Book Title: Bhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Author(s): Usha Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch

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Page 215
________________ सम्यक्त्व के अभाव में मिथ्यादृष्टि जीव सच्चे और झूठे देव शास्त्र गुरु में अन्तर नहीं कर पाता और सच्चे देवों के भ्रम में कुदेवों की उपासना करता है। कविवर भैया भगवतीदास के शब्दों में देखिए"अपने स्वरूप को ना जानै आप चिदानन्द, वहै भ्रम भूलि वहै मिथ्या नाम पावै है।। देव गुरु ग्रंथ पंथ सांच को न जाने भेद, जहां तहां झूठे देख मान शीस नावै है।। सोई तो कुपंथ जो कुशीली पशु देव कहै, सोई तो कुपंथ जो कुलिंगी पूजे डर से।।''55 भैया भगवतीदास ने कोरे पुस्तकीय ज्ञान को भी अनुपयोगी बताया है। ऐसे ज्ञान से क्या लाभ जिसे व्यवहारिक जीवन में ही नहीं अपनाया गया और न ही हृदय उसके अनुरूप हुआ, ऐसे ज्ञानी व्यक्ति की दशा तो उस करछी के समान है जो रस व्यंजन से भरे पात्र में घुमाई जाती है किन्तु स्वयं तनिक सा भी रस नहीं ग्रहण कर पाती। द्रष्टव्य है प्रस्तुत छन्द, "जोपै चारों वेद पढे रचिपचि रीझ रीझ, पंडित की कला में प्रवीन तू कहायो है।। धर्म व्यवहार ग्रन्थ ताहूके अनेक भेद, ताके पढे निपुण प्रसिद्ध तोहि गायो है।। आतमके तत्व को निमित्त कहूं रंच पायो, ___ तोसों तोहि ग्रन्थनिमें ऐसे के बतायो है।। जैसे रस व्यन्जनि में करछी फिरै सदीव, मूढता सुभावसों न स्वाद कछु पायो है।।"7 इस प्रकार कविवर भैया भगवतीदास जीव को मिथ्यात्व त्यागने का अनेक प्रकार से उपदेश देते हैं। वे प्राणी को जिन वाणी (जिन्होंने अपने विकारों पर विजय प्राप्त कर ली है, उनके द्वारा दिया हुआ उपदेश) पर श्रद्धा रखकर सम्यक्त्व को अपनाने का संदेश देते हैं "मिथ्यामत नासवेको ज्ञानके प्रकाशवेको, ___आपापर भासवेको भानसी बखानी है।। छहों द्रव्य जानवेको बंध विधि मानवे को, आपापर ठानवे को परम प्रमानी है।। (193) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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