________________
उपनिषदों ऋषिभाषित और थेरगाथा जैसे ग्रन्थों का निष्पक्ष भाव से अध्ययन करना चाहिए। मित्रों ! अगर बौद्ध यह समझते रहे कि थेरगाथा के सारे 'थेर' बौद्ध थे और जैन यह समझते रहें कि 'इसिभासियाई' के सारे ऋषि जैन थे, तो इससे बड़ी भ्रान्ति और कोई नहीं होगी। थेरगाथा में वर्द्धमान थेर हैं और यह वर्द्धमान थेर लिछवी - पुत्र हैं, यह बात उसकी अट्ठकथा कह रही है, तो क्या हम यह मानें कि वर्द्धमान बुद्ध का शिष्य या बौद्ध था। मित्रों! हमारा जो प्राचीन साहित्य है, वह उदार और व्यापक दृष्टि से युक्त है और महावीर ने जो हमको जीवनदृष्टि दी थी - वह दृष्टि थी - वैचारिक उदारता की ।
आपको मैंने अपने वक्तव्य के पूर्व में संकेत किया था कि महावीर और बुद्ध जिस काल में जन्में थे, वह दार्शनिक चिन्तन का काल था। अनेक मत-मतान्तर, अनेक दृष्टिकोण, अनेक विचारधारायें उपस्थित थीं। महावीर और बुद्ध-दोनों के सामने यह प्रश्न था कि मनुष्य इन विभिन्न दृष्टिकोणों में किसको सत्य कहे। महावीर ने कहा कि सभी बातें अपने-अपने दृष्टिकोण या अपेक्षाभेद से सत्य हो सकती हैं, इसलिए किसी को भी गलत मत कहो, जबकि बुद्ध ने कहा कि तुम इन दृष्टियों के प्रपंच में मत पड़ो, क्योंकि ये दुःख विमुक्ति में सहायक नहीं हैं।
एक ने इन विभिन्न दृष्टियों से ऊपर उठाने की बात कही, तो दूसरे ने उन दृष्टियों को समन्वय के सूत्र में पिरोने की बात कही । सूत्रकृताङ्गसूत्र में महावीर कहते हैं-
'सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वयं । जे उ तत्थ विउस्संति संसारे ते विउस्सिया।।'
जो अपने-अपने मत की प्रशंसा करते हैं और दूसरे के मतों की निन्दा करते हैं और जो सत्य को विद्रूपित करते हैं, वे संसार में परिभ्रमण करेंगे।
आज हमारे दुर्भाग्य से देश में धर्म के नाम पर संघर्ष हो रहे हैं। क्या वस्तुतः संघर्ष का कारण धर्म है? क्या धर्म संघर्ष सिखाता है ? मित्रों ! मूल बात तो यह है कि हम धर्म के उत्स को ही नहीं समझते हैं, हम नहीं जानते हैं कि वस्तुतः धर्म क्या है ? हम दो धर्म के नाम पर आरोपित कुछ कर्मकाण्डों, कुछ रूढ़ियों या कुछ व्यक्तियों से अपने को बांध करके यह कहते हैं कि यही धर्म है। महावीर ने इस तरह के किसी भी धर्म का उपदेश नहीं दिया। महावीर ने कहा था कि 'धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ', धर्म तो शुद्ध चित्त में रहता है। धर्म 'उजुभूयस्स' चित्त की सरलता में है। वस्तुतः, जहाँ सरलता है, सहजता है, वहीं धर्म है।
||||