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अष्ट पाहुड़ata
स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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इस प्रकार निश्चय-व्यवहारनय से साधा हुआ जिनमत में धर्म कहा जाता है सो एकस्वरूप तथा अनेकस्वरूप कहने में स्याद्वाद से विरोध नहीं आता, कथंचित विवक्षा से सब प्रमाणसिद्ध है।
दर्शन का प्ररूपण-इस प्रकार धर्म का मूल दर्शन कहा सो ऐसे धर्म का श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि सहित आचरण करना ही दर्शन है-यह धर्म की मूर्ति है, इसी को मत कहते हैं सो यह ही धर्म का मूल है तथा जैसे व क्ष के मूल बिना स्कंधादि नहीं होते वैसे ही ऐसे धर्म की पहले श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि न हो तो धर्म का आचरण भी नहीं होता सो दर्शन को धर्म का मूल कहना युक्त है।। ऐसे दर्शन का सिद्धान्त में जैसा वर्णन है उसमें से कुछ लिखते हैं :
दर्शन का अन्तरंग स्वरूप-अन्तरंग सम्यग्दर्शन है सो तो जीव का भाव है, वह निश्चय से उपाधि से रहित शुद्ध जीव का साक्षात् अनुभव होना-ऐसे एक प्रकार का है सो ऐसा अनुभव अनादिकाल से मिथ्यादर्शन नामक कर्म के उदय से अन्यथा हो रहा है। __ दर्शन की घातक कर्म प्रकृतियाँ-इस मिथ्यात्व की सादि मिथ्याद ष्टि जीव के ये तीन प्रकृतियाँ सत्ता में होती हैं-१. मिथ्यात्व, २. सम्यग्मिथ्यात्व एवं ३. सम्यक् प्रकृति और इनकी सहकारिणी अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया एवं लोभ के भेद से चार कषाय नामक प्रकृतियाँ हैं-ऐसी ये सात प्रकृतियाँ सम्यग्दर्शन का घात करने वाली हैं सो इन सातों का उपशम होने पर पहले तो इस जीव के उपशम सम्यक्त्व होता है।
कर्म प्रकृतियों के उपशम होने के बाह्य कारण-इन कर्म प्रकृतियों के उपशम होने के बाह्य कारण ये हैं :
सामान्य कारण-सामान्य से तो १. द्रव्य, २. क्षेत्र, ३. काल एवं ४. भाव हैं। उनमें प्रधान १. द्रव्य में तो साक्षात् तीर्थंकरादि का देखना आदि है, २. क्षेत्र में प्रधान समवशरणादि हैं, ३. काल में अर्द्ध पुद्गल परावर्तन संसार का भ्रमण शेष रह जाए सो है तथा ४. भाव में अधःप्रव त्तकरण आदि हैं।
विशेष कारण वे बाह्य कारण विशेष से अनेक हैं। उनमें से १. कुछ के तो अरहंत के बिम्ब का देखना है, २. कुछ के जिनेन्द्र के कल्याणक आदि की महिमा
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