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स्वामी विरचित
o आचार्य कुन्दकुन्द
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भावार्थ पूर्व में जो सिद्ध हुए हैं वे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप-इन चारों के संयोग ही से हुए हैं-यह जिनवचन है, इसमें संदेह नहीं है।।३२।।
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आगे कहते हैं कि "लोक में यह सम्यग्दर्शन रूपी रत्न अमोलक है सो
देव-दानवों से पूज्य है' :कल्लाणपरंपरया लहंति जीवा विसुद्धसम्मत्तं । सम्मइंसणरयणं अच्चेदि सुरासुरे लोए।। ३३।। है परम्परा कल्याण पाता, जीव शुद्ध सम्यक्त्व से। सुर-असुर युत इस लोक में, अतएव रतन ये पूज्य है।।३३।।
अर्थ जीव हैं वे विशुद्ध सम्यक्त्व को कल्याण की परम्परा सहित पाते हैं इसलिए जो सम्यग्दर्शन रत्न है वह इस सुर-असुरों से भरे हुए लोक में पूज्य है।
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भावार्थ विशुद्ध अर्थात् पच्चीस मलदोषों से रहित निरतिचार सम्यक्त्व से 'कल्याण की परम्परा' अर्थात् तीर्थंकर पदवी पाई जाती है इसलिए यह सम्यक्त्व रत्न सर्वलोक अर्थात् देव, दानव और मनुष्यों से पूज्य होता है। तीर्थंकर प्रकृति के बंध की कारण सोलह भावना कही गई हैं उनमें पहली दर्शनविशुद्धि है सो ही प्रधान है, यह ही विनयादि पंद्रह भावनाओं की कारण है इसलिए सम्यग्दर्शन के ही प्रधानपना है।।३३।।
टि०-1. 'श्रु० टी०' में लिखा है कि 'सम्यक्त्व रत्न का मूल्य कोई भी करने में समर्थ नहीं है। यदि
इसका कोई मूल्य (अवमूल्यन) करता है तो वह मुंह में शीघ्र ही कुष्ठी हो जाता है अर्थात् अपने
उपदेश के द्वारा जो सम्यक्त्व के महत्त्व को कम करता है उसके मुख में कुष्ठ होता है।' 崇崇明崇崇崇明崇騰崇崇明需攜帶業
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