Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 390
________________ कहता है, मैं तेरी रजा से राजी हूं-वह भी कहता है तू मुझसे अलग, मैं तुमसे अलग। और जब तक तुम अलग हो, तब तक तुम राजी हो कैसे सकते हो भू: भेद रहेगा। वह जो कहता है, मैं राजी नहीं हं-वह भी इतना ही कह रहा है कि मेरी मर्जी और है, तेरी मर्जी और है, मेल नहीं खाती। एक झक गया है। एक कहता है ठीक, मैं तेरी मर्जी को ओढ़े लेता हूं। लेकिन जब तक तुम हो, तब तक तुम्हारी मजा भी रहेगी। तुम दूसरे की ओढ़ भी लो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला। जो महासत्य है, वह कुछ और है। महासत्य तो यह है कि उसके अलावा हम हैं ही नहीं। हम ही हैं। हमारी मर्जी ही उसकी मर्जी है! उसकी मर्जी ही हमारी मर्जी है। यह तुम्हारे चाहने न चाहने की बात नहीं है। तुम राजी होओ कि नाराजी होओ, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारी राजी और नाराजगी दोनों बात की खबर देती हैं कि तुमने अभी भी जीवन के अद्वैत को नहीं देखा, तुम जीवन के द्वैत में अभी भी उलझे हो। तुम अपने को अलग परमात्मा को अलग मान रहे हो। यहां उपाय ही नहीं है-किसको 'ही' कहो, किसको 'ना' कहो पर एक सूफी फकीर परमात्मा से प्रार्थना करता था रोज, चालीस वर्षों तक, कि 'प्रभु तेरी मर्जी पूरी हो! तू जो चाहे, वही हो!' चालीसवें वर्ष, कहते हैं, प्रभु ने उसे दर्शन दिया और कहा, बहुत हो गया! चालीस साल से तू एक ही बकवास लगाए है कि जो तेरी मर्जी हो वही पूरी हो! एक दफा कह दिया, बात खत्म हो गई थी; अब यह चालीस साल से इसी बात को दोहराए जा रहा है! जरूर तू नाराज है। जरूर तू शिकायत कर रहा है-बड़े सज्जनोचित ढंग से, बड़े शिष्टाचारपूर्वक। लेकिन तू रोज मुझे याद दिला देता है कि ध्यान रखना, राजी तो मैं नहीं हूं। अब ठीक है, मजबूरी है। तुम्हारे हाथ में ताकत है और मैं तो निर्बल! अच्छा, तो राजी हूं, जो मर्जी! 'जो मर्जी' विवशता से उठ रहा है, जबर्दस्ती झुकाए जा रहे हैं! जैसे कोई जबर्दस्ती तुम्हारी गर्दन झुका दे और तुम कुछ भी न कर पाओ तो तुम कहो ठीक जो मर्जी! लेकिन तुमने परमात्मा को अन्य

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