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अष्ट पाहुड़sta
स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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सम्यक्त्व सहित ज्ञान-दर्शन के अपने वीर्य अर्थात् शक्ति से वर्द्धमान होते हुए प्रवर्तते हैं वे अल्प ही काल में केवलज्ञानी होकर मोक्ष को पाते हैं।।६।।
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आगे कहते हैं कि 'सम्यक्त्व रूपी जल का प्रवाह आत्मा के कर्म रज नहीं लगने
देता' :सम्मत्तसलिलपवहो णिच्चं हियए पवट्टए जस्स। कम्म बालुयवरणं बंधुच्चिय णासए तस्स।।७।।
सम्यक्त्व सलिल प्रवाह जिसके, हृदय में नित ही बहे। जो कर्म रज का आवरण, पूर्वे लगा वह नष्ट हो ।। ७ ।।
अर्थ जिस पुरुष के हृदय में सम्यक्त्व रूपी जल का प्रवाह निरन्तर प्रवर्तता है उस पुरुष के कर्म रूपी बालू रज का आवरण नहीं लगता है तथा उसके पूर्व में लगा हुआ कर्म का बंध भी नाश को प्राप्त हो जाता है।
भावार्थ सम्यक्त्व सहित पुरुष के कर्म के उदय से हुए जो रागादि भाव उनका स्वामित्व नहीं है इसलिए कषायों की तीव्र कलुषता से रहित उसके परिणाम उज्ज्वल होते हैं जिन्हें जल की उपमा है। जैसे जहाँ जल का प्रवाह निरन्तर
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टि0-1. श्रु० टी०' में इस गाथा की टीका इस प्रकार की है कि संसार रूपी संताप का निवारक और
पापमल रूपी कलंक का प्रक्षालक सम्यक्त्व रूपी निर्मल, शीतल, सुगन्धित और सुस्वादु सलिल जिस मनुष्य के हृदय में जलपूर के समान सतत प्रवाहित रहता है उसका हिंसादि पाँच पापों से उत्पन्न कर्म रूपी बालू का बाँध चिरकाल से निबद्ध होने पर भी नष्ट हो जाता है और जिस प्रकार कोरे घड़े पर स्थित धूलि बंधन को प्राप्त नहीं होती उसी प्रकार सम्यग्द ष्टि जीव के लगा हुआ पापकर्म भी बंध को प्राप्त नहीं होता।'
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