Book Title: Bhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Author(s): Usha Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch

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Page 235
________________ 25. 26. 27. 28. 29. 30. 31. 32. 33. 34. 35. 36. 8. वेदनीय। प्रथम चार समूह का घातिया कर्म तथा अन्तिम चार का समूह अघातिया कर्म कहलाता है। कषाय- क्रोध, मान, माया, लोभ के भाव, जिनके कारण संसारी जीवों के कर्मों का बंधन होता है। काललब्धि- किसी कर्म के उदय होने के समय की प्राप्ति । केवलज्ञान - ( कैवल्य ) - पूर्ण ज्ञान । केवली - सर्वज्ञ वीतराग अरहंत परमात्मा । क्षपक- अष्टम, नवम्, दशम् तथा द्वादश गुणस्थान की एक श्रेणी । क्षपक श्रेणी चढ़ने वाले मुनि 11वें गुणस्थान का स्पर्श नहीं करते। क्षायिक - सम्यग्दर्शन का एक भेद । क्षायिक सम्यग्दृष्टि क्षायिक सम्यक्त्व को धारण करने वाला जीव सम्यग्दृष्टि कहलाता है। क्षायोपशमिक - सम्यग्दर्शन का एक भेद, इसे ही वेदक कहते हैं। क्षुल्लक- ग्यारह प्रतिमाधारी उद्दिष्ट भोजन का त्यागी श्रावक, लंगोटी तथा एक अन्य वस्त्र ( चादर ) धारण करता है। जो एक गति - इस संसार में जीव चार गतियों-नरक, तिर्यच, देव तथा मनुष्य में भ्रमण करता रहता है। गुण- अष्ट गुण जो सिद्धों के प्रकट होते हैं- 1. क्षायिक सम्यक्त्व, 2. अनन्तदर्शन, 3. अनन्तज्ञान, 4. अनन्तवीर्य, 5. सूक्ष्मत्व, 6. अवगाहनत्व, 7. अगुरुलघुत्व, 8. अव्यावाधत्व । मुनि के लिये 28 मूल गुण आवश्यक हैं- जो इस प्रकार हैं- 5 महाव्रत, 5 समिति, 5 पंचेन्द्रिय - निरोध, 6 आवश्यक, 7 प्रकीर्णक, ( केशलौंच, नग्न रहना, अस्नान, भूमिशयन, अदन्तघर्षण, दिन में केवल एक बार भोजन तथा खड़े होकर भोजन लेना) गुणस्थान- मन, वचन और काय की प्रवृत्ति के कारण जीव के अंतरंग परिणामों में प्रतिक्षण होने वाले उतार-चढ़ाव का नाम गुणस्थान है, ये चौदह हैं- 1- मिथ्यात्व 2 - सासादन सम्यग्दृष्टि, 3- सम्यक् मिथ्यात्व, 4- असंयत सम्यग्दृष्टि, 5 - देशविरत्, 6- प्रमत्त संयत, 7 अप्रमत्त संयत, अपूर्वकरण, 9- अनिवृत्तिकरण, 10- सूक्ष्म साम्पराय 11 - उपशांत कषाय, 12 - क्षीण कषाय, 13- सयोग केवली, 14- अयोग केवली । 8 Jain Education International (213) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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