Book Title: Bhakti Kartavya Author(s): Pratapkumar J Toliiya Publisher: Shrimad Rajchandra Ashram View full book textPage 8
________________ (iv) ही रहा है और हम सत्पुरुष को पहचाने बिना तुझे पहचान नहीं सके, तेरा यही दुर्घटपना सत्पुरुष के प्रति हमारा प्रेम उत्पन्न करता है । क्योंकि तू (उनके) वश होते हुए भी वे उन्मत्त नहीं हैं और तुझसे भी सरल है, इस लिए अब तू कहे वैसा हम करें ।" " हे नाथ! तू बुरा मत माने कि हम तुझसे भी सत्पुरुष को विशेष भजते हैं; सारा जगत तुझे भजता है, तो फिर एक हम अगर तेरे सामने (उल्टे ) बैठे रहेंगे उसमें उनको कहां (अपने ) स्तवन की आकांक्षा है और तुझे कहां न्यूनता भी है ? " स्व-रूप की भक्ति एवं असंगता "हमारे पास तो वैसा कोई ज्ञान नहीं है कि जिससे तीनों काल सर्व प्रकार से दिखाई दे, और वैसे ज्ञान का हमें कोई विशेष लक्ष्य भी नहीं है, हमें तो वास्तविक ऐसा जो स्वरूप उसकी भक्ति और असंगता प्रिय है यही विज्ञापन । " भक्तिमार्ग का प्राधान्य "ज्ञानमार्ग दुराराध्य है, परमावगाढदशा प्राप्त करने से पूर्व उस मार्ग में पतन के अनेक स्थानक हैं । संदेह, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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