Book Title: Bhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Author(s): Usha Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch

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Page 205
________________ कर ही जीव 'जिन' बन सकता है। इस विवेचन के पश्चात् हम कह सकते हैं कि जैन धर्म में कर्म सिद्धान्त का जितना सूक्ष्म और सांगोपांग वर्णन मिलता है, उतना अन्य दर्शनों में दुर्लभ है। यहाँ हर प्रश्न का उत्तर विद्यमान है, भैया भगवतीदास ने भी कर्मसिद्धान्त का परम्परागत वर्णन किया है। अष्टकर्म की चौपाई में अष्ट कर्म के भेद तथा कर्मबंध के दस भेद में दस अवस्थाएं वर्णित हैं शेष तत्वों का विवेचन एक स्थान पर न होकर कई रचनाओं में यत्र-तत्र बिखरा हुआ है। सप्तभंगी जैन दर्शन में वस्तु को अनेक धर्मों से युक्त (अनेकान्तात्मक) माना गया है यही अनेकान्तवाद है और एक समय में वस्तु के एक धर्म का ही कथन किया जा सकता है, सब धर्मों का कथन एक साथ एक समय में नहीं किया जा सकता जबकि उस वस्तु में अनेक धर्म एक साथ ही रहते हैं इसलिए उसके स्वरूप प्रकाश की एक विशेष शैली का आविष्कार हुआ है जिसे 'स्याद्वाद' कहते हैं। स्यात् से तात्पर्य है कचित् अर्थात् 'किसी अपेक्षा से', वाद अर्थात् कथन। अत: किसी अपेक्षा से कहना ही स्यावाद है। इस प्रकार अनेकान्तवाद एक दृष्टिकोण है और स्याद्वाद उसको प्रकट करने को एक पद्धति है। वस्तु के अनेकान्त स्वरूप को समझाने वाली सापेक्ष कथन पद्धति को स्यावाद कहते हैं।" जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के अनुसार अनेकान्तमयी वस्तु का कथन करने की पद्धति स्यादवाद है। किसी भी एक शब्द या वाक्य के द्वारा सारी की सारी वस्तु का युगपत कथन करना अशक्य होने से प्रयोजनवश कभी एक धर्म को मुख्य करके कथन करते हैं और कभी दूसरे को। मुख्य धर्म को सुनते हुए श्रोता के अन्य धर्म भी गौण रूप से स्वीकार होते रहें, उनका निषेध न होवे, इस प्रयोजन से अनेकान्तवादी अपने प्रत्येक वाक्य के साथ स्यात् या कथंचित शब्द का प्रयोग करता है। इस प्रकार स्याद्वाद द्वारा अपेक्षा को ध्यान में रखते हुए कथन किया जाता है। अनेकान्तवाच्य और स्याद्वाद वाचक है। स्याद्वाद भाषा की निर्दोष प्रणाली है, जिसके माध्यम से वक्ता दूसरे के विचारों का समादर करता है। आधुनिक युग का सापेक्षवाद 43 लगभग इसी का रूपान्तर है। स्याद्वाद के अनुसार कथन के अधिक से अधिक सात ढंग हो सकते हैं इसे ही सप्तभंगी कहा गया है। भंग स्याद्वाद के अंग प्रत्यंग हैं। एक भंग से वस्तु के एक धर्म को ग्रहण (183) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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