Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 10
________________ बोल रहे हों, और जब ओशो महावीर पर बोलते हैं तो लगता है महावीर बोल रहे हैं। लाओत्सू पर बोलें तो लाओत्सू और जब कृष्ण पर बोलें तो मानो गीता बोल रही हो और जब अष्टावक्र पर बोल रहे हों तो लगता है मानो महागीता बोल रही है। जहां जाकर कृष्ण पूर्ण होते हैं, अष्टावक्र वहीं से अपनी यात्रा आरंभ करते हैं। यह भी अदभुत संयोग की बात है कि गीता के गायक श्रीकृष्ण को ज्ञान देने वाले उज्जयिनी के महर्षि सांदीपनि वंश में उत्पन्न होकर भी न जाने क्यों मैं अब तक अष्टावक्र से दूर-दूर ही रहा और विगत दिनों जब नवरात्र प्रसंग पर ओशो के साथ मौन में लीन था— एक दिन अर्धरात्री में अचानक मैंने उस ऋषि को पहचान ही लिया जो मुझे विगत चौदह वर्षों से सोने नहीं दे रहा था। वे निःसंदेह ओशो थे. -अष्टावक्र थे। और अंततः एक दीर्घ लेखन के पश्चात मैं गहरी नींद सो पाया। सही मायने में कहा जाए तो अष्टावक्र इस विश्व के विश्वविद्यालय के अंतिम और आखिरी पाठ हैं। इससे ऊपर न कभी कोई पाठ दिया गया और न ही संभवतः दिया जायेगा। जिसने अष्टावक्र को समझ लिया — उसे समझने को शेष फिर कुछ रहता ही नहीं। और जिसने अष्टावक्र को अपने में रमा लिया वह तो ब्रह्म में ही रम गया। इस जीवन के बड़े संकटों में एक संकट है अधूरी अवस्था में समाधि या धर्म में रम जाना, जैसे कच्चे फल को तोड़ लेना । जब पक जाएगा फल तो अपने आप गिर जाएगा, और तब उसके गिरने में भी एक सौंदर्य होगा, लालित्य होगा, प्रसाद होगा । पके फल के गिरने पर वृक्ष को भी पंता नहीं चलता कि कब फल गिर गया और न भूमि को पता चलता कि कब फल गिर गया। तब न फल को चोट लगती न वृक्ष को, न जमीन को । संघर्ष से चुपचाप सहज भाव से अलग हो जाना ही समाधि है, पूर्णता है – “साधो सहज समाधि भली”। जो सहज हो जाए वही समाधि, जो प्रयास से हो वह समाधि नहीं । अब लगता है अष्टावक्र के लिये समय भी ठीक आ गया है। इस पृथ्वी पर अष्टावक्र को समझने का कोई मौसम है तो वह अब है, इन दिनों है। क्योंकि वस्तुतः पृथ्वी की सारी प्रतिभा अब विकसित हुई है, चांद को हमने अब ही छुआ है, परमाणु बम हमने अभी बनाया है, “मंगल” हम अब जा रहे हैं। मनुष्य ज्यादा समझदार, ज्यादा ज्ञानी, ज्यादा प्रौढ़ अब हुआ है। आज की जो सबसे बड़ी समस्या है, वह है ज्यादा विद्वता, ज्यादा प्रौढ़ता या ज्यादा ज्ञान। ओशो चेतावनी दे रहे हैं, “इस विद्वता के पार जाना, प्रौढ़ता के पार जाना।” अष्टावक्र की बात आज ज्यादा प्रासंगिक है, वर्तमान संसार आज पहले से ज्यादा टेढ़ा-मेढ़ा है, अष्टावक्र आज उतने टेढ़े-मेढ़े नहीं रहे । जितना आज संसार जटिल है, उतने अष्टावक्र आज जटिल नहीं रहे हैं, हालांकि इसमें भी एक क्रम है- अष्टावक्र को समझने के लिये, अष्टावक्रों को समझने के लिये, अष्टावक्र जैसा व्यक्ति चाहिये जो आज दुर्लभ है, असंभव सा है । अष्टावक्र को पाने के लिए, बचाने के लिये कृष्ण चाहिये, बुद्ध चाहिये, महावीर चाहिये, ओशो चाहिये, पर विरले हैं, कभी-कभी आते हैं— प्रश्न यही है । सब तो “ हजारों खिज्र पैदा कर चुकी है नस्ल आदम की यह सब तस्लीम लेकिन आदमी अब तक क्यूं भटकता है ?”

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