Book Title: Bharatiya Shilpsamhita
Author(s): Prabhashankar Oghadbhai Sompura
Publisher: Somaiya Publications

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Page 208
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन प्रकरण १७३ कुशाण से गुप्तोत्तर काल तक लांच्छन की प्रथा नहीं थी। लांच्छन नवीं शताब्दी में बनाने लगे। गुप्तकाल की प्रतिमा की गादी में धर्मचक्र मुद्रा और गांधर्वी सहचर्य होता है। प्राचीन आदिनाथ की मूर्ति के स्कंध पर दोनों ओर बाल की लट होती है। कभी तीर्थंकर प्रतिमा का उपवित चिन्ह भी कोई में दिखाई देता है। प्रातिहार्य जैन तीर्थंकरों के पालोक्य भोग्य फलरूप अष्ट प्रातिहार्य हैं। वे जहाँ-जहाँ जाते हैं वहाँ पर पाठ वस्तुएँ उपस्थित रहती हैं। १ अशोकवृक्ष २ दिव्यध्वनि ३ सिंहासन ४ देवदुंदुभि ५ पुष्पवृष्टि ६ चामर ७ प्रभामंडल ८ छत्र ये पाठ वस्तुएँ जिनेश्वर भगवान के प्रातिहार्य हैं । इसलिये उन्हें भगवान की मूर्ति के परिकर में स्थान दिया गया है। वैदिक संप्रदाय के अनुकरण में तीर्थकरों के साथ परिवार का-देव, यक्ष, यक्षिणी, विद्यादेवियाँ, शासन देवी आदि का प्रवेश हुआ। इन सभी को जिन भगवान के साथ रखने का प्रचार बाद में हुमा। कालांतर में जैन संप्रदाय में ऐहिक कामनायें परिपूर्ण करने के लिये कई तांत्रिक विधि-विधान भी शुरू हुए। उसके साथ ही देवीदेवता के पूजन, अर्चन, बलिदान आदि के तांत्रिक ग्रंथ अस्तित्व में आये। नवग्रह, दिक्पाल, गणेश, लक्ष्मी, मातृकायें, शासन देव-देवियां, विद्यादेवी, पद्मावती, चक्रेश्वर, मणिभद्र, घंटाकर्ण, सिद्धिदाविका आदि देव-देवियों का सांप्रदायिक ग्रंथों में, वैदिक संप्रदाय की तरह, उनके तंत्र-मंत्रादि एवं साहित्य के सहित प्रवेश हुआ। परिकर की रचना भगवान की बैठक के नीचे के भाग को गादी (गद्दी) कहते हैं। उसकी पाटली-गादी को मध्य में देवी और उसके दो प्रोर सिंहहाथी आदि होते हैं । अंत में दायीं ओर तीर्थंकर से यक्ष-और बायीं ओर यक्षिणी रहती है । तीर्थंकर के दोनों ओर स्कंध तक दो खड़ी हुभी इन्द्र की मूर्ति (या काउसग्ग की मूर्ति) होती है। उसके ऊपर बीच में गोल छत्र होते हैं। उसमें अशोक वृक्ष के पत्रों की पंक्तियाँ, गंधर्व-नृत्य करते स्वरूप, बगल में दोनों ओर देवता बैठकर वाद्य बजाते हैं, ऐसा स्वरूप तथा दोनों ओर इन्द्रगांधर्व पुष्पहार पहनाते हों, ऐसा स्वरूप होता है। वहाँ दो बाजू हस्ति, मध्य में देव, ऊपर छत्र, उसके ऊपर दिव्यध्वनि शंख बजाता गंधर्व और उसके दोनों ओर दिव्य ध्वनि करते वाद्यमंत्र देव होते हैं। मुख्य प्रतिमा का परिकर करना आवश्यक हैं। परिकर युक्त देव प्रतिमा अहंत कहलाते हैं और बिना परिकर की प्रतिमा सिद्ध भगवान की कहलाती है। परिकर दो प्रकार के होते हैं। एक इन्द्रयुक्त और दूसरा पंचतीर्थों का। उसमें दो ओर काउसग्ग और उसपर जिन मूर्ति तथा मध्य में मूलनायक की मूर्ति, सब कुल पांच मूर्तियां होती हैं। इसे पंचतीर्थों को परिकर कहते हैं। सिंहासन की पाटली में नौ गृहों के छोटे स्वरूप बनाये जाते हैं। गुप्तकाल के पहले परिकर की प्रथा नहीं होगी। मथुरा और गांधार शिल्प में ऐसी उसकी प्रतिमा से हम यह जान सकते हैं। उस समय प्रतिमा के नीचे गादी में धर्मचक्र और उसके दो पोर मृग युग्म उत्कीर्ण किये जाते थे और प्रतिमा के ऊपर गंधर्व साहचर्य की प्रथा थी। अशोक वृक्ष, पुष्पवृष्टि, सिंहासन, चामर, दिव्यध्वनि, प्रभामंडल, देवदुंदुभि, और छत्र येआठ वस्तुएँ जिनेश्वर भगवान के प्रातिहार्य माने जाते हैं । इसलिए उन्हें जैन भगवान की मूर्ति के परिकर में स्थान दिया गया है। परिकर का प्रत्येक विभाग शास्त्रोक्त है। और उसी प्रकार परिकर तैयार होता है। वैदिक देवी पर परिकर-दूसरे प्रकार का होता है। दो ओर थमी ऊपर तोरणा बनता है। दूसरे विष्णु परिकर दशावतार वाले सूर्य नवग्रह से प्रावृत्त होते हैं, देवी का परिकर सप्त मातृका आवृत होते हैं । जैन परिकर का विभाग युक्त संपूर्ण पालेखन पूर्वाध में दिया गया है। जैन संप्रदाय में प्राचीन देववाद में प्रधान चार वर्ग जैनों के प्राचीन देववाद में चार प्रधान वर्ग हैं। १ ज्योतिषी, २ वैमानिक, ३ भुवनपाल, ४ व्यंतर। (१) ज्योतिषी-नव ग्रहादि। (२) वैमानिक-उसमें दो उपवर्ग है, उत्तरकाय और अनुतरकाय । For Private And Personal Use Only

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