Book Title: Bhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Author(s): Usha Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch

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Page 234
________________ 11. अष्टकर्म- देखिये कर्म। अष्ट प्रातिहार्य- देखिये प्रातिहार्य। 13. अलोकाकाश- जैन भूगोल के अनुसार आकाश द्रव्य के दो भेद हैं लोकाकाश तथा अलोकाकाश। सर्वव्यापी अलोकाकाश के मध्य में लोकाकाश स्थित है। उसके चारों ओर सर्वव्यापी अनन्त अलोककाश है। इसमें केवल आकाश द्रव्य ही पाया जाता है। 14. अस्तेय- चोरी का त्याग। आकाश- सृष्टि के आधारभूत छः द्रव्यों में से एक द्रव्य जो समस्त द्रव्यों को स्थान देता है। इसके दो भाग हैं लोकाकाश तथा अलोकाकाश। आस्रव- कर्मों का आना आस्रव है। कर्म सिद्धांत से सम्बन्धित सात तत्वों में से एक भेद, देखिये तत्व। 17. ईर्या- मुनियों की पाँच समितियों में से एक समिति- जीव दया के लिये चार हाथ आगे देखकर चलना ईर्या समिति है। 18. उत्पाद- द्रव्य के तीन लक्षणों में से एक लक्षण, उत्पत्तिशीलता। 19. उपशम- सम्यग्दर्शन के तीन भेदों में से एक भेद। 20. उपशम श्रेणी- अष्टम, नवम्, दशम्, एकादश गुणस्थानों की एक श्रेणी। 21. ऊर्ध्व गति- जीव ऊर्ध्वगामी होता है। मृत्यु के पश्चात यदि कर्मबंधन उसे न रोकें तो वह लोक के अग्रभाग में पहुँच कर स्थित हो जाता है। अर्थात मुक्त हो जाता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता। ऐलक- ग्यारह प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक जो एक वस्त्र, लंगोटी मात्र धारण करते हैं। 23. ओम्- पाँच परमेष्ठी नाम मंत्र। पांचों परमेष्ठी के प्रथम अक्षर के योग से निर्मित, यथाअरहंत का अ, सिद्ध (अशरीर) अ, आचार्य आ, उपाध्याय उ, साधु (मुनि) म्, अ + अ + आ + उ + म् = ओम् कर्म- कर्मवर्गणा रूप पुदगल के स्कंध, जीव के रागद्वेषादिक परिणामों के निमित्त से जीव के साथ बंध जाते हैं। बंधने से पहले ये कर्म-वर्गणा कहलाते हैं। कर्म के मूल भेद आठ हैं- 1. ज्ञानावरण, 2. दर्शनावरण, 3. मोहनीय, 4. अन्तराय, 5. आयु, 6. नाम, 7. गोत्र, (212) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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