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अष्ट पाहुड़ata
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स्वामी विरचित
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आचार्य कुन्दकुन्द
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२. परलोक का भय, ३. मरण का भय ,४. वेदना का भय, ५. अनरक्षा का भय, ६. अगुप्ति भय एवं ७. अकस्मात भय। किसी के ये भय हों तो जानना कि इसके मिथ्यात्व कर्म का उदय है क्योंकि सम्यग्द ष्टि होने पर ये भय नहीं होते।
शंका-भय प्रकृति का उदय तो आठवें गुणस्थान तक है और उसके निमित्त से सम्यग्द ष्टि के भय होता ही है फिर भय का अभाव कैसे कहा ?
समाधान यद्यपि सम्यग्द ष्टि के चारित्रमोह के भेद रूप भय प्रकृति के उदय से भय होता है तथापि उसे निर्भय ही कहते हैं क्योंकि उसके कर्म के उदय का स्वामित्व नहीं है। परद्रव्य से वह अपने द्रव्यत्वभाव का नाश नहीं मानता और पर्याय का स्वभाव विनाशीक ही मानता है इसलिए भय होने पर भी उसे निर्भय ही कहते हैं। भय होने पर जो उसका इलाज भागना इत्यादि वह करता है सो वर्तमान की पीड़ा नहीं सही जाती इसलिए करता है सो यह निर्बलता का दोष है। इस प्रकार संदेह और भय रहित सम्यग्द ष्टि होता है अतः उसके निःशंकित अंग होता है।
(२) निःकांक्षित अंग-कांक्षा नाम भोगों की अभिलाष का है सो १. पूर्व में किए भोगों की वांछा, २. उन भोगों की मुख्य क्रिया में वांछा, ३. कर्म और कर्म के फल में वांछा ४. मिथ्याद ष्टियों के भोगों की प्राप्ति देखकर उन्हें अपने मन में भला जानना अथवा ५. जो इन्द्रियों को न रुचें ऐसे विषयों में उद्वेग होना-ये भोगाभिलाष के चिन्ह हैं। यह भोगाभिलाष मिथ्यात्व कर्म के उदय से होती है और यह जिसके न हो वह निःकांक्षित अंगयुक्त सम्यग्द ष्टि होता है। यह सम्यग्द ष्टि यद्यपि शुभ क्रिया व व्रतादि का आचरण करता है परन्तु उसका फल जो शुभ कर्म का बंध है उसकी यह वांछा नहीं करता, व्रतादि को स्वरूप के साधक जानकर तो उनका वह आचरण करता है परन्तु कर्म के फल की उसे वांछा नहीं होती-इस प्रकार वह निःकांक्षित अंगयुक्त होता है।
(३) निर्विचिकित्सा अंग–अपने में अपने गुण की महानता की बुद्धि से अपने को श्रेष्ठ मानकर पर में हीनता की बुद्धि हो उसे विचिकित्सा कहते हैं, यह जिसके नहीं होती वह निर्विचिकित्सा अंगयुक्त सम्यग्द ष्टि होता है। इसके चिन्ह ऐसे हैं-यदि कोई पुरुष पाप के उदय से दुःखी हो, असाता के उदय से ग्लानियुक्त शरीर वाला हो तो उसमें ग्लानिबुद्धि न करे। ऐसी बुद्धि न करे कि 'मैं संपदावान हूँ, सुन्दर शरीरवान हूँ, यह दीन रंक मेरे बराबर नहीं है-उल्टा ऐसा विचारे कि प्राणियों के
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