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आचार्य कुन्दकुन्द
● अष्ट पाहुड़
Mea स्वामी विरचित
३. अनुकंपा - सब प्राणियों में उपकार की बुद्धि तथा मैत्रीभाव सो अनुकंपा है तथा उसके माध्यस्थ्य भाव होता है क्योंकि सम्यग्द ष्टि के शल्य नहीं है, उसे किसी से वैरभाव नहीं होता, सुख-दुःख और मरण - जीवन का होना वह अपना पर के द्वारा और पर का अपने द्वारा श्रद्धान नहीं करता तथा जो यह पर में अनुकंपा है सो अपने में ही अनुकंपा है क्योंकि यदि पर का बुरा करना विचारे तो अपने कषाय भाव से अपना ही बुरा हुआ और पर का बुरा न विचारे तो अपने कषाय भाव नहीं हुए तब अपनी अनुकंपा हुई ।
४. आस्तिक्य-जीव आदि पदार्थों में अस्तित्व भाव वह आस्तिक्य है सो जीव आदि का स्वरूप सर्वज्ञ के आगम से जानकर उनमें ऐसी बुद्धि हो कि 'ये जैसे सर्वज्ञ ने कहे वैसे ही हैं अन्यथा नहीं हैं - ऐसा आस्तिक्य भाव होता है।
सम्यक्त्व के आठ गुण - सम्यक्त्व के ये आठ गुण भी कहे हैं - १. संवेग, २.निर्वेद, ३.निन्दा, ४. गर्हा, ५. उपशम, ६. भक्ति, ७. वात्सल्य और ८ . अनुकंपा । ये आठ प्रशमादि चार ही में आ आ जाते हैं। संवेग में तो निर्वेद, वात्सल्य और भक्ति तथा प्रशम में निन्दा एवं गर्हा आ जाती है।
सम्यग्दर्शन के आठ अंग- सम्यग्दर्शन के आठ अंग कहे गए हैं जिन्हें लक्षण भी कहते हैं और गुण भी कहते हैं। उनके नाम ये हैं- १. निःशंकित, २. निःकांक्षित, ३. निर्विचिकित्सा, ४. अमूढ़द ष्टि, ५. उपबं हण, ६. स्थितिकरण, ७. वात्सल्य एवं ८ प्रभावना । इनका विवरण निम्न प्रकार है
(१) निःशंकित अंग - शंका नाम संशय का भी है और भय का भी है सो १.'धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालाणु द्रव्य एवं पुद्गल परमाणु इत्यादि तो सूक्ष्म वस्तु २. द्वीप समुद्र एवं मेरु पर्वत आदि दूरवर्ती पदार्थ हैं तथा ३. तीर्थंकर और चक्रवर्ती आदि अंतरित पदार्थ हैं ये सर्वज्ञ के आगम में जैसे कहे हैं वैसे हैं कि नहीं हैं अथवा सर्वज्ञदेव ने वस्तु का स्वरूप अनेकान्तात्मक कहा है सो सत्य है कि असत्य है'-इस प्रकार संदेह करना सो शंका कहलाती है और यह न हो तो उसको निःशंकित अंग कहते हैं। यह जो शंका होती है वह मिथ्यात्व कर्म के उदय से होती है जिसका पर में आत्मबुद्धि होना कार्य है सो यह जो पर में आत्मबुद्धि है वह पर्यायबुद्धि है जो भय भी उत्पन्न करती है ।
शंका नाम भय का भी है जिसके ये सात भेद हैं- १. इसलोक का भय, 卐糕糕卐
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