Book Title: Astapahud
Author(s): Jaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
Publisher: Shailendra Piyushi Jain

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Page 17
________________ D अष्ट पाहुड़ata स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द Door TOVAVALYAN CAMWAMI :DON SEOCE OCE Loact Dod BAVAMANAS 器听听听听听听繼听器听器听听听听听听听听听業 (१) वस्तुस्वभाव कहने से तो जीव नामक वस्तु का परमार्थ रूप दर्शन ज्ञान परिणाममयी चेतना है सो यह चेतना सब विकारों से रहितृशुद्ध स्वभाव रूप परिणमित हो वह ही इसका धर्म है। (२) उत्तम क्षमादि दस प्रकार कहने से क्रोधादि कषाय रूप आत्मा न हो और वह अपने स्वभाव में ही स्थिर रहे वह ही धर्म है सो यह भी शुद्ध चेतना रूप ही हुआ। (३) दर्शन-ज्ञान-चारित्र कहने से तीनों एक ज्ञान चेतना ही के परिणाम हैं सो ही ज्ञानस्वभाव रूप धर्म है। (४) जीवों की रक्षा कहने से जीव के अपने तथा पर के क्रोधादि कषायों के वश से पर्याय का विनाश रूप मरण तथा दुःख संक्लेश परिणाम न करना-ऐसा अपना भाव वह ही धर्म है। इस प्रकार शुद्ध द्रव्यार्थिक रूप निश्चयनय से साधा हुआ धर्म एक ही प्रकार है। व्यवहारनय से धर्म की प्ररूपणा-व्यवहार की ये दो परिभाषाएँ हैं-१. प्रयोजन के वश से एकदेश को सर्वदेश कहना सो व्यवहार है तथा २. अन्य वस्तु में अन्य का आरोपण निमित्त तथा प्रयोजन के वश से करना भी व्यवहार है। व्यवहारनय है सो पर्यायाश्रित है इसलिए भेद रूप है सो इससे विचार करें तो जीव के पर्याय रूप परिणाम क्योंकि अनेक प्रकार के हैं इसलिए धर्म का भी निम्न रूप से अनेक प्रकार से वर्णन किया है : (१) वस्तुस्वभाव कहने में तो जो निर्विकार चेतना के शुद्ध परिणाम के साधक रूप मंदकषाय रूप शुभ परिणाम हैं तथा बाह्य क्रियाएँ हैं वे सब ही व्यवहार धर्म नाम से कही जाती हैं। (२)उत्तम क्षमादि कहने में जो उत्तम क्षमादि रूप मंद कषाय हैं तथा उनकी साधक बाह्य क्रियादि हैं वे सब ही व्यवहार धर्म नाम से कही जाती हैं। (३) रत्नत्रय कहने में स्वरूप के भेद दर्शन-ज्ञान-चारित्र तथा उनके कारण बाह्य क्रियादि-वे सब ही व्यवहार धर्म हैं। __(४) जीवों की दया कहने में क्रोधादि कषाय मंद होने से अपने वा दूसरे के मरण एवं दुःख-क्लेश आदि न करना तथा उसके साधक ब्राह्य क्रियादि-वे सब ही धर्म हैं। 崇先养养出勇兼崇崇崇崇崇勇攀事業事業事業事業樂 १-६ 崇明崇明藥業樂業、 業樂業業樂業崇勇

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