Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 395
________________ जलनिधि तैर चला आया मैं, उथला तट प्रतिरोध बन गया। साध्य विमुक्त स्वयं से होना, वंद्व विगत क्या पाना खोना, हुआ समन्वय सबसे लेकिन निज से वही विरोध बन गया, सूक्ष्म ग्रंथि में यह रेशम मन, सुलझाने में उलझा चेतन, क्रिया अहं से इतनी दूषित, शोधन ही प्रतिशोध बन गया। हिमगिरि लांघ चला आया मैं लघु कंकर अवरोध बन गया। बड़े पहाड़ आदमी पार कर लेता है, छोटा-सा कंकर अटका लेता है। हाथी आसानी से निकल जाता है, पूंछ ही मुश्किल से निकलती है पूंछ ही अटक जाती है। जलनिधि तैर चला आया मैं उथला तट प्रतिरोध बन गया। बहुत लोग हैं जो सागर तो तैर जाते हैं, फिर किनारे से उलझ जाते हैं। महावीर के जीवन में बड़ा मीठा उल्लेख है। महावीर का प्रधान शिष्य था : गौतम गणधर। वह वर्षों महावीर के साथ रहा, लेकिन मुक्त न हो सका। वह सबसे ज्यादा प्रखर-बुद्धि व्यक्ति था महावीर के शिष्यों में। उसकी बेचैनी बहुत थी। वह बहुत मुक्त होना चाहता था उसकी आकांक्षा में कोई कमी न थी और वह सोचता था : ' अब और क्या करूं? सब दाव पर लगा दिया। सब जीवन आहूति बना दिया। अब मोक्ष क्यों नहीं हो रहा है? लेकिन यह बात उसकी समझ में नहीं आती थी कि यही बात बाधा बन रही है। यह जो आग्रह है, यह जो आकांक्षा है कि मोक्ष क्यों नहीं हो रहा-यही बेचैनी यही तनाव खड़ा कर रही है। यह मोक्ष की आकांक्षा भी अहंकार-जन्य है। यह अहंकार का आखिरी खेल है। अब वह मोक्ष के नाम पर खेल रहा है। महावीर की मृत्यु हुई तो उस दिन गौतम बाहर गया था। कहीं पास के गांव में उपदेश करने गया था। लौटता था तो राहगीरों ने कहा कि तुम्हें पता नहीं, महावीर तो छोड़ भी चुके देह? तो वह वहीं रोने लगा। रोते -रोते उसने इतना पूछा राहगीरों से कि मेरे लिए कोई अंतिम संदेश छोड़ा है? क्योंकि वह निकटतम शिष्य था और महावीर की उसने अथक सेवा की थी, और सब दाव पर लगाया

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