Book Title: Bhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Author(s): Usha Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch

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Page 239
________________ 83. राजू- 4545.45 x 2057172 x 6 x 30 x 24 x 60 x 540000 मील (जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के अनुसार) 84. लोकाकाश- आकाश का वह भाग जो छः द्रव्यों से निर्मित है। लोकाकाश के बाहर केवल आकाश द्रव्य है, जो अलोकाकाश कहलाता है। लोकाकाश को ही लोक अथवा त्रिलोक कहते हैं। इसकी ऊँचाई 14 राजू हैं मोटाई (उत्तर-दक्षिण दिशा में सर्वत्र 7 राजू तथा चौड़ाई पूर्व-पश्चिम दिशा में) मूल में 7 राजू, धीरे-धीरे कम होकर 7 राजू की ऊँचाई पर एक राजू पुनः क्रमशः बढ़कर साढ़े दस राजू की ऊँचाई पर 5 राजू तथा क्रमशः घटते-घटते अन्त में चौदह राजू की ऊँचाई पर केवल एक राजू है। इसके तीन भाग हैं, ऊर्ध्व, मध्य तथा अधोलोक। मूल से सात राजू की ऊँचाई तक अधोलोक तत्पश्चात 1 लाख योजन तक मध्य लोक, तत्पश्चात् 14 राजू की ऊँचाई पर लोक के अन्त तक ऊर्ध्वलोक है। 85. विकलत्रय- द्विन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव। विदेह क्षेत्र- जम्बू द्वीप में 46000 योजन में निषध और नील पर्वतों के अन्तराल में एक क्षेत्र। विद्याधर- कुछ विद्याओं के धारणकर्ता विद्याधर कहलाते हैं। 88. व्यय- द्रव्य के तीन लक्षणों में से एक, विनाशशीलता। श्रावक- जिनधर्मावलम्बी। षट् अनायतन- देखिये अनायतन। 91. षट् आवश्यक- मुनि के लिये 6 आवश्यक धर्म- 1- सामायिक, 2 स्तुति, 3- वन्दना, 4- स्वाध्याय, 5- प्रतिक्रमण (अपनी दिनचर्या का अवलोकन), 6- कायोत्सर्ग। षट्कर्म- गृहों के लिये षट आवश्यक कार्य- 1- देवपूजा, 2- गुरु की उपासना, 3- स्वाध्याय, 4- संयम, 5- तप, 6- दान। षट्काय जीव- 1- पृथ्वी कायिक, 2- जलकायिक, 3- अग्निकायिक, 4- वायुकायिक, 5- वनस्पति कायिक तथा त्रसजीव। 94. सकल- शरीर सहित। सकल परमात्मा- अरहंत भगवान। 95. समवशरण- वह सभास्थल जहाँ तीर्थकर केवल ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् धर्मोपदेश देते हैं। 89. (217) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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