Book Title: Astapahud
Author(s): Jaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
Publisher: Shailendra Piyushi Jain

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Page 20
________________ 卐卐業卐業卐業卐業 आचार्य कुन्दकुन्द ● अष्ट पाहुड़ ज्ञान में जो रागादि विकार हैं वे कर्म के निमित्त से उत्पन्न हुए हैं, वे मेरा रूप नहीं है'-इस प्रकार भेदज्ञान से ज्ञान मात्र के आस्वादन को ज्ञान की अनुभूति कहते हैं, यह ही आत्मा की अनुभूति है, शुद्ध नय का यह ही विषय है। ऐसी अनुभूति से शुद्ध नय के द्वारा ऐसा भी श्रद्धान होता है कि 'सर्व कर्मजनित रागादि भावों से रहित अनंतचतुष्टय मेरा रूप है, अन्य सब भाव संयोगजनित हैं- ऐसी आत्मा की अनुभूति सो सम्यक्त्व का मुख्य चिन्ह है। यह मिथ्यात्व एवं अनंतानुबंधी के अभाव से जो सम्यक्त्व होता है उसका चिन्ह है सो चिन्ह को ही सम्यक्त्व कहना यह व्यवहार है। Mea स्वामी विरचित इस चिन्ह की परीक्षा - इसकी परीक्षा सर्वज्ञ के आगम से तथा अनुमान से तथा स्वानुभव प्रत्यक्ष से इन प्रमाणों से की जाती है तथा इसी को निश्चय तत्त्वार्थ श्रद्धान भी कहते हैं सो आपके तो अपनी परीक्षा स्वसंवेदन को प्रधान करके होती है और पर के पर की परीक्षा पर के वचन एवं काय की क्रिया की परीक्षा से अंतरंग में हु की परीक्षा होती है - यह व्यवहार है, परमार्थ सर्वज्ञ जानते हैं । व्यवहारी जीव को सर्वज्ञ ने भी व्यवहार ही की शरण का उपदेश दिया है । प्रश्न- कुछ लोग कहते हैं कि सम्यक्त्व तो केवलीगम्य ही है इसलिए अपने को सम्यक्त्व हुए का निश्चय नहीं हो सकता अतः स्वयं को सम्यग्द ष्टि नहीं मानना ? उत्तर- ऐसा सर्वथा एकान्त से कहना तो झूठी दष्टि है, सर्वथा ऐसा कहने से व्यवहार का लोप होता है तथा मुनि श्रावक की सारी प्रवत्ति मिथ्यात्व सहित ठहरती है और यदि सब ही स्वयं को मिथ्याद ष्टि मानें तब व्यवहार क्या रहा इसलिए परीक्षा होने के बाद ऐसा श्रद्धान नहीं रखना कि 'मैं मिथ्याद ष्टि ही हूँ ।' मिथ्याद ष्टि तो अन्यमती को कहते हैं तब उसके समान आप भी ठहरे इसलिए सर्वथा एकान्त पक्ष ग्रहण नहीं करना । 【卐卐卐 (२) बाह्य चिन्ह तत्त्वार्थ श्रद्धान-तत्त्वार्थ का श्रद्धान है सो बाह्य चिन्ह है । वहाँ तत्त्वार्थ तो जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा एवं मोक्ष - ऐसे सात हैं तथा इनमें पुण्य-पाप का विशेष करें तब नौ पदार्थ होते हैं सो इनकी १. श्रद्धा अर्थात् इनके सन्मुख बुद्धि, २. रुचि अर्थात् इन रूप अपना भाव करना, ३ . प्रतीति अर्थात् 'जैसे ये सर्वज्ञ ने भाषे हैं वैसे ही हैं' ऐसा अंगीकार करना तथा ४. इनका आचरण 卐糕糕卐 १-१२ 卐糕蛋糕蛋糕糕

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