Book Title: Astapahud
Author(s): Jaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
Publisher: Shailendra Piyushi Jain

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Page 15
________________ अष्ट पाहुड़sta स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द TOVAVALYAN CAMWAVAH wrol. 1000 WV WI WAS Des/ -Deol. HDod मध्य के तीर्थंकरों को नमस्कार सामर्थ्य से जानना। तीर्थंकर सर्वज्ञ वीतराग को तो 'परगुरु' कहते हैं और उनकी परिपाटी में जो अन्य गौतमादि मुनि हुए जिनके नाम का 'जिनवरव षभ' इस विशेषण से बोध कराया उनको 'अपरगुरु' कहते हैं-इस प्रकार परापर गुरु का प्रवाह जानना। वे शास्त्र की उत्पत्ति तथा ज्ञान में कारण हैं सो उनको ग्रंथ की आदि में नमस्कार करना युक्त है। 崇崇养崇崇崇崇崇崇崇明藥藥事業業帶男崇勇勇崇 आगे धर्म का मूल दर्शन है इसलिए जो दर्शन से रहित हो उसकी वंदना नहीं करना-ऐसा कहते हैं :दंसणमूलो धम्मो उवइट्ठो जिणवरेहिं सिस्साणं। तं सोऊण सकण्णे दंसणहीणो ण वंदिव्वो।।२।। दर्शन ही मूल है धर्म का, शिष्यों को जिनवर ने कहा। सुनकर उसे निज कर्ण से, द ग्हीन को नहीं वंदना ।। २।। अर्थ जिनवर सर्वज्ञदेव ने गणधर आदि शिष्यों को धर्म का उपदेश दिया है। सो कैसे धर्म का उपदेश दिया है कि 'दर्शन है मूल जिसका' ऐसे धर्म का उपदेश दिया है। सो मूल किसे कहते हैं-जैसे मन्दिर के नींव अथवा वक्ष के जड़ होती है वैसे धर्म का मूल दर्शन है इसलिए आचार्य उपदेश करते हैं कि 'हे सकर्णा अर्थात् पंडित सत्पुरूषों ! उन सर्वज्ञ के द्वारा कहे हुए दर्शन मूल रूप धर्म को तुम अपने कानों से सुनकर दर्शनहीन की वंदना मत करो क्योंकि जो दर्शन से रहित है वह तुम्हारे 崇先养养崇崇崇崇崇明崇勇兼劣藥藥勇勇攀事業第养帶男 टि0-1. अहो सम्यक्त्व की महिमा कि अविरत सम्यग्द ष्टि जीव भी 'जिन' संज्ञा को प्राप्त है। जो जीते सो जिन' सो इसने किसको जीता ? अनादि काल से आत्मा के साथ लगे हुए अत्यन्त प्रबल वैरी मिथ्यात्व व अनन्तानुबंधी कषाय को जीता। 崇明崇明藥業樂業、 戀戀戀崇明藥業或業 Pram

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