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68. परिणाम- पाँच प्रकार के होते हैं- औदयिक, औपशमिक, क्षायिक,
क्षायोपशमिक और पारिणामिक। ये ही भाव कहलाते हैं। 69. परीषह- 22 प्रकार के कष्ट। मन को विचलित किये बिना इनको सहना
परीषह जय कहलाता है। ये इस प्रकार हैं- ग्रीष्म, शीत, क्षुधा, तृषा, दंशभषक, शय्या, वधबंध, चर्या, तृणस्पर्श, ग्लानि, रोग, नग्न, रतिअरति, स्त्री, मान-अपमान, थिर, कुवचन, अयाचना, अज्ञान, प्रज्ञा, अदर्शन, अलाभा पाप- पाप पाँच प्रकार के होते हैं- हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य,
परिग्रह। 71. प्रतिमाएं- (एकादश प्रतिमाएं) श्रावक के पालनयोग्य धर्म को 11 श्रेणियों
में विभक्त किया गया है, ये ही 11 प्रतिमाएं कहलाती हैं- 1- दर्शन, 2- व्रत, 3- सामयिक, 4- प्रोषधोपवास, 5- सचित्त विरति, 6- रात्रिभोजन त्याग, 7- ब्रह्मचर्य, 8- आरम्भत्याग, 9- परिग्रह त्याग, 10- अनुमति
त्याग, 11- उद्दिष्ट भोजन त्याग। 72. प्रदेश- आकाश के छोटे से छोटे अविभागी अंश का नाम प्रदेश है अर्थात्
एक परमाणु जितनी जगह घेरता है, उसे प्रदेश कहते हैं। 73. प्रातिहार्य- (अष्ट प्रातिहार्य) केवल ज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् भगवान
के आठ शुभ चिह्न अष्टप्रातिहार्य कहलाते हैं- 1- अशोकवृक्ष, 2- पुष्पवर्षा, 3-दुंदुभि, 4- आसन, 5- दिव्यध्वनि, 6- त्रिछत्र, 7- दो चमर, 8- प्रभामंडल।
बंध- कर्मों का आत्मा से संयुक्त होना बंध कहलाता है। 75. भव्य- जिन जीवों में संसार से मुक्त होने की योग्यता होती है, वे जीव
भव्य कहलाते हैं। 76. भाव- देखिये परिणाम।
भावनाएं- देखिये अनुप्रेक्षा। 78. महाव्रत- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह का पूर्णतः पालन। 79. मोहनीय कर्म- अष्टकर्मों में से एक प्रबल कर्म। 80. मोक्ष- भवभ्रमण से मुक्ति ही मोक्ष है।
योजन- 4545.45 मील (जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के अनुसार)। 82. रतनत्रय- देखिये त्रिरत्न।
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