Book Title: Bhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Author(s): Usha Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch

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Page 198
________________ माया, लोभ | आचार्य उमास्वाति का कथन है “सकषायत्वाज्जीव: कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बंध: । " अर्थात् जीव कषाय युक्त होने के कारण कर्म योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर लेता है इसे ही बंध कहते हैं। आचार्य कुंद-कुंद ने प्रवचन सार में तथा अमृत चन्द आचार्य ने पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में यही विचार व्यक्त किए हैं- भैया भगवतीदास भी कहते हैं कि जब कर्म प्रदेश और आत्मा के प्रदेश मिलकर एक हो जाते हैं उसे ही बंध कहते हैं। " चेतन परिणाम सो कर्म जिते बांधियत, ताको नाम भावबंध ऐसी भेद कहिये ।। कर्म के प्रदेशनि को आतम प्रदेशनि सो, परस्पर मिलिबो एकत्व जहाँ लहिये ।। ताको नाम द्रव्य बंध कह्यो जिन ग्रंथनि में, ऐसो उभै भेद बंध पद्धति को गहिये ।। अनादि ही को जीव यह बंध सेती बंधयो है, 11 इनही के मिटत अनंत सुख पहिये ।। ' इस प्रकार जीव के मन वचन काय तीनों योग कर्म-परमाणुओं को जीव तक लाने का कार्य करते हैं तथा उसके राग द्वेषी परिणाम बंध का कारण बनते हैं। यदि मन कषाययुक्त न हो तो कर्म-परमाणुओं का आत्मा के साथ बंधन नहीं हो सकता। पंडित कैलाशचन्द्र शास्त्री ने इस प्रक्रिया को एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया है। उन्होंने योग को वायु की, कंषायको गोंद की, जीव को एक दीवार की, तथा कर्म-परमाणुओं को धूल की उपमा दी है। यदि दीवार पर गोंद लगी हो तो वायु के साथ उड़कर आने वाली धूल दीवार से चिपक जाती है, यदि दीवार साफ सुथरी है तो कितनी ही धूल उड़ती रहे वह चिपक ही नहीं सकती और दीवार पर धूल का कम या अधिक दिनों तक चिपके रहना भी उस पर लगी गोंद आदि की चिपकाहट की कमीबेशी पर निर्भर करती है। यदि दीवार पर गोंद न होकर पानी हो तो धूल शीघ्र ही सूखकर झड़ जायेगी । इस उदाहरण से बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि रागद्वेष आदि ही बंध के कारण हैं। भैया भगवतीदास ने इस तथ्य को बार बार कहा है । रागद्वेष को ही कर्म बंधन का मूल बताते हुए परमात्म छत्तीसी में वे कहते हैं " कर्मन की जर राग है, राग जरै जर जाय । (176) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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