Book Title: Bhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Author(s): Usha Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch

View full book text
Previous | Next

Page 204
________________ "संवर पट को रोकने भाव। सुख होवे को यही उपाव।। आवे नहीं नए जहाँ कर्म। पिछले रुकि प्रगटै निजधर्म।। थिति पूरी है खिर खिर जाहि। निर्जर भाव अधिक अधिकाहिं।। निर्मल होय चिदानन्द आप। मिटै सहज परसंग मिलाप।।''40 इसके अतिरिक्त उपवास, तप, ध्यान आदि के द्वारा भी कर्मों का समय से पूर्व ही उदय में लाकर उदीरणा के द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। तत्वार्थ सूत्र में आचार्य उमास्वाति ने निर्जरा के कितने ही उपाय बताये हैं "स गुप्ति समिति धर्मानुप्रेक्षा परिषहजय चारित्रैः। तपसा निर्जरा च। 141 अर्थात् गुप्ति (तीन) समिति (पाँच) धर्म (दस) अनुप्रेक्षा (बारह) परिषहजय (बाईस) चारित्रपालन व तपस्या (बारह) से निर्जरा होती है। भैया भगवतीदास ने उक्त प्रकार से निर्जरा के उपाय तो नहीं बताये हैं, हाँ भिन्न रचनाओं के अंत में यह संकेत दे दिया है कि ऐसा आचरण करने से मोक्ष पद की प्राप्ति होती है जैसे 'बारह-भावना' कृति के अन्त में कहा गया है "ये ही बारह भावन सार। तीर्थकर भावहिं निरधार। हवै वैराग महाव्रत लेहि। तब भव भ्रमन जलांजुलि देहि।।" इसी प्रकार 'बाईस परीसहन के कवित्त' के अंत में भी कहा है। मोक्ष सप्तम और अन्तिम तत्व है मोक्ष। यही वह लक्ष्य है जिसकी प्राप्ति के लिए जीव अनन्तानन्त जीवन धारण करता हुआ संसार में भटकता रहता है। मोक्ष का अर्थ है मुक्ति अर्थात् 'समस्त कर्मबंधनों' से जीव के मुक्त हो जाने को मोक्ष कहते हैं।' कर्मों का आवरण ही संसार है। कर्म प्रेरित जीव ही संसार में भ्रमण करता रहता है और कर्मसिद्धान्त कर्मजाल में बंदी जीव को मुक्ति का मार्ग दिखाने की कथा मात्र है। कविवर 'भैया' कहते हैं "ये ही आठों कर्ममल, इनमें गर्भित हंस।। इनकी शक्ति विनाश के प्रगट करहि निज बंस।। 142 इस प्रकार जैन कर्मसिद्धांत के अनुसार कर्म का कर्ता और भोक्ता जीव स्वयं ही है, वहाँ ईश्वर का कोई महत्व नहीं है, वहाँ मोक्ष प्राप्ति ईश्वर की कृपा नहीं वरन् जीव के पुरुषार्थ का परिणाम है। कर्मरूपी शत्रुओं को जीत (182) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252