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8. वेदनीय। प्रथम चार समूह का घातिया कर्म तथा अन्तिम चार का समूह अघातिया कर्म कहलाता है।
कषाय- क्रोध, मान, माया, लोभ के भाव, जिनके कारण संसारी जीवों के कर्मों का बंधन होता है।
काललब्धि- किसी कर्म के उदय होने के समय की प्राप्ति । केवलज्ञान - ( कैवल्य ) - पूर्ण ज्ञान ।
केवली - सर्वज्ञ वीतराग अरहंत परमात्मा ।
क्षपक- अष्टम, नवम्, दशम् तथा द्वादश गुणस्थान की एक श्रेणी । क्षपक श्रेणी चढ़ने वाले मुनि 11वें गुणस्थान का स्पर्श नहीं करते।
क्षायिक - सम्यग्दर्शन का एक भेद ।
क्षायिक सम्यग्दृष्टि क्षायिक सम्यक्त्व को धारण करने वाला जीव सम्यग्दृष्टि कहलाता है।
क्षायोपशमिक - सम्यग्दर्शन का एक भेद, इसे ही वेदक कहते हैं। क्षुल्लक- ग्यारह प्रतिमाधारी उद्दिष्ट भोजन का त्यागी श्रावक, लंगोटी तथा एक अन्य वस्त्र ( चादर ) धारण करता है।
जो एक
गति - इस संसार में जीव चार गतियों-नरक, तिर्यच, देव तथा मनुष्य में भ्रमण करता रहता है।
गुण- अष्ट गुण जो सिद्धों के प्रकट होते हैं- 1. क्षायिक सम्यक्त्व, 2. अनन्तदर्शन, 3. अनन्तज्ञान, 4. अनन्तवीर्य, 5. सूक्ष्मत्व, 6. अवगाहनत्व, 7. अगुरुलघुत्व, 8. अव्यावाधत्व ।
मुनि के लिये 28 मूल गुण आवश्यक हैं- जो इस प्रकार हैं- 5 महाव्रत, 5 समिति, 5 पंचेन्द्रिय - निरोध, 6 आवश्यक, 7 प्रकीर्णक, ( केशलौंच, नग्न रहना, अस्नान, भूमिशयन, अदन्तघर्षण, दिन में केवल एक बार भोजन तथा खड़े होकर भोजन लेना)
गुणस्थान- मन, वचन और काय की प्रवृत्ति के कारण जीव के अंतरंग परिणामों में प्रतिक्षण होने वाले उतार-चढ़ाव का नाम गुणस्थान है, ये चौदह हैं- 1- मिथ्यात्व 2 - सासादन सम्यग्दृष्टि, 3- सम्यक् मिथ्यात्व, 4- असंयत सम्यग्दृष्टि, 5 - देशविरत्, 6- प्रमत्त संयत, 7 अप्रमत्त संयत, अपूर्वकरण, 9- अनिवृत्तिकरण, 10- सूक्ष्म साम्पराय 11 - उपशांत कषाय, 12 - क्षीण कषाय, 13- सयोग केवली, 14- अयोग केवली ।
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