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आचार्य कुन्दकुन्द
● अष्ट पाहुड़
दुविहं पि गंथचायं तीसु वि जोएसु संयमो णाम करणसुद्धे उब्भसणे दंसणं
ठादि । होइ ।। १४।।
दोविध परिग्रह त्याग, थित भोजन, हो संयम योग में । औ करण शुद्धि ज्ञान में, मूर्तिमंत दर्शन होय है । । १४ । ।
अर्थ
जहाँ बाह्य अभ्यंतर के भेद से दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग हो और मन-वचन-काय इन तीनों योगों में संयम स्थित हो तथा कृत, कारित, अनुमोदना-ये तीन करण जिसमें शुद्ध हैं ऐसा ज्ञान हो तथा खड़े होकर हस्त रूपी पात्र में, जिसमें अपनी कृत-कारित - अनुमोदना न लगे ऐसा निर्दोष आहार करे- ऐसा मूर्तिमंत दर्शन होता है ।
Mea स्वामी विरचित
भावार्थ
यहाँ दर्शन नाम मत का है । वहाँ बाह्य वेष शुद्ध दिखाई दे सो दर्शन है और वह ही उसके अंतरंग भाव का ज्ञान कराता है सो (१) बाह्य परिग्रह तो धन-धान्यादि और अन्तरंग परिग्रह मिथ्यात्व एवं कषाय जहाँ न हों - यथाजात दिगम्बर मूर्ति हो तथा (२) इन्द्रिय- मन को वश में करना और त्रस - स्थावर जीवों की दया करनी-ऐसे संयम का मन-वचन-काय से शुद्ध पालन जहाँ हो और (३) विकार का करना, कराना और अनुमोदन - ऐसे तीन करणों से ज्ञान में विकार न हो और (४) पाणिपात्र में खड़े रहकर निर्दोष भोजन करना जिसमें हो-ऐसे दर्शन की मूर्ति है सो जिनदेव का मत है, वह ही वंदन-पूजन के योग्य है, अन्य वेष वंदन - पूजन के योग्य नहीं हैं । । १४ । ।
उत्थानिका
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आगे कहते हैं कि 'इस सम्यग्दर्शन से ही कल्याण - अकल्याण का निश्चय होता है:
सम्मत्तादो णाणं णाणादो सव्वभावउवलद्धी ।
उवलद्वपयत्थे पुण
सेयासेयं वियाणेदि ।। १५ ।।
१-३१
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