Book Title: Bhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Author(s): Usha Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch

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Page 214
________________ भैया भगवतीदास ने जीव से शरीर की भिन्नता का ज्ञान कराने के लिए बहुत ही उपयुक्त उपमान खोजे हैं वस्त्र और शरीर की भिन्नता के समान ही शरीर और आत्मा में भिन्नता है"लाल वस्त्र पहिरे सो देह तो न लाल होय, लाल देह भये हंस लाल तौ न मानिये।। वस्त्र के पुराने भये देह न पुरानी होय, ___ देह के पुराने जीव जीरन न मानिये।। वसन के नाश भये देह को न नाश होय, देह के न नाश हंस नाश न बखानिये।। देह दर्ब पुद्गल की चिदानंद ज्ञानमयी, दोऊ भिन्न भिन्न रूप 'भैया' उर आनिये।।"53 मनुष्य जीवन भर जिन साथी सम्बंधियों के लिए पाप कर्म करता है, उनमें से अन्त में कोई साथ नहीं देता, अतः उनके लिए पाप गठरी बांधने से क्या लाभ ? भैया भगवतीदास के शब्दों में देखिए"संग तेरे कौन चलै देख तु विचार हिये, पुत्र के कलत्र धन धान्य यह काय रे।। जाके काज पाप कर भरत है पिंड निज, वै है को सहाय तेरे नर्क जब जाय रे।। तहां तौ अकेलो तूही पाप पुण्य साथी दोय, ___ तामें भलो होय सोई कीजै हंसराय रे।।''54 अपने स्वरूप से अनभिज्ञ मानव लक्ष्यहीन इधर-उधर भटकता फिरता है, वह बाह्याडम्बरों में ही धर्म मानता है, भैया भगवततीदास ने ऐसे जीवों को बार-बार सचेत किया है, यथा"केऊ फिरै कान फटा, केऊ शीस धरै जटा के लिए भस्म वटा भूले भटकत है।। केऊ तज जाहिं अटा, केऊ धरै चेरी चटा, केऊ पढे पट केऊ धूम गटकत हैं।। केऊतन किए लटा, केऊ महा दीसैं कटा, केऊ तरतटा केऊ रसा लटकत है।। भ्रम भवतैं न हटा हिये काम, नाहि घटा, विषै सुख रटा साथ हाथ पटकत है।।"55 (192) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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