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अष्ट पाहुड़sta
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स्वामी विरचित
आचाय कुन्दकुन्द
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है सो प्राकृत में अव्यय है जिसका अर्थ वाक्य का अलंकार है।
भावार्थ सम्यक्त्व के बिना यदि हजार करोड़ वर्ष पर्यन्त तप करे तो भी मोक्षमार्ग की प्राप्ति नहीं होती। यहाँ हजार करोड़ कहने से इतने ही वर्ष नहीं जानना, इससे काल का बहुतपना बताया है। तप मनुष्य पर्याय ही में होता है और मनुष्य पर्याय का काल भी थोड़ा है अतः इतने वर्ष तप कहने से यह भी काल बहुत ही समझना' ।।५।।
| उत्थानिका
EC उत्थानिका
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आगे पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्व के बिना चारित्र एवं तप निष्फल कहे, अब
सम्यक्त्व सहित सारी ही प्रव त्ति सफल है-ऐसा कहते हैं :सम्मत्त णाण दंसण बल वीरियवड्ढमाण जे सव्वे। कलिकलुसपावरहिया वरणाणी होति अइरेण।। ६।।
जो व द्धि करते ज्ञान-दर्शन, वीर्य-बल सम्यक्त्वयुत। कलि कलुष पाप रहित सभी, वे शीघ्र केवलज्ञानी हों।। ६ ।।
अर्थ जो पुरुष सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, बल और वीर्य से वर्द्धमान हैं और 'कलिकलुषपाप' अर्थात इस पंचम काल के मलिन पाप से रहित हैं वे सभी थोड़े ही काल में 'वरज्ञानी' अर्थात् केवलज्ञानी होते हैं।
भावार्थ इस पंचम काल में जड़, वक्र जीवों के निमित्त से यथार्थ मार्ग स्खलित हआ है उसकी वासना से रहित हुए जो जीव यथार्थ जिनमार्ग के श्रद्धान रूप
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टि०-1. इस अन्तिम पंक्ति का अर्थ यह है कि तप मनुष्य पर्याय ही में होता है और मनुष्य पर्याय का
काल थोड़ा है अत: इतने वर्ष तप कहने से यह भी काल बहुत ही समझना।
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