Book Title: Bhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Author(s): Usha Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch

View full book text
Previous | Next

Page 200
________________ संयम आदि के नियमों का पालन न करना ही अविरति है। अपने कर्तव्य निर्वाह में असावधान होना प्रमाद है। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि मन को मलिन करने वाली भावनाएं कषाय हैं। मन, वचन और काय के द्वारा आत्मा के प्रदेशों में जो क्रिया होती है, उसे योग कहते हैं। आचार्य उमास्वाति ने कर्मबंध के चार प्रकारों का उल्लेख किया हैप्रकृतिबंध, स्थितिबंध, प्रदेशबंध अनुभागबंध। कर्म-परमाणुओं का आठ कर्मों में परिणत हो जाना प्रकृतिबंध है। जिस प्रकार भोजन करने के पश्चात् अन्न शरीर में जाकर रुधिर, मज्जा आदि सात धातुओं में विभक्त हो जाता है उसी प्रकार कर्म परमाणु अष्टकर्मों में विभाजित हो जाते हैं। ये अष्टकर्म इस प्रकार ___ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अन्तराय, आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय। बंधे हुए कर्मपरमाणुओं की ज्ञानावरणादि कर्मों के रूप में संख्या का नियत होना प्रदेश-बंध है। कर्म परमाणु जीव के साथ कितने समय तक संयुक्त रहेंगे, काल मर्यादा का यह निर्णय ही स्थितिबंध कहलाता है। कर्म तीव्र फल देगा या मंद इस शक्ति का नियत होना अनुभाग बंध कहलाता है। भैया भगवतीदास ने कर्मबंध के हेतु तथा भेदों का संक्षेप में इस प्रकार संकेत किया है "मिथ्या अव्रत योग कषाय। बंध होय चहुं परतें आय।। थिति अनुभाय प्रकृति परदेश। ए बंधन विधि भेद विशेष।।" जीव अनन्त गुणों से युक्त होता है। कर्म उसके गुणों को आवृत कर लेते हैं। उसके अनन्त गुणों में से आठ गुणों को विशेष महत्व दिया गया हैक्षायिक सम्यक्त्व, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व, अव्यावाधत्व। ये ही आठ गुण सिद्धों के माने गए हैं। भैया भगवतीदास ने इसी विषय पर एक विशिष्ट कृति की रचना की है- "अष्टकर्म की चौपाई" जिसमें अष्टकर्मों के द्वारा अष्टगुणों को आवृत किए जाने का वर्णन किया गया है "एक जीवगुण धरै अनन्त। ताको कुछ कहिये विरतंत। सबगुण कर्म अच्छादित रहैं। कैसे भिन्न-भिन्न सिंह कहैं।। तामें आठ मुख्य गुण कहें। तापें आठ कर्म लगि रहे।।" ज्ञानावरणीयकर्म जीव के ज्ञानगुण को आवृत कर लेता है। उसके क्षय (178) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252