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अष्ट पाहुड़sta
स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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आगे कहते हैं कि 'जो श्रद्धान करता है उसी के सम्यक्त्व होता है' :
जं सक्कइ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सद्दहणं। केवलिजिणेहिं भणियं सद्दहमाणस्स सम्मत्तं ।। २२।।
जो कर सको उसको करो, न कर सको श्रद्धा करो। श्रद्धान करने वाले के सम्यक्त्व ! केवलि जिन कहा ।।२२।।
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अर्थ जितना करने की सामर्थ्य हो वह तो करे तथा जो करने की सामर्थ्य न हो उसका श्रद्धान करे क्योंकि केवली भगवान ने श्रद्वान करने वाले के सम्यक्त्व कहा है।
भावार्थ यहाँ आशय ऐसा है कि यदि कोई कहे कि सम्यक्त्व होने पर तो सब परद्रव्य संसार को हेय जाना जाता है सो जिसको हेय जाने उसको छोड़े और मुनि होकर चारित्र का आचरण करे तब सम्यक्त्व हुआ जाना जाए ?
उसके समाधान रूप यह गाथा है कि सब परद्रव्य को हेय जानकर निजस्वरूप को उपादेय जाना और उसका श्रद्धान किया तब मिथ्या भाव तो मिटा परन्तु चारित्रमोह कर्म का यदि उदय प्रबल हो तो जब तक चारित्र अंगीकार करने की सामर्थ्य न हो तब तक जितनी सामर्थ्य हो उतना तो करे और उससे अतिरिक्त का श्रद्धान करे-इस प्रकार श्रद्धान करने वाले ही के भगवान ने सम्यक्त्व कहा है।२२।।
| उत्थानिका
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आगे कहते हैं कि 'ऐसे दर्शन, ज्ञान और चारित्र में जो स्थित हैं वे वंदन करने
योग्य हैं :
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