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आचार्य कुन्दकुन्द
● अष्ट पाहुड़
Mea स्वामी विरचित
अर्थ
जो चौंसठ चँवरों से सहित हैं, चौंतीस अतिशयों से संयुक्त हैं, निरन्तर बहुत प्राणियों का हित जिनसे होता है तथा कर्म के क्षय के कारण हैं- ऐसे तीर्थंकर परमदेव हैं वे वंदने योग्य हैं। 1
भावार्थ
यहाँ 'चौंसठ चँवर और चौंतीस अतिशय सहित विशेषण से तो तीर्थंकर का प्रभुत्व बताया है और 'प्राणियों के हितकारी तथा कर्म क्षय के कारण' विशेषण से दूसरे का उपकारकरनहारापना बताया है- इन दोनों ही कारणों से वे जगत में वंदने- पूजने योग्य हैं इसलिए ऐसा भ्रम न करना कि तीर्थंकर कैसे पूज्य हैं ! वे तीर्थंकर तो सर्वज्ञ वीतराग हैं, उनकी समवशरणादि विभूति रचकर इन्द्रादि भक्तजन महिमा, भक्ति करते हैं, उन्हें कुछ प्रयोजन नहीं है, वे स्वयं तो जैसा दिगम्बर रूप है उसको धारण किए हुए अंतरिक्ष (अधर - आकाश) में तिष्ठते हैं । । २९ ।।
उत्थानिका
आगे मोक्ष किससे होता है सो कहते है :
णाणेण दंसणेण य तवेण चरिएण संजमगुणेण ।
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चउहिं पि समाजोगे मोक्खो जिणसासणे दिट्ठो ।। ३० ।।
जो ज्ञान-दर्शन-चरित -तप, इन चारों के ही योग पर ।
संयम का गुण होवे यदि, हो मुक्ति जिनशासन विषै । । ३० ।।
अर्थ
ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र - इन चारों का समायोग होने पर जो संयम गुण
होता है उससे जिनशासन में मोक्ष होना कहा है । । ३० ।।
उत्थानिका
आगे इन ज्ञान आदि के उत्तरोत्तर सारपना कहते हैं :
१-४३
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