Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 400
________________ ले लूं। अगर सामान्य जिंदगी में मौका न मिलेगा. कुछ को मिल जाता है; जैसे 'स्वभाव' कल या परसों अपना साधारण कपड़े पहने हुए यहां बैठे थे। तो स्वभाव को सपना नहीं आएगा यह बात पक्की है। सपने की कोई जरूरत नहीं है। वे बेईमानी जागने में ही कर जाते हैं, अब सपने की क्या जरूरत गुम जब धोखा जागने में ही दे देते हो तो फिर सपने का कोई सवाल नहीं रह जाता। स्वभाव को सपना नहीं आने वाला, मगर यह उनका दुर्भाग्य है। यह अजित का सौभाग्य है कि सपना आ रहा है। इससे एक बात पक्की है कि जागने में धोखा नहीं चल रहा हैं। तो सपने में छाया बन रही है। अब इस सपने की छाया के भी पार जाना है। इसके पार जाने का एक ही उपाय है. इसे स्वीकार कर लो। इसे सदभाव से स्वीकार कर लो कि संन्यास मैंने चुना था। इसे बोधपूर्वक अंगीकार कर लो कि संन्यास मैंने चुना था, पुराने कपड़ों से लड़ लड़ कर चुना था। तो पुराने कपड़ों के प्रति कहीं कोई दबी आसक्ति भीतर रह गई है; उसे स्वीकार कर लो कि वह आसक्ति थी और मैंने उसके विपरीत चुना था। उसको स्वीकार करते ही स्वप्नों से वह तिरोहित हो जाएगी। लेकिन उसके स्वीकार करते ही तुम एक नए आयाम में प्रविष्ट भी होगे। ये गैरिक वस्त्र गैरिक रहेंगे, लेकिन अब यह चुनाव जैसा न रहा, यह प्रसाद-रूप हो जाएगा। इस फर्क को समझ लेना। अगर तुमने संन्यास मुझसे लिया है प्रसाद -रूप, तुमने मुझसे कहा कि आप दे दें अगर मुझे पात्र मानते हों, और तुमने कोई चुनाव नहीं किया तो सपने में छाया नहीं बनेगी। अगर तुमने चुना, तुमने सोचा, सोचा, बार-बार चिंतन किया, पक्ष-विपक्ष देखा, तर्क -वितर्क जुड़ाया, फिर तुमने संन्यास लिया-तो छाया बनेगी। अजित ने खुब सोच-सोच कर संन्यास लिया। इसलिए छाया रह गई है। अब तुम संन्यास को प्रसाद-रूप कर लो। अब तुम यह भाव ही छोड़ दो कि मैंने लिया। अब तो तुम यही समझो कि तुम्हें दिया गया-प्रभु –प्रसाद, प्रभु-अनुकंपा! यह मेरा चुनाव नहीं। और जो तुम्हारे भीतर दबा हुआ भाव रह गया है, उसको भी अंगीकार कर लो कि वह है; वह तुम्हारे अतीत में था, उसकी छाया रह गई है। स्वीकार करते ही धीरे से यह सपना विदा हो जाएगा। और संन्यास को प्रसाद-रूप जानो। हालांकि चाहे तुमने सोच कर ही लिया हो, अगर तुम किसी दिन सत्य को समझोगे तो तुम पाओगे; तुमने लिया नहीं, मैंने दिया ही है। कुरान में एक बड़ा अदभुत वचन है। वचन है कि फकीर कभी सम्राट या धनपतियों के दवार पर न जाए। जब भी आना हो, सम्राट ही फकीर के द्वार पर आए। जलालुद्दीन रूमी बड़ा पहुंचा हुआ सिद्ध फकीर हआ। उसे उसके शिष्यों ने देखाएक दिन कि वह सम्राट के राजमहल गया। शिष्य बड़े बेचैन हुए। यह तो कुरान का उल्लंघन हो गया। जब जलालुद्दीन वापिस लौटा तो उन्होंने कहा कि गुरुदेव, यह तो बात उल्लंघन हो गई। और आप जैसा सत्युरुष चूक करे! कुरान में साफ लिखा है कि कभी फकीर धनपति या राजाओं या राजनीतिज्ञों के द्वार पर न जाए। अगर राजा को आना हो तो फकीर के दवार पर आए।

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