Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 6
________________ प्रकाशकीय सम्प्रति जैन विद्या के मूर्धन्य मनीषियों में पं० दलसुखभाई मालवणिया अग्रगण्य हैं। वर्तमान युग में उनके समकक्ष जैन आगम तथा जैन दर्शन का दूसरा विद्वान् दृष्टिगत ही नहीं होता है । पं० दलसुख भाई निर्भीक, स्पष्ट विचारक हैं, वे सांप्रदायिक आग्रहों से ऊपर उठकर जो सत्य होता है उसे निःसंकोच भाव से कहने की हिम्मत रखते हैं। यही कारण है कि परम्परावादी उनकी विद्वत्ता को स्वीकार करते हुए भी उनसे कतराते हैं। उनके विचारों में स्पष्टता और सत्यान्वेषणशीलता के स्पष्ट दर्शन होते हैं। उनके व्यक्तित्व का दूसरा सबसे बड़ा गुण यह है कि वे निश्छल व्यक्तित्व के धनी हैं। गृहस्थ होते हुए भी उनका जीवन साधुपुरुष के समान ही है । छल-छद्म और अहंकार उनको स्पर्श भी नहीं कर पाते हैं। कथनी और करनी की एकरूपता भी उनकी अपनी विशिष्टता है। धन का लोभ उन्हें बिल्कुल नहीं रहा। अपने जीवन के प्रारंभिक काल में भी उन्होंने जैन विद्या के अध्ययन का अवसर मिले, गुरु सेवा का अवसर मिले-यह सोचकर बम्बई की १५० २० प्रतिमाह की आय का परित्याग कर बनारस में पं० सुखलाल जी के समीप मात्र ३५ रु० प्रतिमाह की नौकरी को स्वीकार कर लिया। ऐसे अनेक अवसर आये जब आप आर्थिक उपलब्धियों की उपेक्षा कर दिये। पार्श्वनाथ विद्याश्रम की संचालक समिति ने उनके लिए १००० रु० प्रतिमाह मानदेय का निर्णय लिया । पं० जी ने समिति के उस प्रस्ताव को यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि विद्याश्रम मेरी अपनी संस्था है । क्या कोई व्यक्ति अपनी ही संस्था से कुछ स्वीकार कर सकता है ? विद्याश्रम के मार्गदर्शक के रूप में वे अनेक बार संस्थान में पधारे किन्तु कभी मार्ग-व्यय की अपेक्षा भी नहीं की। विद्वत्ता के साथ निर्भीकता, निरहंकारता और निस्पृहता का सुयोग दुर्लभ ही होता है किन्तु पं० जी के जीवन में उसे हम प्रतिदिन अनुभव कर सकते हैं। पं० दलसुखभाई मालवणियाजी पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के प्रारम्भ से ही जुड़े रहे इसके विकास में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। अपने द्वारा स्थापित और संचालित जैन संस्कृति संशोधन मण्डल का समस्त साहित्य, उसके प्रकाशन और उसकी समस्त सम्पत्ति को सहजभाव से विद्याश्रम को प्रदान कर दिया। इसी प्रकार पं० सुखलाल जी द्वारा स्थापित न्यास की, जिसके न्यासी आप भी हैं, सम्पूर्ण अवशिष्ट सम्पत्ति आपने विद्याश्रम को प्रदान कर दी। उनके इस महान् व्यक्तित्व से प्रेरित होकर ही पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान ने उनके राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित होने पर उनका अभिनन्दन किया। उसी अवसर पर उनके सम्मान में एक अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन की योजना बनाई गई और उस अभिनन्दन ग्रन्थ हेतु विद्वानों से लेख आमंत्रित किये गये। हमें यह सूचित करते हुए प्रसन्नता होती है कि विद्वानों ने पं० जी के व्यक्तित्व के प्रति अपनी अनन्य आस्था के कारण अपने-अपने लेख शीघ्र ही प्रेषित कर दिये। यद्यपि हमें लेख तत्काल ही प्राप्त हो गये किन्तु उन्हें सम्पादित कर मुद्रित करवाने में पर्याप्त विलम्ब हुआ। अंग्रेजी विभाग के हमारे संपादक जैन विद्या के लब्ध प्रतिष्ठ विद्वान् प्रो० मधुसूदन ढाकी ने अत्यन्त सतर्कता और प्रामणिकता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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