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आचार्य कुन्दकुन्द
● अष्टपाहुड़
Mea स्वामी विरचित
(८) प्रभावना अंग - धर्म का उद्योत करना सो प्रभावना अंग है सो रत्नत्रय से अपनी आत्मा का उद्योत करना और दान, तप, जिनपूजा, विद्या, अतिशय एवं चमत्कार आदि के द्वारा जिनधर्म का उद्योत करना - ऐसे प्रभावना अंग होता है
इस प्रकार ये सम्यक्त्व के आठ अंग हैं। जिसके ये प्रकट हों उसके जानना कि सम्यक्त्व है ।
शंका- जो ये सम्यक्त्व के चिन्ह कहे सो वैसे ही यदि मिथ्याद ष्टि के भी दिखाई दें तो सम्यक - मिथ्या का विभाग कैसे हो ?
समाधान-जैसे ये चिन्ह सम्यग्द ष्टि के होते हैं वैसे तो मिथ्याद ष्टि के नहीं होते फिर भी यदि अपरीक्षक को समान दिखाई दें तो परीक्षा करने पर भेद जाना जाता है तथा परीक्षा में अपना स्वानुभव प्रधान होता है । सर्वज्ञ के आगम में जैसा आत्मा का अनुभव होना कहा है वैसा स्वयं को हो तब उसके होने पर अपनी वचन - काय की प्रवत्ति भी तदनुसार होती है तब उस प्रवत्ति के अनुसार अन्य की भी वचन-काय की प्रवत्ति पहचानी जाती है - इस प्रकार परीक्षा करने से विभाग होता है तथा यह व्यवहार मार्ग है सो व्यवहारी छद्मस्थ जीवों की अपने ज्ञान के अनुसार प्रवत्ति है, यथार्थ सर्वज्ञदेव जानते हैं । व्यवहारी को सर्वज्ञदेव ने व्यवहार ही का आश्रय बताया है।
यह जो अन्तरंग सम्यक्त्वभाव रूप सम्यक्त्व है सो ही सम्यग्दर्शन है तथा बाह्य दर्शन व्रत, समिति एवं गुप्ति रूप चारित्र और तप सहित अट्ठाईस मूलगुण युक्त नग्न दिगम्बर मुद्रा इसकी मूर्ति है उसको जिनदर्शन कहते हैं - यह सम्यक्त्व सहित दर्शन जिनमत है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन को धर्म का मूल जानकर जो सम्यग्दर्शन रहित हैं उनके वदंन-पूजन का निषेध किया है सो भव्य जीवों को यह उपदेश अंगीकार करने योग्य है । । २ ।।
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उत्थानिका
आगे अन्तरंग सम्यग्दर्शन के बिना बाह्य चारित्र से निर्वाण नहीं होता- ऐसा कहते हैं :
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