________________
54.
57.
53. दोष- (अठारह दोष) भगवान अठारह दोषों से मुक्त होते हैं, जो इस
प्रकार हैं- क्षुधा, तृष्णा, जरा, रोग, जन्म, मरण, भय, मद, राग, द्वेष, मोह, चिन्ता, अरति, निद्रा, विस्मय, विषाद, स्वेद और खेद। द्रव्य- (षट द्रव्य) गुणों का समूह द्रव्य है। द्रव्य छः हैं- इन्हीं से सृष्टि का निर्माण हुआ है। ये इस प्रकार हैं- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश
तथा काल। द्रव्य के तीन लक्षण होते हैं, उत्पाद, प्रौव्य, व्यय। 55. द्वादश तप- देखिये तप। 56. द्वादशांग वाणी- 1- आचारांग, 2- सूत्रकृतांग, 3- स्थानांग, ___4- समवायांग, 5- व्याख्याप्रज्ञप्त्यांग, 6- धर्म कथांग, 7- उपासकाध्वयनांग,
8- अंत: कृदृशांग, 9- अनुत्तरौयपादिकदशांग, 10- प्रश्न व्याकरणांग, 11- विपाक सूत्रांग, 12- दृष्टि वादांग। धर्म- आत्मा को उन्नत करने वाले तत्व धर्म हैं जो इस प्रकार हैं 1- उत्तम क्षमा, 2- उत्तम मार्दव, 3- उत्तम आर्जव, 4- उत्तम शौच, 5- उत्तम सत्य, 6- उत्तम संयम, 7- उत्तम तप, 8- उत्तम त्याग, 9- उत्तम
अकिंचन, 10- उत्तम ब्रह्मचर्य। 58. ध्यान- चार प्रकार के हैं- आर्त, रौद्र, धर्म व शुक्ल। 59. ध्रौव्य- द्रव्य के तीन लक्षणों में से एक, स्थायित्व। 60. नन्दीश्वर द्वीप- मध्यलोक के बीचोबीच से आठवां द्वीप। 61. निगोद- बहुत से जीवों का एक ही शरीर होता है उस शरीर को निगोद
तथा उन जीवों को निगोद शरीरी जीव कहते हैं। 62. निमित्त- (उपादान निमित्त)- जो स्वयं कार्यरूप में परिणत होते हैं वे
उपादान कारण कहलाते हैं। और जो कार्य के सम्पन्न होते समय अनुकूल कारण उपस्थिति होते हैं, उन्हें निमित्त कारण कहते हैं। निष्कल- शरीर रहित। पंचमगति- मोक्ष, निर्वाण। पंचास्तिकाय- काल द्रव्य के अतिरिक्त शेष पाँच द्रव्य- जीव, पुद्गल,
धर्म, अधर्म तथा आकाश। 66. परमाणु- सबसे छोटा पुद्गल जिसका भाग न हो सके। 67. परमेष्ठी-(पंच परमेष्ठी) इन्हें ही पंचगुरु भी कहते हैं- अरहंत, सिद्ध,
आचार्य, उपाध्याय, साधु।
64.
65.
(215)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org