Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

View full book text
Previous | Next

Page 365
________________ प्रसन्न हूं क्योंकि प्रसन्न होना स्वाभाविक है और होने को है ही क्या ? वजीर से पूछा सम्राट ने एक दिन कि इसका राज खोजना पड़ेगा। यह नाई इतना प्रसन्न है कि मेरे मन में ईर्ष्या की आग जलती है कि इससे तो बेहतर नाई ही होते । यह सम्राट हो कर क्यों फंस गए ? न रात नींद आती, न दिन चैन है; और रोज चिंताएं बढ़ती ही चली जाती हैं। घटना तो दूर, एक समस्या हल करो, दस खड़ी हो जाती हैं। तो नाई ही हो जाते। वजीर ने कहा, आप घबडाएं मत । मैं उस नाई को दुरुस्त किए देता हूं । वजीर तो गणित में कुशल था। सम्राट ने कहा, क्या करोगे? उसने कहा, कुछ नहीं। आप एक-दो - चार दिन में देखेंगे। वह एक निन्यानबे रुपये एक थैली में रख कर रात नाई के घर में फेंक आया। जब सुबह नाई उठा, तो उसने निन्यानबे गिने, बस वह चिंतित हो गया। उसने कहा, बस एक रुपया आज मिल जाए, तो आज उपवास ही रखेंगे, सौ पूरे कर लेंगे! बस, उपद्रव शुरू हो गया। कभी उसने इकट्ठा करने का सोचा न था, इकट्ठा करने की सुविधा भी न थी । एक रुपया मिलता था, वह पर्याप्त था जरूरतों के लिए। कल की उसने कभी चिंता ही न की थी। 'कल' उसके मन में कभी छाया ही न डालता था, वह आज में ही जीया था। आज पहली दफा 'कल' उठा। निन्यानबे पास में थे, सौ करने में देर ही क्या थी! सिर्फ एक दिन तकलीफ उठानी थी कि सौ हो जाएंगे। उसने दूसरे दिन उपवास कर दिया। लेकिन, जब दूसरे दिन वह आया सम्राट के पैर दबाने, तो वह मस्ती न थी, उदास था, चिंता में पड़ा था, कोई गणित चल रहा था। सम्राट ने पूछा, आज बड़े चिंतित मालूम होते हो? मामला क्या है? उसने कहा : नहीं हजूर, कुछ भी नहीं, कुछ नहीं सब ठीक है। मगर आज बात में वह सुगंध न थी जो सदा होती थी। 'सब ठीक है - ऐसे कह रहा था जैसे सभी कहते हैं, सब ठीक है। जब पहले कहता था तो सब ठीक था ही। आज औपचारिक कह रहा था। सम्राट ने कहा, नहीं मैं न मानूंगा। तुम उदास दिखते हो, तुम्हारी आंख में रौनक नहीं । तुम रात सो ठीक से त्र उसने कहा, अब आप पूछते हैं तो आपसे झूठ कैसे बोलूं रात नहीं सो पाया। लेकिन सब ठीक हो जाएगा, एक दिन की बात है। आप घबडाएं मत । लेकिन वह चिंता उसेकी रोज बढ़ती गई। सौ पूरे हो गए, तो वह सोचने लगा कि अब सौ तो हो ही गए; अब धीरे - धीरे इकट्ठा कर लें, तो कभी दो सौ हो जाएंगे। अब एक-एक कदम उठने लगा। वह पंद्रह दिन में बिलकुल ही ढीला-ढाला हो गया, उसकी सब खुशी चली गई। सम्राट ने कहा, अब तू बता ही दे सच - सच, मामला क्या है? मेरे वजीर ने कुछ किया? तब वह चौंका। नाई बोला, क्या मतलब? आपका वजीर ? अच्छा, तो अब मैं समझा। अचानक मेरे घर में एक थैली पड़ी मिली मुझे - निन्यानबे रुपए । बस, उसी दिन से मैं मुश्किल में पड़ गया हूं । निन्यानबे का फेर! सारे अनर्थ की जड़ में कहीं अर्थ है। दुनिया में आज पर्याप्त संपत्ति है कि सभी लोग सुखी

Loading...

Page Navigation
1 ... 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407