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भाषाभास्कर
१८६ क्रिया के मन को धातु कहते हैं और उसके अर्थ से व्यापार का बोध होता है ॥
१८७ चेत करना चाहिये कि जिस शब्द के अन्त में ना रहे और उसके अर्थ से कोई व्यापार समझा जाय तो वही क्रिया का साधारण रूप है जिसे क्रियार्थक संज्ञा भी कहते हैं। जैसे लिखना सीखना वालना इत्यादि ॥ ___ १८८ इस क्रियार्थक संज्ञा के ना का लोप करके जो रह जाय उसे ही क्रिया का मूल जाना क्योंकि वह सब क्रियाओं के सपों में सदा विद्यपान रहता है । जैसे खोलना यह एक क्रियार्थक संज्ञा है इसके ना का लाप किया तो रहा खाल इसे ही मल अर्थात धातु समझे। और ऐसे ही सर्वच ॥
१८६ क्रिया दो प्रकार की होती है एक सकर्मक दूसरी अकर्मक । सकर्मक क्रिया उसे कहते हैं जो कर्म के साथ रहती है अर्थात जिस क्रिया के व्यापार का फल कती में न पाया जाय जैसे पण्डित पोथी को पढ़ता है यहां पण्डित कता है क्योंकि पढ़ने की क्रिया पण्डित के प्राधीन है। यदि यहां पण्डित शब्द न बोला जायगा तो पढ़ने की क्रिया के साधन का बोध भी न हो सकेगा और पोथी इस हेतु से कर्म है कि इस क्रिया का जो पढ़ा जाना रूप फल है सो उसी पोथी में है तो यह क्रिया सकर्मक हुई ऐसे ही लिखना सुन्ना आदि और भी जाना । __१६० अकर्मक क्रिया उसे कहते हैं जिसके साथ कर्म नहीं रहता अर्थात उसका व्यापार और फल दोनों एकत्र होकर कता ही में मिलते हैं। जैसे पण्डित सोता है यहां पण्डित कती है और कर्म इस वाक्य में कोई नहीं पण्डित ही में व्यापार और फल दोनों हैं इस कारण यह क्रिया अकर्मक कहाती है ऐसे ही उठना बैठना आदि भी जाना ॥ ____ १६१ सकर्मक क्रिया के दो भेद हैं एक कर्तप्रधान और दूसरी कर्मप्रधान जिस क्रिया का लिङ्ग वचन कती के लिङ्ग वचन के अनुसार हो उसे कर्तृप्रधान और कर्म के लिङ्ग और वचन के समान जिस क्रिया का लिङ्ग वचन होवे उसे कर्मप्रधान क्रिया कहते हैं । यथा कर्तप्रधान।
__ कर्मप्रधान । स्त्री कपड़ा सीती है कपडा सीया जाता है
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