Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 02
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 343
________________ तुमने देखा, छोटे-छोटे पक्षियों को उनके मां-बाप अपने साथ उड़ाते हैं। उनके पंख अभी कमजोर हैं, लेकिन मां-बाप साथ जा रहे हैं तो वे भी हिम्मत करते हैं। थोड़ी दूर जाते हैं, फिर थक कर लौट आते। फिर दूसरे दिन और थोड़ी दूर जाते, फिर थक कर लौट आते। फिर तीसरे दिन और थोड़ी दूर जाते। एक दिन, दूर सारा आकाश उनका अपना हो जाता है। फिर मां-बाप के साथ जाने की जरूरत भी नहीं होती, फिर वे अकेले जाने लगते हैं। ऐसा ही है परमात्मा का अनुभव। गुरु के साथ थोड़ा थोड़ा उड़ कर तुम्हारे पंख मजबूत हो जाएं। थोड़ा-थोड़ा जाते-जाते, तुम्हारी हिम्मत बढ़ती जाएगी। श्रद्धा, स्वयं पर भरोसा पैदा होगा। एक दिन गुरु की कोई जरूरत न रह जाएगी-तुम्हारे भीतर का गुरु जग गया! बाहर का गुरु तो भीतर के गुरु को जगाने का एक उपाय मात्र है। 'जन्मों-जन्मों से जिसकी मुझे खोज थी, वह प्रेम और आनंद मुझे अयाचित गुरु-प्रसाद के रूप में मिल गया।' अगर तुम याचना-शून्य हो तो मिलेगा। अगर तुम गुरु के पास हो तो प्रसाद बरसेगा। पास होने से ही बरसता है, कुछ करने की बहुत बात नहीं है। कोई पहुंच गया उसकी मौजूदगी में तुम्हारा जीवन भी उस धारा में बहने लगता है। कोई पहुंच गया है, उसके साथ-साथ तुम भी उठने लगते हो आकाश की तरफ; गुरुत्वाकर्षण का वजन तुम पर कम होने लगता है। कोई उड़ चुका किसी ने जान लिया कि उड़ने की घटना होती है, घटती है! किसी का सारा आकाश अपना हो गया! उसकी मौजूदगी में तुम भी अपने पंख धीरे - धीरे फड़फड़ाने लगते हो। बस इतना ही। 'मैं तो इसका पात्र भी नहीं था।' जब भी यह घटना घटेगी, तो निश्चित यह भी अनुभव में आएगा कि मैं इसका पात्र नहीं था। क्योंकि परमात्मा इतनी बड़ी घटना है कि कोई भी उसका पात्र नहीं हो सकता। जो कहे कि मैं पात्र था, उसे तो परमात्मा घटता ही नहीं। अपात्र को घटता नहीं, क्योंकि अपात्र तैयार नहीं। सुपात्र को घटता है, लेकिन तभी, जब सुपात्र कहता है. मैं बिलकुल अपात्र हूं। यह विरोधाभास देखते हो अपात्र को घटता नहीं, क्योंकि उसका पात्र तैयार नहीं, फूटा है, जगह-जगह से टूटा है, अगर ठीक भी है, तो उल्टा रखा है। बरसते रहो लाख उस पर, सब बह जाएगा, उसमें न भरेगा। या, सीधा भी रखा है तो ढक्कन बंद है। उसका ढक्कन भीतर न जाने देगा; खुला नहीं है; कुछ भीतर लेने को राजी नहीं है। अपात्र को तो कभी परमात्मा नहीं घटता, सुपात्र को घटता है। सुपात्र का अर्थ है, जिसमें छिद्र नहीं! सुपात्र का अर्थ है, जो उल्टा नहीं रखा। सुपात्र का अर्थ है, जो सीधा रखा है। सुपात्र का अर्थ है, जिसका ढक्कन खुला है, ढक्कन बंद नहीं। बस, यही तो शिष्यत्व है। लेकिन, सुपात्र का एक अनिवार्य अंग है. यह भाव कि मैं बिलकुल अपात्र हूं। मैं इतना छोटा सा पात्र, इतनी बड़ी घटना मुझमें घटेगी कैसे! तुम सीधे भला रखे रहो, ढक्कन खोल कर रखे रहो, छिद्र भी नहीं है, तो भी इतनी बड़ी घटना मुझमें घट सकती है-यह कभी भरोसा नहीं आता। जब घट जाता है, तब भी भरोसा नहीं आता। सूफी फकीर कहते हैं कि संसार से परमात्मा को जोड़ने वाला जो सेतु है, उसके इस पार खड़े

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