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भारतीय शिल्पसंहिता
॥ चंद्रावली
१९. पद्मा २०. पूर्णिमा (पूर्ण) (तूर्य) २१. सुमति २२. कामवती २३. रत्नावली
२४. करुणा २५. कलावती २६. कुंदन २७. मेनावली २८. अंजना २९. बनरेखा ३०. शृंखला ३१. शोभना ३२. झरना
: पूजा-पारती करती (पुजारिणी) : पिपीहरीनाद करती : फूल-हारवाली (मालिन)
,, माननी : माथा गूंथती, चोटी बांधती
, केश गुंफन-७, विधि चिता : तोता-मैनावाली
(दक्षिण प्रदेश में मूर्तियों के स्कंध
पर ऐसे पक्षी रहते है।) : पखाल-मंजीरा बजाती
देखो, मंजीरावादिनी : हाथ में कंकणवाली नर्तकी (सभी कंकण पहने होती हैं), सुंदरी : कबूतर को दाना चुनाती : पक्षीयुक्त (दक्षिण प्रदेश की मूर्ति) : बिंदिया (तिलक) लगाती : पत्रलेखन करती
, पत्रलेखा-चंद्रलेखा : छुरिका नृत्य करती
, रंभा : तीन पुत्रवाली
, पुत्रवल्लभा : पायल पहनती
,, हंसावली
अप्सराएं स्वर्ग में देवों का मनोरंजन करती है। उनकी अनुकृति देवालयों के शिल्पों में की जाती है। ये अप्सराएं देवांगना, देवकन्या, सुरसुंदरी, नृत्यांगना, अलशा आदि भिन्न-भिन्न नामों से पहचानी जाती है।
पश्चिम भारत के नागरादि शिल्प ग्रंथ 'क्षीरार्णव' और 'दीपार्णव' में उनके ३२ नाम और स्वरूप लक्षणों के साथ वर्णित है। जबकि दूसरे ग्रंथों में सिर्फ २४ ही शास्त्रीय नाम मिलते हैं। लेकिन नागरादि शिल्पग्रंथों में बहुत स्पष्टता से ३२ स्वरूप वर्णित हैं, इसलिए ऐसा मानने में कोई दिक्कत नहीं है कि २४ स्वरूप अपूर्ण ही है। हस्तलेखों की अशुद्धि के कारण ऐसा होना संभव है।
पूर्व भारत में कलिंग उड़ीसा के शिल्पों में तो देवांगनाओं की संख्या केवल १६ ही दी गयी है।
द्रविड शिल्पग्रंथों के स्वरूपों के बारे में कोई वर्णन नहीं मिलता। जो द्रविड शिल्पग्रंथ मिले हैं, उनमें कई देवांगनाओं के स्वरूपों का उल्लेख नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि द्रविड शिल्पग्रंथ पूर्ण नहीं मिलते, या वहां देवांगनाओं की प्राधान्य नहीं था।
दक्षिण कर्णाटक, मैसूर राज्य के बेलुर और सोमनाथपुरम् के हयशाल शिल्प मंदिरों में देवांगनाओं की बहुत सुंदर मूर्तियां दिखाई देती है। इसलिये दक्षिणापथ के शिल्पग्रंथ द्रविड से भिन्न शैली के हैं, ऐसा उनकी कृति पर से लगता है। उनके यम-नियमों के ग्रंथ भी होने चाहिए। वे अब तक देखने में नहीं आये, पर उनका शिल्प अदभुत है।
पूर्व भारत के कलिंग, उड़ीसा, भुवनेश्वर, कोणार्क और जगन्नाथ पुरी के मंदिर भव्य है। उनकी कलाकृतियां भी सुंदर है। उनमें देवांगनाओं के स्वरूप बहुत मिलते हैं।
मध्यप्रदेश के शिल्पस्थानों में खजुराहों के समूह-मंदिर हैं। उनमें भी देवांगनाओं के स्वरूप शिल्पित किये गये हैं।
उत्तर भारत में ऐसे कई अलभ्य शिल्प-स्थापत्यों में सुंदर देव-स्वरूप पाये जाते हैं। उन मंदिरों की रचना नागरादि शिल्पों से मिलती है। फिर भी कई विषयों में वे उनसे भिन्न है। ऐसे सुंदर प्रासादों के शिल्पग्रंथ अब भी प्राप्त नहीं हुए हैं। विधर्मियों के विनाशक उपद्रवों से ऐसा अमूल्य साहित्य लुप्त हो गया है।
पूर्व भारत के कलिंग, उड़ीसा में शिल्प के ग्रंथ प्राप्त हुए हैं। कई प्राकृत भाषा में प्रकाशित हुए हैं। नौवीं शताब्दी का ग्रंथ-'शिल्प प्रकाश-संस्कृत में है। उसका संशोधन करके अंग्रेजी अनुवाद श्रीमती एलिस बोनर ने प्रकाशित किया है। उसमें देवांगना-अलस्या के १६ स्वरूपों का स्पष्ट वर्णन मिलता है।
कलिंग, उड़ीसा आदि के शिल्पों में देवांगनाओं को अलस्या या देवकन्या कहते हैं । वे स्वरूप भुवनेश्वर, कोणार्क, पुरी के मंदिरों और उन प्रदेशों के प्रासादों में दिखाई देते हैं। "शिल्प-प्रकाश के प्रथम अध्याय में श्लोक २९७ से ४०० तक उनके नाम वर्णित है।
उडिया शिल्प में भुवनेश्वर, पुरी या कोणार्क में देवांगना-अप्सरा के स्वरूप कम है मगर है। द्रविड प्रदेश में तो बिलकुल नहीं है, ऐसा कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। सद्भाग्य से दक्षिणापथ के दक्षिण कर्णाटक प्रदेश के हयसाल मंदिरों में अप्सराएँ हैं, इतना ही नहीं बल्कि ये देव या देवांगना स्वरूप गुजरात-राजस्थान के देवस्वरूपों से भी अधिक सुंदर है; लेकिन वे स्थूलकाय हैं और वे बेल-पत्तों से आवृत्त होते हैं।
मध्य प्रदेश-खजुराहो के समूह-मंदिरों में भी देवांगनाओं के सुंदर शिल्प देखने को मिलते हैं। उत्तर भारत में ऐसे सुंदर देवस्वरूप हैं, लेकिन विर्मियों के उपद्रवों के कारण प्रासादों के वे सब शिल्पग्रंथ नष्ट हो गये हैं।
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