Book Title: Bharatiya Shilpsamhita
Author(s): Prabhashankar Oghadbhai Sompura
Publisher: Somaiya Publications

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Page 205
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १७० www.kobatirth.org विश्वकर्मा - चार मानसपुत्र Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२) महा विश्वकर्मा : ईश्वर जैसी कीर्तिवाले इन्होंने ही ब्रह्मांड का सर्जन किया। ब्रह्मा जैसा ही वर्ण है। पूर्व के मुख को विश्व भिरुति कहते हैं, दक्षिण के मुख को विश्ववि, पश्चिम के मुख को विश्वस्रष्टा और उत्तर के मुख को विश्वस्थ कहते हैं । विश्वकर्मा के ये चार मुख भिन्न-भिन्न स्वरूप के प्रतीक हैं। जैसे पूर्वमुख विश्वकर्मा, दक्षिणमुख मय, पश्चिममुख मनु, श्रौर उत्तरमुख त्वष्टा है । विश्वकर्मा के पुत्र को स्थपति कहते हैं । मय के पुत्र को सूत्रग्राही, त्वष्टा ऋषिपुत्र को वर्धकी और मनु के पुत्र को तक्षक कहा है। इस तरह चारों दिशा के चार मुख के नाम और उनके पुत्र शास्त्रों में वर्णित किये गये हैं । विश्वकर्मा के दस भुजा का स्वरूप कहा है। अलग-अलग व्यवसायी अपने-अपने श्रौजारों के आयुध बताते हैं । भारतीय शिल्पसंहिता अन्य मूर्तियां १. ऋषिमूर्ति माथे पर जटा, दाढ़ीवाले, शांत और ध्यान में बैठे हुए ऋषिमुनि के दो हाथ होते हैं। उनमें कमंडल और माला होती है। : २. बुद्धमूर्ति ये पद्मासन में बैठे हुए होते हैं। हाथ और पैर में कमल की रेखा अंकित होती है। प्रसन्न मुखाकृति होती है। यह बुद्ध का आदि स्वरूप है । बुद्ध संप्रदाय में बाद में उनकी प्रतिमाओं के लक्षण, नाम, अवतार आदि भिन्न-भिन्न स्वरूप में वर्णित किये गये । यहाँ बुद्ध प्रतिमावराह संहिता के अनुसार जगत के साक्षात पिता के रूप में मानी जाती है। For Private And Personal Use Only ३. जिन प्रतिमा: पैरों की गाँठ तक की लंबी भुजावाली, श्रीवत्स विहृत से शोभित, शांत प्रकृति की यह प्रतिमा सदा तरुण अवस्था में यौवनपूर्ण होती है। जैन तीर्थंकर की इस खडी कायोत्सर्ग प्रतिमा का स्वरूप बड़ा प्रभावशाली लगता है । चौबीस तीर्थंकरों की आसनस्थ - पद्मासन में बैठी हुई प्रतिमाओं का स्वरूप एक ही तरह का होता है। आगे दिये हुए लक्षणों (प्रतीक), लांच्छन से पता चलता है कि वे कौनसे तीर्थंकर हैं। गुप्तकाल और आगे के काल की मूर्तियाँ लांच्छन नहीं होती थी ।

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