Book Title: Bhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Author(s): Usha Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch

View full book text
Previous | Next

Page 227
________________ आरोप नहीं किया गया है, अतः उससे किसी भी प्रकार की याचना करना निरर्थक है, फिर भी जैन भक्त दीन बनकर ईश्वर से कुछ न कुछ मांग ही बैठता है। और कुछ नहीं तो भक्ति और मुक्ति की ही याचना करता है जैसे कविवर द्यानतराय का प्रस्तुत पद "मेरी बेर कहा ढील करी जी। सूली सो सिंहासन कीना, सेठ सुदर्शन विपति हरी जी।” किन्तु भैया भगवतीदास के काव्य में इस प्रकार के दैन्य भरे याचना के स्वर कहीं सुनाई नहीं पड़ते। वे चेतन को भगवद् भक्ति के लाभ बताकर भांति-भांति से समझाते तो हैं किन्तु ईश्वर से कुछ नहीं मांगते। अतः हम कह सकते हैं कि उनकी भक्ति भावना जैन-धर्म के सिद्धान्तों के अनुकूल है। __ भैया भगवतीदास के काव्य में शान्त रस प्रमुख है। वीर, वीभत्स और अद्भुत जैसे विपरीत प्रकृति के रसों का शांत रस के सहायक रूप में आना भी महत्व की बात है। भैया भगवतीदास की रचनाएं काव्य के दोनों रूपोंप्रबंध तथा मुक्तक में मिलती हैं। उन्होंने अध्यात्म जैसे गम्भीर विषय को अत्यन्त कुशलता से प्रबन्धात्मकता प्रदान कर सरस और सरल बना दिया है। चेतनकर्म-चरित्र तथा मधुबिन्दुक चौपाई खंडकाव्य उनकी प्रबन्धपटुता के सुन्दर उदाहरण हैं। उनके प्रत्येक छंद का स्वतंत्र रूप में भी पूर्ण रसास्वादन किया जा सकता है। शेष सब कृतियाँ आध्यात्मिक भावों तथा सैद्धान्तिक विवेचन से भरपूर हैं, अतः उन्हें छोटे और लम्बे मुक्तकों की कोटि में रखा जा सकता है। उपमा, रूपक, सांगरूपक, अन्योक्ति, दृष्टान्त, विरोधाभास आदि अर्थालंकारों तथा अनुप्रास और यमक आदि शब्दालंकारों का सौंदर्य यत्र-तत्र बिखरा पड़ा है। चेतनकर्म-चरित्र जैसे विस्तृत सांगरूपक हिन्दी साहित्य में विरल है। पद्यों को भावों के अनुकूल विविध छंदों में बद्ध करना अत्यंत समर्थ कवि के वश की ही बात है। दोहा, चौपाई, कवित्त, सवैया, दुर्मिल सवैया, छप्पय, कुंडलिया, अनंगशेखर आदि उनके प्रिय छंद है। कवित्तों पर उनका विशेष अधिकार था। लय एवं संगीतात्मकता से युक्त होकर उनके भावपूर्ण पद्य अपनी निराली छटा विकीर्ण कर रहे हैं। अलंकार तथा छंद उनके काव्य में सप्रयास नहीं अपितु सहज स्वाभाविक रूप में आये हैं। उनकी भाषा ओज, माधुर्य और प्रसाद तीनों गुणों से युक्त है। अतः उनके काव्य के अनुभूति एवं अभिव्यक्ति दोनों ही पक्ष अत्यन्त उत्कृष्ट हैं। (205) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252