Book Title: Bharatiya Shilpsamhita
Author(s): Prabhashankar Oghadbhai Sompura
Publisher: Somaiya Publications

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Page 207
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अङ्ग : त्रयोविंशतिम् जैन प्रकरण भारतवर्ष के धार्मिक प्रवाहों में सनातन वैदिक, जैन और बौद्ध इन तीन संप्रदायों का प्रवाह कम-ज्यादा मात्रा में बहता ही रहा है। इन तीनों संप्रदायों में कई तत्त्व समान होने से उनकी कई विशेषतायें मिल-जुल गई हैं। बौद्ध संप्रदाय में जिसे निर्वाण कहा गया है, उसीको वैदिक संप्रदाय मोक्ष कहते हैं । प्रात्ममुक्ति को जैन संप्रदाय में मोक्ष या कैवल्यपद कहते हैं। जैनों में मोक्ष का परम साधन कर्मक्षय कहा है। धर्म के नियम और सिद्धांतों का ज्ञान-सम्यक ज्ञान-उच्च ज्ञान प्राप्त करके उसे व्यवहार में लाने को सम्यक-चरित्र कहते हैं। इस महामार्ग में अनुभवसिद्ध-ज्ञान प्राप्त करनेवाले २४ तीर्थकर हुए हैं। उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष द्वारा 'जिनपद' प्राप्त किया हैं। जो तीर्थंकर धर्म का पालन करके दूसरों को प्रात्म-दर्शन का मार्ग दिखाये, उसे तीर्थकर के नाम से संबोधित किया जाता है। वे सत्य, प्रकाश, और पुनर्गति दे कर जगत का कल्याण करते हैं । जैन धर्म में चौबीस जिन हुए। वैदिक धर्म में वैसे चौबीस अवतार हुए, ' उसी तरह बुद्ध भी चौबीस हुए। जैनों के प्रथम तीर्थकर आदिनाथ ऋषभदेव हुए। अंतिम महावीर स्वामी हुए। २३ वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ और अंतिम महावीर स्वामी का समय क्रम पुरातत्त्वविदों ने पांच से सात हजार वर्ष का माना है। बाकी के तीर्थकरों का जैन ग्रंथ और पुराण के कथनानुसार हजारों वर्ष का समयक्रम माना गया है। जैनों में ईसापूर्व चौथे-पाँचवे शतक में ही मूर्तिपूजा प्रचलित थी। उस समय भारत में जैन धर्म का बहुत ही प्राबल्य था। जैनों के बहुत से मंदिर और मूर्तियाँ उस समय बनी थीं। • जैन तीर्थंकर वीतराग कहलाते हैं । इसलिये उनकी मूर्तियां ध्यानस्थ रूप में नग्न शरीर से पद्मासन में बैठी होती हैं। छाती मुद्रायुक्त, वक्ष प्रदेश-छाती में श्रीवत्स होता है। माथे पर बालों का गुच्छ होता है। श्वेतांबर प्रतिमा को कच्छ होते हैं। ___ • दूसरे प्रकार की मूर्ति तप का भाव व्यक्त करती हुई कायोत्सर्ग-मूर्ति है। 'बृहद् संहिता' में कहा है कि पैर की गांठों तक पहुंचे हुए हाथ छाती में श्रीवत्स का चिह्न, तरुण, सुंदर, प्रशान्त महंत देव की मूर्ति सौम्य, शांत, ध्यानस्थ मुद्रा की बनानी चाहिए। जैनों के दो संप्रदाय हैं। दिगंबर और श्वेतांबर। दिगंबर संप्रदाय का प्रचार उस समय भारत में बहुत था । श्वेतांबर संप्रदाय का प्राबल्य भी कई प्रदेशों में था। इन दोनों संप्रदायों में तीर्थकर की मूर्ति प्रासनस्थ और उर्ध्वस्थ एक सी ही रहती है। दिगंबर संप्रदाय में मूर्ति नग्न होती है । श्वेतांबर संप्रदाय में वस्त्र होते हैं। उसमें गुह्यभाग नहीं दिखाया जाता जबकि दिगंबर की बैठी हुई मूर्ति की पैर को ललाट-कपाल, नासिका, हड्डी, गला, हृदय, नाभि, गुह्य, दो कर, गोठण, मुख्य तीन भाग १३, ३, १०, १४, ४, ४, ८५६ कुल जिन आसनस्थ बैठी प्रतिमा का विभाग यक्ष। बैठी प्रतिमा के कुल ५६ भाग होते हैं। खड़ी कायोत्सर्ग प्रतिमा के १०८ भाग होते हैं। उसे नव ताल की प्रतिमा कहते हैं । मुख, गला, हृदय, नाभि, गुह्य उरु, साथल, जानु, गोठण, अधापज, पाद। भाग १३, ३, १०, १४, १२, २४, ४, २४,४-१०८ कुल भाग जिन उर्वारथ खडी प्रतिमा की १०८ भाग। जिन प्रतिमा का बैठा हुआ स्वरूप सभी तीर्थंकरों की मूर्तिों में एक सा होता है। लेकिन उसकी बैठक पर किये हए लक्षणों से लांच्छन (प्रतीक) जाना जाता है कि वह कौन से तीर्थंकर की मूर्ति है। For Private And Personal Use Only

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