Book Title: Bhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Author(s): Usha Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch

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Page 213
________________ "मधु की बूंद विषै सुख जान। जिंह सुख काज रह्यो हितमान।। ज्यों नर त्यों विषयाश्रित जीव। इह विधि संकट सहै सदीव।" इसी प्रकार भैया जी ने सुआ बत्तीसी में जीव का सुए के रूप में भी रूपक बांधा है "यह संसार कर्मवन रूप। तामहि चेतन सुआ अनूप।। पढ़त रहै गुरुवचन विशाल। तोहु न अपनी करे संभाल।। लोभ नलिन पै बैठे जाय। विषय स्वाद रस लटके आय।। पकरहि दुर्जन दुर्गति परै। तामे दुख बहुत जिय भरै।।" जब तक जीव इस भ्रमपूर्ण अवस्था में पड़ा हुआ है तब तक उसका उद्धार किसी प्रकार भी सम्भव नहीं है, कविवर भैया भगवतीदास के शब्दों में देखिये"मिथ्या भाव जोलों तोलों भ्रमसों न नातों टै, मिथ्या भाव जौलों तौलों कर्म सों न छूटिये।। मिथ्या भाव जोलों तौलों सम्यक न ज्ञान होय, मिथ्या भाव जौलों तोलों अरि नाहिं कूटिये।। मिथ्या भाव जौलों तौलों मोक्ष को अभाव रहै, मिथ्या भाव जौलों तौलों परसंग जूटिये।। मिथ्या को विनाश होतं प्रगटै प्रकाश जोत, सुधौ मोक्ष पंथ सुधैं नेकु न अहूटिये।।''51 इस मिथ्या दशा से जीव की मुक्ति के प्रयास हेतु ही कवि ने उसे भांति भांति से उपदेश दिये हैं। कही उसने शरीर की निकृष्टता की ओर उसका ध्यान आकृष्ट किया है तो कही उसकी नश्वरता की ओर, और कहीं जीव से शरीर की भिन्नता को समझाया है। प्रत्येक का एक एक उदाहरण द्रष्टव्य हैशरीर की निकृष्टता"सात धातु मिलन है महा दुर्गन्ध भरी, तासों तुम प्रीत करी लहत अनंद हौ।। नरक निगोद के सहाई जै करन पंच, तिनही की सीख संचि चलत सुछंद हौं।।" शरीर की नश्वरता "काहे को देह सों नेह करै तुअ, अंत को राखी रहैगी न तेरी।। मेरी है मेरी कहा करै लच्छिसौं, काहकी हैके कह रही नेरी।।''52 (191) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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