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दृष्टि ही सृष्टि है-प्रवचन-आठवां
दिनांक: 3 अक्टूबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम पूना।
सूत्रः
जनक उवाच।
मथ्यनन्तमहाम्मोधौ विश्वयोत इतस्ततः! भ्रमति स्वान्तवातेन न ममास्लसहिध्याता।। 74।। मय्यनन्तमहाम्मोधौ जगवीचि स्वभावतः। उदेत वास्तमायात न मे वृद्धिर्न न क्षतिः।। 7511 मय्यनन्तमहाम्मोधौ विश्व नाम विकल्पना। अतिशान्तो निराकार एतदेवाहमास्थितः।। 7611 नात्मा भावेष नो भावस्तत्रानन्ते निरंजने। इत्यसक्तोउसह: शान्त एतदेवाहमास्थिताः।। 7711 अहो चिन्यात्रमेवाह मिन्द्रजालोपमं जगत्। अतो मम कथं कुत्र हेयोपादेयकल्यना।। 78।।
सत्य को कहा नहीं जा सकता, इसीलिए बार-बार कहना पड़ता है। बार-बार कह कर भी पता चलता है कि फिर छूट गया। फिर छूट गया। जो कहना था, वह नहीं समा पाया शब्दों में।
अरब में एक कहावत है कि पूर्ण मनुष्य नहीं बनाया जा सकता। इसलिए परमात्मा रोज नये बच्चे पैदा करता जाता है। अभी भी कोशिश कर रहा है पूर्ण मनुष्य को बनाने की हारा नहीं, थका नहीं, हताश नहीं हुआ है।
ठीक वैसी ही स्थिति सत्य के संबंध में भी है। सनातन से बुद्धपुरुष कहने की चेष्टा करते रहे हैं। हजार-हजार ढंग से उस तरफ इशारा किया है, लेकिन फिर भी जो कहना था वह अनकहा रह गया है। उसे कहा ही नहीं जा सकता है। स्वभाव से ही शब्द में बंधने की कोई संभावना नहीं है। जैसे कोई मुट्ठी में आकाश को नहीं भर ले सकता।