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37. गुप्ति- मन, वचन व काय के निग्रह करने को गुप्ति कहते हैं। ये तीन
प्रकार की होती है- मनगुप्ति, वचन गुप्ति, काय गुप्ति। 38. ज्ञान- ज्ञान के पाँच प्रकार हैं- मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय, केवल। 39. घातिया कर्म- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय, इन चार कर्मों
का समूह घातिया कर्म कहलाता है। जीव- षट द्रव्यों में से एक द्रव्य जिसमें चेतना गुण पाया जाता है। ये पाँच प्रकार के होते हैं- एकेन्द्रिय, दिवेन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चौन्द्रिय, पंचेन्द्रिय। तत्व- कर्म सिद्धान्त से संबद्धित सात तत्व होते हैं- 1- जीव, 2- अजीव, 3- आस्रव, 4- बंध, 5- संवर, 6- निर्जरा, 7- मोक्ष। इसमें पाप पुण्य का योग करके नव तत्व भी माने जाते हैं। तप- 12 प्रकार के तप होते हैं- 6 बहिरंग-अनशन, अवमौदर्य (भूख से कम भोजन करना) रस परित्याग, वृत्ति परिसंख्यान (कोई नियम लेकर आहार के लिये जाना) विविक्त शय्यासन, कायक्लेश। 6 अतरंग-प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, कुत्सर्ग, (ममता मोह का त्याग), ध्यान।
त्रसजीव- द्विन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक शरीरधारी जीव। 44. सनाली (वसनाड़ी)- लोकाकाश के मध्य में एक राजू लम्बी, एक राजू
चौड़ी, 14 राजू ऊँची नाली। इसमें त्रस जीव रहते हैं। त्रिगुप्ति- देखिये गुप्ति। त्रिमूढ़ता- लोक मूढ़ता, देवमूढ़ता, गुरु मूढ़ता, तीन प्रकार की अन्ध श्रद्धा त्रिमूढ़ता कहलाती है। त्रिरत्न (रतनत्रय)- मोक्षमार्गस्वरूप तीन रत्न- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान,
सम्यक्चारित्र त्रिरत्न अथवा रत्नत्रय कहलाते हैं। त्रिलोक- देखिये लोकाकाश।
थावर- देखिये स्थावर। 50. दान- चार प्रकार का दान- आहार दान, शास्त्रदान, औषधि दान, अभयदान।
दिव्यध्वनि- केवली भगवान के मुख से प्रकट होने वाली मेघ की गर्जना के समान ध्वनि, जिसे सुनने वाले अपनी-अपनी भाषा में सुनते और समझ
लेते हैं। . 52. देव- चार प्रकार के होते हैं- 1- भवनवासी, 2- व्यंतर, 3- ज्योतिषी,
4- कल्पवासी।
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