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आचार्य कुन्दकुन्द
● अष्ट पाहुड़
Mea स्वामी विरचित
रूप क्रिया-ऐसे श्रद्धानादि होना सो सम्यक्त्व का बाह्य चिन्ह है ।
(३) अन्य बाह्य चिन्ह प्रशमादि चार-प्रशम, संवेग, अनुकम्पा एवं आस्तिक्य-ये निम्नलिखित भी सम्यक्त्व के बाह्य चिन्ह हैं :
१. प्रशम–अनंतानुबंधी क्रोधादि कषाय के उदय का अभाव सो प्रशम है। उसके बाह्य चिन्ह इस प्रकार हैं - १. सर्वथा एकांत तत्त्वार्थ के कहने वाले अन्य मतों का श्रद्धान करना,बाह्य वेष में सत्यार्थपने का अभिमान करना तथा पर्यायों में एकान्त से आत्मबुद्धि करके अभिमान तथा प्रीति करनी - ये अनतानुबंधी के कार्य हैं सो ये जिसके न हों, २. अपना किसी ने बुरा किया उसका घात करना आदि मिथ्याद ट के समान विकार रूप बुद्धि अपने उत्पन्न न हो, ऐसे विचार की बुद्धि अपने को उत्पन्न हो कि 'मेरा बुरा करने वाला तो अपने परिणाम से जो मैंने कर्म बांधा था वह है, अन्य तो निमित मात्र हैं' - ऐसी मंद कषाय हो और ३. अनंतानुबंधी के बिना अन्य चारित्र मोह की प्रकृतियों के उदय से आरम्भादि क्रिया में जो हिंसादि होती है उसको भी भला नहीं जानता इसलिए उससे प्रशम का अभाव नहीं कहा जाता।
२. संवेग-धर्म में और धर्म के फल में परम उत्साह हो वह संवेग है तथा साधर्मियों में अनुराग और परमेष्ठियों में प्रीति वह भी संवेग ही है। इस धर्म तथा धर्म के फल में अनुराग को अभिलाष न कहना क्योंकि अभिलाष तो जो इन्द्रियों के विषयों में चाह हो उसको कहते हैं, अपने स्वरूप की प्राप्ति में अनुराग को अभिलाष नहीं कहते। 2 इस संवेग ही में निर्वेद भी हुआ जानना क्योंकि अपने स्वरूप रूप धर्म की प्राप्ति में अनुराग हुआ तब अन्य सब ही अभिलाषाओं का त्याग हुआ और सारे परद्रव्यों से वैराग्य हुआ वह भी निर्वेद है ।
टि०- 1. पर्यायों में एकांत से आत्मबुद्धि करि' का अर्थ है 'पर्यायमूढ़ता' अर्थात् द्रव्यस्वभाव को न जानकर पर्यायमात्र अपने को मानना जबकि वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक होती है। पर्याय में एकान्त से आत्मबुद्धि तब होती है जब द्रव्यद ष्टि के विषय का श्रद्धान नहीं होता और वह श्रद्धान हो जाने पर पर्यायमूढ़ता मिटकर द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु का श्रद्धान हो जाता है ।
2. यह बिन्दु अपनी द ष्टि में हमें रखना चाहिए कि 'इन्द्रियों के विषयों की अभिलाषा ही अभिलाष कहलाती है, धर्मानुराग नहीं । धर्मानुराग तो समकिती का संवेग गुण है, दोष नहीं । ' 卐業
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