Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 398
________________ पाप को तो तुम पुण्य को तलघरे में फेंकोगे। फर्क ही क्या है? जिसको हम पुण्यात्मा कहते हैं, उस आदमी ने पाप को भीतर दबा लिया है, पुण्य को बाहर प्रगट कर दिया है। जिसको हम पापी कहते हैं, उसने उल्टा किया है. पुण्य को भीतर दबा लिया, पाप को बाहर प्रगट कर दिया। लेकिन सभी चीजें दोहरी हैं; जैसी सिक्के के दो पहलू हैं। 'तो जब पहले स्वप्न देखता था भीड़ में, सभा में, समाज में तो देखता था, अचानक नग्न हो गया हूं!' जिस दिन पहली दफा ' अजित' को मां-बाप ने वस्त्र पहनाए होंगे, उसी दिन छाया पैदा हो गई। बच्चे पसंद नहीं करते वस्त्र पहनना । उनको जबर्दस्ती सिखाना पड़ता है, धमकाना पड़ता है, रिश्वत देनी पड़ती है कि मिठाई देंगे, कि यह टाफी ले लो, कि यह चाकलेट ले लो, कि इतने पैसे देंगे - मगर कपड़े पहन कर बाहर निकलो तो बच्चे के मन में तो नग्न होने का मजा होता है; क्योंकि बच्चा तो जंगली है, वह तो आदिम है। वह कोई कारण नहीं देखता कि क्यों कपड़े पहनो ? कोई वजह नहीं है। और कपड़े के बिना इतनी स्वतंत्रता और मुक्ति मालूम होती है, नाहक कपड़े में बंधों । और फिर झंझटें कपड़े के साथ आती हैं कि तुम कपड़ा फाड़ कर आ गए कि मिट्टी लगा लाए ! अब यह बड़े मजे की बात है कि यही लोग कपड़ा पहनाते हैं और यही लोग फिर कहते हैं कि अब कपड़े को साफ-सुथरा रखो, अब इसको गंदा मत करो। उसने कभी पहनना नहीं चाहा था। एक मुसीबत दूसरी मुसीबत लाती है। फिर सिलसिला बढ़ता चला जाता है। फिर अच्छे कपड़े पहनो, फिर सुंदर कपड़े पहनो, फिर सुसंस्कृत कपड़े पहनो - प्रतिष्ठा योग्य ! फिर यह जाल बढ़ता जाता है। धीरे - • धीरे वह जो मन में बचपन में नग्न होने की स्वतंत्रता थी, वह तलघर में पड़ जाती है। वह कभी-कभी सपनों में छाया डालेगी। वह कभी-कभी कहेगी कि क्या उलझन में पड़े हो पू कैसा मजा था तब ! कूदते थे, नाचते थे! पानी में उतर गए तो फिक्र नहीं। वर्षा हो गई तो खड़े हैं, फिक्र नहीं। रेत में लोटे तो फिक्र नहीं। इन कपड़ों ने तो जान ले ली। इन कपड़ों से मिला तो कुछ भी नहीं है, खोया बहुत कुछ। तो वह भीतर दबी हुई आकांक्षा उठ आती होगी। वह कहती है 'छोड़ दो, अब तो छोड़ो, बहुत हो गया, क्या पाया? वस्त्र ही वस्त्र रह गए आत्मा तो गंवा दी, स्वतंत्रता गंवा दी !' इसलिए सपने में नग्न हो जाते रहे होओगे । फिर पूछा है कि 'जब से संन्यास लिया, वैसा स्वप्न आना बंद हो गया । ' साफ है प्रतीक। संन्यास तुमने लिया - मां-बाप ने नहीं दिलवाया। कपड़े मां-बाप ने पहनाए थे, तुम पर किसी न किसी तरह की जबर्दस्ती हुई होगी। यह संन्यास तुमने स्वेच्छा से लिया यह तुमने अपने आनंद से लिया। ये वस्त्र तुमने अपने प्रेम से चुने तुमने अहोभाव से चुने। निश्चित ही इन वस्त्रों से तुम्हारा जैसा मोह है वैसा दूसरे वस्त्रों से नहीं था। इन वस्त्रों से जैसा तुम्हारा लगांव है वैसा दूसरे वस्त्रों से नहीं था। इसलिए नग्नता का स्वप्न तो विलीन हो गया, वह पर्दा गिरा, वह बात खत्म हो गई। वे वस्त्र ही तुमने गिरा दिए, जिनके कारण नग्नता का स्वप्न आता था। उन्हीं वस्त्रों से जुड़ा था नग्नता का

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