Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 383
________________ वही सवेरा । बेला खिल जाता रात में, शतदल खिलता है सुबह प्रभात में, खिलने के लिए न तो रात है न दिन है। जाग जाता है आदमी हर स्थिति में । सवेरा ही जागने के लिए जरूरी नहीं है, आधी रात में भी आदमी जाग जाता है। खिलता है रात में बेला प्रभात में शतदल, नहीं है अपेक्षित स्फुटन के लिए उजाला, अंधेरा । जागे जिस क्षण चेतना वही सवेरा । और जागना है तो जागने के लिए कुछ भी और करना जरूरी नहीं है, सिर्फ जागना ही जरूरी है; आंख खोलना जरूरी है। आंख की पलक में ही सब छिपा है, आंख की ओट में ही सब छिपा है। कभी तुमने देखा, आंख में छोटी-सी किरकिरी चली जाती है, रेत का एक टुकड़ा चला जाता है, कचरा चला जाता है- और आंख की देखने की क्षमता समाप्त हो जाती है। ऐसे आंख हिमालय को भी समा लेती है। देखो जा कर हिमालय को, सैकड़ों मील तक फैले हुए हिम-शिखर, सब आंख में दिखाई पड़ते हैं। छोटी-सी आंख ऐसे हिमालय को समा लेती है, लेकिन छोटी-सी कंकरी से हार जाती है। और कंकरी आंख में पड़ जाए तो हिमालय दिखाई नहीं पड़ता; कंकरी की ओट में हिमालय हो जाता है। जरा कंकरी अलग कर देने की बात है। अष्टावक्र की देशना इतनी ही है कि जरा-सी समझ, जरा-सी पलक का खुलना - और सब जैसा होना चाहिए वैसा है ही; कुछ करने को नहीं है; कहीं जाने को नहीं है; कुछ पाने को नहीं है। खुले नयन से सपने देखो, बंद नयन से अपने । अपने तो रहते हैं भीतर, बाहर रहते सपने। नाम-रूप की भीड़ जगत में, भीतर एक निरंजन । सुरति चाहिए अंतर्दृग को, बाहर दृग को अंजन | देखे को अनदेखा कर रे, अनदेखे को देखा। क्षर लिख-लिख तू रहा निरक्षर, अक्षर सदा अलेखा । समझो - खुले नयन से सपने देखो, बंद नयन से अपने । अपने तो रहते हैं भीतर, बाहर रहते सपने। जो भी बाहर देखा है, सपना है। अपने को देखना है - तो भीतर ! जो भी बाहर देखा, उसे अगर पाना चाहा तो बड़ी दौड़ दौड़नी पड़ेगी, फिर भी मिलता कहां ? दौड़ पूरी हो जाती है-हाथ कुछ भी नहीं आता।

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