Book Title: Bhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 9
________________ परुवेंति सव्वे सत्ता न हन्तव्वा, एस धम्मो सुद्धो णिचो सासयो।' जो अरहंत हो चुके हैं, जो होंगे और जो हैं, वे सब एक ही बात कहते हैं कि किसी भी प्राणी को दुःख या पीड़ा नहीं देना चाहिए। यही शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है। इसलिये, मेरा निवेदन है कि महावीर को किसी धर्म विशेष के साथ बाँधे नहीं। उनको किसी एक धर्म और सम्प्रदाय के साथ बाँध करके हम उनके साथ न्याय नहीं कर पायेंगे। मुझे आश्चर्य लगता है जब विद्वान यह कहते हैं कि भगवान् महावीर जैन धर्म के प्रवर्तक हैं। मित्रों विचार करें। यह 'जैन' शब्द कब का है? छठवीं शताब्दी के पहले हमें 'जैन' शब्द का कहीं उल्लेख ही नहीं मिलता। जब भी महावीर से कोई उनका परिचय पूछता था, तो वे कहते थे--मैं श्रमण हूँ, निर्ग्रन्थ हूँ। निर्ग्रन्थ कौन हो सकता है? महावीर कहते थे- 'जे मणं परिजाणइ से निर्गन्थ' -जो मन का दृष्टा है, वही निर्ग्रन्थ है। महावीर अपने आपको किसी घेरे में बांध करके खड़ा होना ही नहीं चाहते थे। जो भी मन का दृष्टा है, जो अपने विचारों का, विकारों का और अपनी वासनाओं का साक्षी है, दृष्टा है, वही निर्ग्रन्थ है। अपने हृदय की ग्रन्थि को देख लेना, यही निर्ग्रन्थ की पहचान है। उनकी साधना यात्रा प्रारम्भ होती थीअन्तरदर्शन से, अन्दर झांकने से। यही उनका आत्मदर्शन था। महावीर ने जो सिखाया, वह यही कि व्यक्ति अपने अन्दर देखे, अपने आपको परखे, क्योंकि यही वह मार्ग था, जो कि व्यक्ति को अपने आध्यात्मिक विकास की दिशा में ले जाता है। महावीर ने सम्पूर्ण जीवन में जो कुछ कहा और जो कुछ किया, उसका मूलभूत सार तत्त्व यही है। महावीर जीवनपर्यन्त यही कहते रहे-ज्ञाता और दृष्टा बनो। यही वह मूल आधार है, जहाँ स्थित होकर आत्मविश्लेषण द्वारा हम अपनी और समाज की सारी समस्याओं को सुलझा सकते हैं। आज हमारा दुर्भाग्य यह है कि हम अपने भीतर की वासनाओं, कषायों के कूड़े-कचरे को न देखकर, यही नहीं अपितु उस पर सुनहरा आवरण डालकर अपना जीवन व्यवहार चलाना चाहते हैं। इसके कारण न केवल हमारा जीवन विषाक्त बनता है, वरन् सामाजिक परिवेश भी प्रभावित होता है। महावीर ने कहा था कि जब तक तुम अपने आपको वासनाओं और कषायों से ऊपर नहीं उठा सकते, तब तक तुम लोकमंगल की साधना नहीं कर सकते।

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