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भारतीय शिल्पसंहिता
पुराणों में ब्रह्मा ने सारी सृष्टि का निर्माण किया है, ऐसा कहा है, उन्होंने पहले प्रजापति का सर्जन किया और उन्होंने अपने मानसपुत्रों को प्रजा का निर्माण करने की आज्ञा दी, इसलिये वे प्रजापति कहलाये।
ब्रह्मा और प्रजापति के कथानकों में साम्य होने के कारण उपर्युक्त वैदिक देवता प्रजापति और पौराणिक ब्रह्मा ये दोनों एक ही देवता के स्वरूप हैं, इसमें कोई शक नहीं।
विष्णु ब्राह्मी संस्कृति के स्वरूप में सात देवों का बहुत महत्त्व है। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, सूर्य, वरुण, इन्द्र पौर अग्नि ये वे सात देव हैं। शिव के सिवाय अन्य देवों का इतना महत्त्व नहीं है। वेद में उनका वर्णन अन्य अर्थ के अनुसन्धान में है। अथर्ववेद में एक जगह यज्ञ को गर्मी और प्रकाश देने के लिये विष्णु की प्रार्थना की थी ऐसा लिखा है। ऋग्वेद में विष्णु के स्वरूप का वर्णन नहीं है, सूर्य को ही विष्णु का मूल स्वरूप माना गया है, सूर्य के बारह नामों में एक विष्णु का भी नाम है।
असुरों के नाश के लिये इन्द्र के साथ विष्णु की मित्रता हुई थी, ऐसा वेद में लिखा है, विष्णु की यज्ञावतारकथा में लिखा है कि अविनी-कुमारों ने यज्ञ को घोड़े का मस्तक बैठा दिया, इससे हयग्रीव अवतार हुआ, वे मधु कैटभ को मारकर वेद वापस ले आये, अथवा यों कहिये कि उनके श्वासोच्छवास से वेद बाहर आये । वैदिक वाङमय में इन्द्र और वरुण के आगे विष्णु का स्थान गौण है। पौराणिक काल में शिव और विष्णु का महत्त्व बढ़ गया और इन्द्र एवं वरुण का स्थान गौण हो गया।
विष्णु के प्रासंगिक दस अवतार हुए थे, पुराणों में तदुपरांत दूसरे बीस अवतारों की कथाएँ हैं, ऋषभदेव, कपिल, दत्तात्रय, पृथ, हयग्रीव, नरनारायण, धन्वन्तरि और मोहिनी (स्त्री रूप) आदि। शेषशायी लक्ष्मीनारायण चतुर्मुख विष्णु के स्वरूप हैं। अनन्तविष्णु, व्यैलोक्यमोहन, विश्वरूप और वैकुण्ठ ये विष्णु के महास्वरूप हैं।
पुराणों में गजेन्द्रमोक्ष की कथा आती है, उसमें यह आता है कि (जल में से) मगर के मुँह में फंसे गजेन्द्र को विष्णु ने मुक्त कियाछुड़ाया। इसके बाद गजेन्द्र ने विष्णु को वरदराज नाम दिया। पुंडरीक की भक्ति के कारण विष्णु का अवतार हुआ, जो विठोबा के नाम से प्रसिद्ध हुए । पंढरपुर में विठोबा-रुक्मिणी के नाम से वे आज भी पूजे जाते हैं। खड़ी मूर्ति है, दोनों हाथ कमर पर हैं और हाथों में शंख और चक्र हैं। मस्तक पर लम्बा खड़ा मकुट हैं।
तिरुपति के बालाजी-व्यंकटेश प्रसिद्ध है। वह शिव और विष्णु का संयुक्त स्वरूप है, वह हरिहर की मूर्ति है, उनके दायें हाथ के ऊपर साँप है, ऊपर के दो हाथों में शंख और चक्र हैं, नीचे के दो हाथो में एक हाथ कमर पर है और एक हाथ वरद-अभयदाता है, नीचे की ओर मारुति और गरुड वाहन हैं।
बालकृष्ण, गोवर्धनधारी, कालियामर्दन, वेणुगोपाल आदि विष्णु के बालस्वरूप हैं।
धर्म-ब्रह्मा ने सृष्टि उत्पन्न की और उसकी रक्षा के लिये अपने शरीर में से वृषभ-कल्याण पुरुष पैदा किया। उसे धर्म कहते हैं। सत्ययुग आदि चार युगों में कालक्रम के अनुसार ४, ३, २, १ उसके पैर थे, कलियुग में धर्म का एक ही पैर रहा हैं।
यानक, स्थापन, प्रासन, शयन ये मूर्तियों के चार प्रकार हैं, वाहन पर बैठी हुई मूर्ति को यानक, खड़ी मूर्ति को स्थानक, बैठी हुई मूर्ति को आसन और सोयी हुई मूर्ति-शेषशायी और निर्वाण अवस्था-को शयन कहते हैं। जिस हेतु से मूर्ति की पूजा की जाती है, उस परसे योग, भोग, वीर और अभिचारक ऐसे चार प्रकार भी होते हैं। मूर्ति के साथ परिकर-परिवार किन्नर, विद्याधरयुगल, कमल और कलश से मूर्ति पर जल का अभिशेष करते हुए हाथी, छत्र, शंख अथवा देवदुन्दुभि बजाते हुए गान्धर्व भी होते हैं। नीचे के सिहासन में सिंह अथवा हाथी होता है । बौद्ध और जैनों में मृगयुग्म अथवा धर्मचक्र दिखाई देता है।
दैवी शक्ति शक्ति सम्प्रदाय में दुर्गा को प्रधानता रहती है। नवदुर्गाएँ, सप्तमातृकाएँ, द्वादश गौरीस्वरूप, दश महाविद्याएँ, षोडश मातृकाएं, आणिमादी सिद्धियाँ, चौसठ योगिनियाँ, महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती, लक्ष्मी, भूदेवी, श्री देवी, अम्बा, भुवनेश्वरी, अन्नपूर्णा, गायत्री, गंगा, यमुना, शीतला, तुलसी प्रादि देवियों के स्वरूप होते हैं। उनमें चामुण्डा, चण्डी, रक्तचामुण्डा आदि देवी के उग्र स्वरूप भी बताये गये हैं।
देवों और दानवों के बीच महायुद्ध होते थे, भोले शम्भु के आशीर्वचन से वे (दानव) स्वरविहारी होकर त्रास फैलाते थ, देवों को भी सताने लगते थे, ऐसी स्थिति में शिव के परम तेज में से किसी विशिष्ट शक्ति का प्रादुर्भाव होता था, उस महाशक्ति के द्वारा दानवों का संहार होता था, ऐसी महिषासुरमर्दिनी आदि उग्र देवियाँ शम्भ, निशुम्भ आदि दैत्यों का विनाश करती थी।
प्रकोर्गक देवों में सूर्य के बारह स्वरूप, गणपति के स्वरूप, कार्तिकेय (स्कन्द) विश्वकर्मा, ऋषिमूर्तियाँ, बुद्धजिनप्रतिमाएं ये सारे मूर्ति के सामान्य स्वरूप हैं। यज्ञमूर्ति, वृषभ, हनुमान के स्वरूप, धर्म मूर्ति आदि स्वरूप भी कहे गये हैं।
प्राचीन काल में वेदों में इन्द्र, वरुण, अग्नि और सूर्य इन देवों को सर्वोच्च स्थान मिला है, पुराणकाल में पीछे से कथाओं के अनुसन्धान में
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