० इस में पूर्व अंकों में ५ घट सकता है इस से उसे घटा दिया रहे २ इस में पूर्व अंक जो २ उसे घटाया तो
१२ ३५ ८१३ निश्शेष हो गया अब इसका रूप ऐसा हुआ । जेसे
" हुआ। जस ।। ।। ।
इसे इकठ्ठा कर लिया तो ऐसा । । हुआ ऐसे ही और भी जानो छ मात्रा के प्रस्तार के आठवें
रूप का यह चित्र है। और छठे रूप का चित्र यह है।
१२३ ५ ८ १३
रूप
| १ २ ३ ५
८ १३
१ २ ३ ५ ८१३ -
। ।
। मेल
फल
।।। । । । । फल
अब एक वर्ण से लेकर पचास वर्ण पर्यन्त जिनके एक चरण होते है उनके प्रस्तार के निकालने की रीति यह है।
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(१३)
लघु
जिस वृत्त में जितने वर्ण एक चरण में रहें उन्हें दूना करे और गुरु को पलट देवे अर्थात उत्तरोत्तर दो से गुणा कर अंकों को दुगुणा करता चला जाय इस रीति से जितनी मात्रा लघु होंगी उसकी आधी गुरु और गुरु की दुगुनी लघु मात्रा हे वेंगी ऐसे जितने जिसके प्रस्तार हैं वे सब प्रत्यक्ष हो जावेंगे । जैसा आगे के चक्र में लिखा है #
छन्द
३
४
५
६
०
C
ع
१०
૧૧
१९
१३
१४
१५
१६
१०
-
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माषाभास्कर
प्रस्तार
20
४
८.
१.६
३२
६४
심
१२८
छन्द
१६३८४
१६
२०
२५६
५१२
१०२४
२०४८
४०६६ ३२
२१
२२
२३
२४
२५
२६
२६
२८
२६
१३१००२
२६२१४४
३०
३१
८१६२ ३३
Immmm
३४
३२०६८ ३५
६५५३६ ३६
३८
प्रस्तार
५२४२८८
१०४०५०६
२०६०१५२
४१६४३०४
८३८८६०८
१६०००२१६
३३५५४४३२
६०१०८८६४
१३४२१००२८
२६८४३५४५६
५३६८००१२
१०९३०४१८२४
२१४०४८३६४८
४२६४६६०२६६
८५८६६३४५६२
१०१०६०६६१८४
३४३५६०३८३६८
६८०१६४०८०३६
१३०४३८६५३४६२
२०४८००६०६६४४
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भाषाभास्कर
१०
O
प्रस्तार छन्द
प्रस्तार ५४६०५५८१३.८८
३५१८४३०२०८८.३२ ४० १०६६५११६२८००६
००३६८०४४१७०६६४ २१६६०२३२५५५५२
१४०७३०४८८६५५३२८ ४३६८०४६५१११०४ ४८
२८१४०४६०६०१०६५६ ८७६६०६६०२२२०८
५६६४६६५३४२१३१२ १०५६२५८६०४४४१६ | ५० ५१२२८६६६०६८४-६२४
ऐसे ही और भी जाना ॥ अब उनके प्रस्तार के स्वरूप निकालने की रीति लिखते हैं ॥ (१३) जो जिसका रूप है उस में पहिले गुरु के स्थान में लघु लिखदे फिर ज्योंका त्यों बना रहनेदे इसी प्रकार जहां लों सब लघु न हो जाय तब तक लिखता चला जाय । जैसा आगे के चक्र में कुछ उदाहरण के लिये लिखा है ॥
छन्द | भेद उक्ता
वर्ण
अत्युक्ता
३
मध्या
८
। 55 २
।
।
४
।
5 । ६
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भाषाभास्कर
भेद
प्रतिष्ठा
و ک ک ک ک ? ک ک ک | 3 ک کاک 8 ک ک ا ا اک اک کی و کاک | و ک ااک
1
ع ا ک ک ک 90 | ک ک
| ۱۹۹ کاک
| ۹۶
|
|
43 || ک
ک 98 | کا ۱۹| اک
३२
सुप्रतिष्ठा
و ک ک ک ک ک و ک ک ک ک | 3 ک ک ک
ک لا ک ک ک || و ک ک ک ک وکی کاکی | و ک ک ا ک
ی کا | | ع کاک ک ک ۹۰ واک کی ا
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भाषाभास्कर
|
भेद
छन्द सुप्रतिष्ठा
ऽ । ऽ। ११ । । । १२ 55 ।। १३ । 5 ।। १४ 5।।। १५
55555 १० । 5 55। १८ SISSIPE ।। 5। २० ऽ ऽ।ऽ । २१ ।। । । २२
।। ।। ६ ।। । । २४ sss ।। २५ । 5 ।। २६ s। 5 ।। २० ।। 5 ।। २८ Ssi II DE
।।
।।
३१
ऐसे ही एक वर्ष से लेकर शहाड पर्व ललले पर लिख आये है। उन सब के रूप इसी प्रकार क्रिया के कारने त्बन हो जाते हैं । यहां विस्तार के भय से और व्याकरण के एन्ध में हो रही न बरस कूरू उन्हें छोड़ दिया है।
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Ro
मायामास्कर
अब वृत्तों में के भेद होते हैं उसके जानने की रीति ।
१ समवृत्त । (४) जिसके चारों चरण तुल्य होते हैं उसे समवृत्त कहते है।
२ अधंसमवृत्त । (1) निसके दो चरण सम हों और शेष दो पाद विषम रहें तो उसे अर्धसमवृत कहते हैं ॥
३ विषमवृत्त । (१६) विषमवृत का लक्षण यह है कि जिस वृत के चारों बाद आपस में तुल्य न होवे । आगे क्रम से इन सब के उदाहरण लिखते हैं ॥
१ ममवृत्त का उदाहरण । बाला वृष्ण मुकुन्द मुरारे त्रिभुवन विदित काम सब सारे । जरासंध कंसहि प्रभु माग त्रिभुवन विदित काम सब सारा।
२ अर्थसमवृत्त का उदाहरण । राम राम कहि राम कह वालि कीन्ह तन त्याग । सुमन माल जिमि कंठते गिरत न नान्यो नाग ।
३ विषमवृत्त का उदाहरण । राम राम भजु राम कंचन अस तनु धरि जगत । जप तप सम दम ब्रत्त नियम निकाम । करि करि हरि पद पद धार उतरि जवेरा हो ॥
कुछ वृत्त अब दृष्टान्त के निमित्त आगे लक्षण और उदाहरण के साथ लिखते हैं। विद्यार्थियों को उचित है कि इन्हें सीखें तो प्रायः छन्दों की रचना में नियमानुसार अशुद्धता न रहेगी और निपुणता प्राप्त होगा।
इस प्रकरण में इतनी ब.ते का जानना .त्यन्त आवश्यक है ॥ १ छन्दे लक्षाणु
४ उदृष्ट २ उदाहरण
म्लारनाम
[स्तार
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?
८
भाषाभास्कर
रामवृत्तलक्षण
समवृत्त का उदाहरण
अर्धसमवृत्तलक्षण
११
१२
१३
पह
विषमवृत्तलक्षण
विषमवृत्त का उदाहरण
गगणागणविचार
६.
१०
अर्धसमवृत्त का उदाहरण
ग्रन्थ के अनुसार
जो छन्द जितनी मात्रा का होता है और उस आदि अन्त वा मध्य में जितने गुरु वा लघु लिखने की विधि है उसी क्रम से अब हम पहिले कुछ मात्रावृत्त लिखते हैं ऊपर उनका लक्ष और नीचे उदाहरण मिलेगा ॥
पहिले बड़े बड़े छन्दों के। लिखते हैं फिर पीछे से छोटे छोटे भी लिखे जायेंगे ॥
३१ मात्रा का सवैया छन्द |
(2) ३१ मात्रा का सवैया छन्द होता है उस में आदि अन्त में गुरु लघु का नियम नहीं । जैसे
अरब खरब तो लाभ अधिक नहं तिि लये देवैया राजी ऐसेा राम नाम का से दा निसि दिन मोह वस दोर नकर
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बिन हर हासिल लाद पलान और हि दये न अपने । जान ! तोहि न भावत मूढ़ अजान ॥ करत सवैया जनम सिरान ।
सोलह मात्रा का छन्द |
(२) चतुष्पदाछन्द उसे कहते हैं जिस में १६ मात्रा हों और उसके
आदि अन्त में गुरु लघु का नियम नहीं ॥ उदाहरण ॥
चामवंत के बचन सुहाये तब लग परिखेहु तुम मे हि भाई
सुनि हनुमन्त हृदय प्रति भाये । सहि दुख कंद मूल फल खाई
अड़तालिस मात्रा का सेारठा छन्द |
(1) इसके पहले और तीसरे में ग्यारह और चौथे दूसरे में तेरह ॥
॥ उ० ॥ जैसे
मुक्तिजन्म महि जानि
ज्ञान खानि अघ हानिकर । जहं बस संभु भवानि से। कासी सेहय कस न ॥ दोहा कन्द उम्री पेठा के उलटने से दोहा बन जाता है ॥ १
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माषाभास्कर
चमी हलाहल मद भरे श्वेत श्याम रतनार । वियत मरत झुक झुक परत जेहि चितवत इक बार .
१४४ मात्रा का कुंडलिया छन्द ।। (७) इसी दोहे के चौथे चरण को पुनरुक्त करके शेष मात्रा बढ़ा देते हैं। उ० ।
टूटे नख रद केहरी वह वल गयो थकाय । आह जरा अब आइ के यह दुख दयो बढ़ाय । यह दुख दयो बढ़ाय चहं दिश जंबुक गाजें । शशक लोमरी आदि स्वतन्त्र करें सब राजै ॥ बरने दीनदयाल हरिन बिहरें सुख लूटे ।
पंगु भये मृगराज आज नख रद के टूटे ॥ अब माचा सम्बन्धी छोटे छोटे छन्द लिखे जाते हैं ॥
पांच मात्रा का छन्द । (२) आदि की एक मात्रा लघु हो और अन्त की दो मात्रा गुरु हों तो उसे ससि छन्द कहते हैं। उ० ॥ मही में । सही में । जसी से। ससी से।
प्रिया छन्द उसे कहते हैं जिसके आदि अन्त में गुरु और मध्य में लघु हो । उ० ॥ है खरो । पत्थरो। तो हिया। री प्रिया ।
तरनिजा छन्द । (६) जिस में आदि की तीन माग लघु और सब गुरु हो । ठ० उर धसा । पुरुष सो । वरनिना। तरनिजा ॥
पंचाल । (७) जिसके आदि में दो गुरु र अन्त में एक लघु हो । ७० नाचन्त । गावन्त । देताल । वेताल ॥
बीर छन्द (८) जिसके पाटि और अन्त की मात्रा ह्रस्व हो ओ मध्य की दीर्घ हों। ७० हरु पीर । अरु भीर । वरधोर । रघुबीर ॥
क मात्रा का छन्द । (e) विस में पब गुरु हैं। उ० । नब्बे रे । पंभपे । बेताली। देताली.
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भाषाभास्क
राम छन्द ।
(१०) जिसके आदि के दो ह्रस्व हों और अन्त के दे। गुरु हों । जग माहीं । सुख नाहीं । तति कामें । भनि रामै ॥ नगन्निका छन्द |
(११) जिस में एक गुरु और एक लघु हे|वे ॥ प्रसिद्ध हो। अघनिका । नगिद्ध हो । नगन्निका ॥
कला छन्द |
(१२) उसे कहते हैं जिसके अन्त में गुरु और मध्य में लघु होवे ॥ धीर । । अनु हो । नन्दलला । कामकला ॥
अब a वृत्त लिखे जाते हैं जिनकी गिनती वर्ण से होती है ॥
(4)
अब उन वर्णवृत्त का नाम कहते हैं जिन में चारों पाद तुल्य होते हैं ॥
(२)
एक गुरु का श्रीछन्द होता है || 30 || वागदेवी हैं ॥
(३)
दो गुरु का क.मा ॥ 30 ॥ रामाकृष्ण ॥
(8) एक गुरु और एक लघु का मही छन्द होता है ॥30॥ हरे हरे ॥
(५) दो लघु का मधु छन्द होता है || उ० ॥ हरि हरि ॥
(६) आदि गुरु और अन्त लघु का सार छन्द होता है ॥
영
ବ
रामकृष्ण ॥
एक मगण का तानी छन्द होता है ॥ उ० ॥ कन्हाई सेा भाई ॥ छन्द होता है ॥ उ० ॥ प्रेम सों पां गिरों ॥
छन्द होता है ॥ उ० ॥ छन्द होता है ॥ उ०
॥
एक तगण का पञ्चल छन्द होता है ॥ उ० ॥
(0)
(=)
एक रगण का मृगी (ह) एक यगण का शशी (१०) एक सगण का रमण ( ११ )
(१२) एक नगण का कमल छन्द होता है ॥ 30 ॥ कमल कुमुद ॥ (१३) एक मगण और एक गुरु का तीन छन्द होता है । जे गोविन्दा ने गोविन्दा ॥
ge
(१४) एक रगण और एक लघु का धारी छन्द होता है ॥ नन्दलाल कंसकाल ॥
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भवानी सुहानी ॥
विधु की रजनी ॥
या सर्व संसार ॥
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भाषाभस्कर
(१५) एक जगण और एक गुरु का नगानका छन्द होना है। 80 करो चितें न चंचले . (१६) एक नगण और एक गुरु का सती छन्द होता है। 30 छल तजे सख लहे॥ (१०) एक मगण और दो गुरु का सम्मोहा छन्द होता है। उ० श्रीराधा माधो अराधो साधो ॥ (१८) एक तगण और दो गुरु का हारित छन्द होता है।
गोरी भवानी ने ने मृडानी। (१६) एक भगण और दो गुरु का हंसी छन्द होता है । 30 मोहन माधो गाबहु साधो ॥ (२०) एक नगण और दो लघु का जमक छन्द होता है। ४० मरण जग धरण नग॥ (२१) दो मगण का शेषराज छन्द होता है । 60 गोविन्द। गोपाला केशीकंसा काला । (२२) दो सगण का डिल्ल छन्द होता है । ७० प्रभु सो कहिये दुख में हरिये ॥ (२३) दो जंगण का मातली छन्द होता है ॥
गुविन्द गोपाल कृपाल दयाल ॥ (९४) एक तगण और एक यगण का तनमध्या छन्द होता है। ठ० मा हिय कलेशा टारो करि वेशा ॥ (२५) एक नगण और एक यगण का शशिवदना छन्द होता है। । 30 हरि हरि केशो सुभग सुवेशो॥ *(२४) एक तगण और एक सगण का वसुमती छन्द होत है। , 30 गोपाल कहिये आनन्द लहिये । (२०) दो रगण का विमोहा छन्द होता है। ४० देवकीनन्दनं भक्त भी भंजनं । (२) एक रगण और एक यगण और एक गुरु का प्रमाणिका छन्द होता है। 8. राम राम गाईये .मलोक पाईये ।
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(A) एक नगण और एक जगगा का व.स छन्द होता है। 30 भजु मन गहन परम सुसाहन ॥ (३०) एक नगण और एक सगण और एक लघु का करहन छन्द
होता है ॥ ठ० हरि चरण सेऊ सुख परम लेऊ ॥ (३१) दा अगण और एक गुरु का शीर्षरूप छन्द होता है। उ० / जे कृष्ण गोपाला राधामाधे। श्री पाला ॥ (३२) एक मगण और एक सगण और एक गुरु का मदलेखा छन्द
होता है ॥ 30 गोविन्द कहि माधे। केशे जी हरि साधो ॥ (३३) दो नगण और एक गुरु का मधुमती छन्द होता है ॥ 30 मजु हरि चरना असरन सरना ॥ (३४) एक भगा और एक प्रगण और दो गुरु का विद्युन्माली
छन्द होता है ॥ 30 जे जे जे श्री राधा कृष्णा केशो कंसाराती विष्णा ॥ (३५) एक जगण और एक रगण और एक लघु का प्रमाणका
छन्द होता है ॥ उ० भजी भजे! गोपाल को कृपाल नन्दलाल को ॥ (३६) एक रगण और नगण और एक गुरु और लघु का मल्लिका __ छन्द होता है ॥ उ० राम कृष्णा राम कृष्णा वासुदेव विष्ण विष्णा . (३०) दो नगण और दे। गुरु का तुंगा छन्द होता है। 30 गगन जलद छाये मदन जग सुहाये ॥ (३८) एक नगण और सगण और एक लघु और एक गुरु का कमल __ छन्द होता हे॥ ७० हरि हरि कहो कहो सब सुख लहो लहो ॥ (३६) एक जगण और एक सगण और एक लघु और एक गुरु का
कुमारलसिता छन्द होता है ॥ ७० भने। जु सुखकन्द, को हरो जु दुखदन्द को. ..
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(४०) दो भगण और दो गुरु का चित्रयहा छन्ट होता है । 3. दीनदयाल जु देवा में न करी प्रभु सेव! || (४१) तीन रगण का महालक्ष्मी छन्द होता है ॥ 3. राधिका बल्लवं भजेई ले छिनी इन्द्र से पारले ॥ (४२) एक नगण और एक यगण और एक सगण का सारं गक छन्द
होता है। उ० हरि हरि केशो कहिये सब सुख साग लहिये । (४३) एक मगण और एक भगण और एक सग क प ईता छन्द
होता है ॥ उ० आये प्राली जलद समेो केकी कजे जिय भामे ॥ (४४) दो नगण और एक सगण का कमला छन्द हेता है ॥ उ० कमल सरस नयनी शशि मुखि पिक वानी ॥ (४५) एक नगण और एक सगण और एक यगगा का बिम्ब छन्द
होता है। ठ० तुलसि बन केलिकारी सकल जन चित्तहाग । (४६) एक सगण दो जगण का तोमर छन्द होता है । 30 नवनील नीरदश्याम शुकदेव शोभान नाम ॥ (४०) तीन मगण का रुपमाली छन्द होता है ॥ 3. अंगा वंगा कालिंगा काशी गंगा सिन्ध संगामा भासी । (४८) एक सगण और दो जगह और एक गुरु का संयुत छन्द होता है। ठ० हरि कृष्ण केशव वामना वसुदेव माधव पावना ॥ (४) एक भगण और एक मगण और सगण और गुरु का चंप
कमाला छन्द होता है ॥ 30 कंसनिकन्दा केशव कृष्णा वामन माथे। मोहन विष्णा । (५०) तीन भगण और एक गुरु का सारवती छन्द होता है। ठ० राम रमापति कृष्ण हरी दोनन के सुविपत्ति हरी ॥ (५५) एक तगण और एक यगण और एक भगण और एक गुरु का
सुखमा छन्द होता हे ।। . राधा रमना बाथा हरना साधे। शरनः माधो चाना।
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(१२) एक नगण और नगण और एक नगा और एक गुरु का
अमृतगति छन्द होता है ॥ ४० हरि हरि केशव कहिये सुरसरि तीर जाहिये ॥ (५३) एक रगण और एक नगण और एक भगण और दो गुरु का
सुपथ छन्द होता है॥ ठ. वासुदेव वसुदेव सहायी श्रीनिवाम हरि जय यदुरायी ॥ (५४) तीन भगण और दे लघु का नीलस्वप छन्द होता है । उ० गोबिद गोकुल गाय सहायो माधा मोहन श्री यदुरायी ॥ [५५) एक नगण और दो जगण और एक लघु और एक गुरु का
सुमुखी छन्द होता है । ७ हरि हरि केशव कृष्णा कहो निश दिन संगति साधु गहो । • (५६) तीन नगण और एक लघु और एक गुरु का दमनक छन्द
होता है ॥ 60 अमल कमल दल नयनं जलनिधि जलकृत शयनं ॥ (५०) एक रगण और एक जगण और एक रगण और एक लघु और ____ एक गुरु का श्योनिका छन्द होता है ।
उ० कृष्ण कृष्ण केशिकंस कन्दना देहु सुखम्व नन्दनन्दना । (५८) तीन मगण और दो गुरु का मालती छन्द होता है ॥ उ० रामा कृणा गायिये कन्ता केसी कहिये श्री अनन्ता ॥ (५६) दो तगण और एक जगण और दो गुरु का इन्द्रवज्रा छन्द ___ होता है । 3. गोविन्द गोपाल कृपाल कृष्णा माधो मुरारी ब्रजनाय विष्णा ॥ (६०) एक जगण और एक तगण और एक जगण और दो गुरु का
उपेन्द्रवज्रा छन्द होता है । १० गुपाल गोविन्द मुरारी माधो रामेश नार यगा साध साधा ॥ (६१) एक रगण और एक नगण और एक भगण और दो गुरु का ___ठपजाति छन्द होता है ॥ 3. राम राम रघुनन्दन देवा बीरभद्र मन मानह सेवा । (६२) चार यगण का भुजंगप्रयात छन्द होता हे ॥
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30 घरचन्दमा महाजाति राजे चढी चण्डिकासिंहसंग्राम गावे। (६३) चार सगण का तोटक छन्द होता हे ॥ ४० शिवशंकर शम् विशल धरं शिलिकंठ गिरीश फणीन्द्र करं । (६४) चार रगण का लक्ष्मीधर छन्द होता हे ॥ 60 श्रीधरे माधवे रामचंद्रं भजा द्रोह को मोह को क्रोध को
जतजो॥ (६५) सारंग छन्द उसे कहते हैं जिसमें चार भगण हो रहते है। 80 गोपाल गोविन्द श्रीकृष्ण कंसारी केशो कृप सिंधुमापाप महाही (६६) जिस में चार जगण रहते हैं उसे मौक्तिकदाम छन्द
कहते हैं॥ 50 गुपालगोविन्द हरे नदनन्दन दयाल कृपाल सदा सुखकन्दन। (६०) लेटक छन्द का लक्षण यह है जिस में चार भगण होवें ॥ उ० केशो कृष्ण कृपाल कर । मूरति मैन मुकुन्द मनोहर । (६८) तरलनयनी छन्द में चार नगण होते हैं । 30 कलुष हरन हरि अघ हर कमल नयन कर गिरिधर n. (६६) सुन्दरी उसे कहते हैं जिस में एक नगण दो भगण एक
रगण हो ॥ 80 मदन मोहन माधव कृष्ण ज गरुड़ वाहन वामन विष्णु ज . (७०) एक सगण एक जगण और दासगण का प्रमिताक्षरा छन्द होताहै। 30 वृजराज कृष्या कर पक्षधरं रघुनाथ रामपद देववरं ।
यद्यपि यहां सब वृत्त नहीं लिखे गये हैं तो भी इतने लिखे हैं कि प्रायः प्रयोजन न अड़ेगा और व्याकरण के ग्रन्थ में सब छन्दों का लिखना उचित भी नहीं है इस कारण साधारण से कुछ लिख कर बहुत से कोई दिये हे ॥ ___ गत अर्थात जिन में गग रहता है जैसे मरमागर के भजन गादि होते हैं उनकी रचना भी इसी प्रकार हुआ करती है ।
॥ इति छन्दोनिरूपण ॥
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श्रा
सूचीपत्र ॥
आना क्रय। २४६. अंगस्थवर्ण २१, ५१.
आप सर्वनाम १००-१०५. अकर्मक क्रिया १८६, १६०, ३८५. आपस में १०५. अकर्मक क्रिया के रूप २१६-२२४. | अ.रम्भबाधक क्रिया २६२. अक्षर १०, ११, १३.
आसत्ति ३६०, ४००. अधिकरण कारक ११४-०,३१६-३१६, आसन्नभूतकाल १६०, २०९.
३४५.
निश्चय वाचक सर्वनाम १५६,१६८. | इच्छाधक क्रिया २५६, २६०. अनुस्वार १५, १६.
इतना १८३. अन्यपुरुष १५५, १५६, १६०. अपत्यवाचक संज्ञा ३२२.
उच्चारण ३०-४६. अपादान कारक ११४-५,३०५-३०८. | उतना ५८३. अपूर्णभूतकाल १६७-५, २०७. उत्तमपुरुष १५५-१५० अभिव्य.पक आधार ३१०. उद्देश्य ३५५, ३५६,३०५. अल्पगण वर्ण २२, ५१.
उपसर्ग ३४६-३४६. अवकाशबोधक क्रिया. २६३. अवधारणबोधक क्रिया. २५४. जनवाचक संज्ञा ३२५. अव्यय ८६,३३६-३५१. अव्ययीभाव समास ३३५.
ऐसा १८३. थाकांक्षा ३६०,३६८.
ओ पाकारान्त क्रिया २१२, २१३.
पश्लेषिक आधार ३१०. चाकारान्त गुणवाचक १४६, १०, ३८१, ३८८.
करके ३४३. पादरसचक सर्वन म १००.
करण कारक १५४-३ चाधार ३१६, ३१०.
करगावाचक संज्ञा ०६६, ७, २१५
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सूचीपत्र ।
क
च
त
करना क्रिया २३६-२३८. | चाहना २५६,२६०. कती कारक ११४-१,२८१-२८६,३६२. कत्तेप्रधान क्रिया १६१,३५८३६०,३६१./ जातिवाचक संज्ञा १२. कत्तृवाचक संज्ञा २६०,६६,३२३,३८६.| जाना किया २३२,२३६,२४६२१ कर्म कारक ११४-२,२८०-२६१,३८४. जितना १८३. कर्मधारय समास ३३०.
जेसा १८३. कर्मप्रधान क्रिया १६१,२३२,३६२. जो सर्वनाम १०६,१८०. कर्मवाचक संज्ञा २६६,२००,३८६. कारक ११३,११४,२८०-३१६. तत्पुरुष समास ३३१. कारक की विभक्तियां ११५. तद्धत ३२०-३२०. कारण २९३,२६४.
तितना १८३.. कालबोधक अव्यय ३३८.
तेसा १८३. कितना १८३. कुछ शब्द १६६.
देखना क्रिया के रूप २२९-२३१. कृदन्त २६५-२०६.
देना क्रिया २३६,२२६ केसा १८३.
द्वन्द्व समास ३३४. कोई १६८, १६६.
द्वारा २६३,२६४. कोन १७६-१०८.
द्विगु समास ३३३. क्या १७०,१०८. क्रिया का साधारण रूप १८०. धातु १८६,१८८,२०१. क्रिया के विषय में ८५,१८५-२६४,३५४. क्रियार्थक संज्ञा १८०.
नित्यताबधिक क्रिया २५८. क्रियावाचक संज्ञा २६५.
निरनुन सक वर्ण २३. क्रियाविशेषण ३३८-३४३. निश्चयवाचक सर्वनास १५६-१६१. क्रियाद्योतक संज्ञा २६६,२०६३८६. ने ३६६.
ग
गुणवाचक ६४, १४०-१५२,३२०,३४२, | पद ३२८. २७६-३८६.
पद याजन का क्रम ३६०-३६०.
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सूचीपत्र ॥
मल क्रिया का १८८. में सर्वनाम १५५, १५६.
य
योग रूढ़ि संज्ञा ८०,०. योग्यता ३६, ३६६ योगिक संज्ञा ८६.
परिमाणवाचक शब्द १८३,३३८. परे ३००. पाना क्रिया के रूप २२५-२२८. बीना क्रिया २३६,२३६. पुरुषवाची सर्वनाम १५५-१५६. पर्णताबाधक क्रिया २५६. 'पर्णभूतकाल १६७-५,२१०. 'पर्वक ३४३. सर्वकालिक क्रिया २ ०,३६४. प्रकारवाचक शब्द १८३. प्रश्नवाचक सर्वनाम १०६-१०८ प्रेरणार्थक क्रिया २४२-२४६.
रकार वा रेफ ३१. रहना क्रिया के रूप रस-२५ रहित ३०७. रूढ़ि संज्ञा ८०, ८८. रेफ ३१.
ब
लिङ्ग के विषय में ६०-११०. लेना क्रिया २२६, २३६.
बहुवचन ३०३, ३०४. बहुब्रीहि समास ३३२.
भ भया क्रिया २४१. . भविष्यतकाल १६६, १६६. भाव १६३-१६५, २६३,३६५. भावप्रधान क्रिया ३६३-३६६. भाववाचक अव्यय ३३८. भाववाचक संज्ञा १०२, १०३. भूतकाल १६६, १६०. भाषा क्या है १.
वर्णबिचार ६. वर्तमानकाल १६६, १६८. वाक्य ३५४, ३६०, ४००. वाक्यविन्यास ३५१-४००. वाला प्रत्यय २६०, ३२३. विधिक्रिया २००, २०५. विधेय ३५५-३५६, ३७५. विभाजक शब्द ३५०. विशेषण ६४, १४७, ३३२, ३७६-३२ विशेष्य ३०६-३८६. विसर्ग १५, १६. विसर्ग संधि ०६-८१. | विस्मयादिबोधक शब्द ३५९
मध्यम पुरुष १५५, १५८. महाप्राण वर्ण २४, ५१. मात्रा १८, २०.
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________________ सूचोपत्र / वयिक प्राधार 310 | समानता सूचक सा 183. वेसा 183. समास 328-365. समुच्चायक अव्यय 350. व्यंजन 13-16,21-36. सम्प्रदान कारक 114-4,300-304.. व्यंजन के वर्ग 21. सम्वन्धकारक 114-6,306-315. व्यंजन संधि 66-05. सम्बन्धवाचक सर्वनाम 106-181. व्यक्तिवाचक संज्ञा 63. सम्बन्धमूचक अव्यय 344, 345. व्य करण का अर्थ 3. सम्बोधन कारक 114-8.. सर्वनाम संज्ञा 66, 153-184. शक्तबोधक क्रिया 255. साधारण रूप क्रिया का 180. शब्द के प्रकार 83. सानुना सक वर्ण 24, 25, 51. शब्दसाधन 7, 82. सामान्य भविष्यत काल 166, 202, 204. संख्या के विषय 111, 112. सामान्य भूतकाल 16, 201. संख्यावाचक विशेषण 151,33, 380. सामान्य वर्तमान काल 168, 2063 संज्ञा 84. सो 181. संज्ञा के प्रकार 85, 61. स्त्रीलिङ्ग प्रत्यय 105--110. संज्ञा के रूपकरण 118-146. स्थानवाचक अव्यय 338. दिग्ध भविष्यत का न 166. स्वर का अर्थ 12. संदिग्ध भतकान 160, 202-3,811. स्वर संधि 58-65. संदिग्ध वर्तमानकाल 168, 208. संधि 52-5. हलका अर्थ 14. संभाव्य भविष्ट तकाल 202. ह.रा प्रत्यय 260. संयुक 'क्रया 250-264. | हेतु 293,264,36. संयुक्त व्यंजन 20-36. हेतुहेतुमद्भत काल 167-6. सकना क्रिया 246, 255. होना क्रिया 205, 233, 246 पक क क्रिया 186, 368, 366. | होना क्रिया के रूप 216-220. देवगुप्तसूरी ज्ञानमंडार. पाली. (राजस्थान) Scanned by CamScanner