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निर्विकार परमात्म स्वरुप का करंट मुझ में आये । इन राग, द्वेष, तृष्णा आदि विकारों से मैं थक गया हूं, जो मुझे असत् प्रवृति कराते है । परंतु प्रभु ! अब आपके चरण स्पर्श से मेरे ये विकार शान्त हो जायें ।'
महापुरूष के चरणों में करस्पर्श, शिरस्पर्श- यह विनय है, नम्रता है । इसीलिये अंगूठे पर तिलक करते हुए अहोभाग्य मानना कि, "ओह ! मुझे मेरे तीर्थंकर भगवान जैसों के आगे नम्रता रखने को मिल रही है, उनका विनय करने का अवसर मिल रहा हे । नम्रता न जागी हो तो भी प्रभुचरणों में तिलक द्वारा करस्पर्श नम्रता का उत्तेजक है ऐसी भावना रखना कि हे प्रभु! मुझमें नम्रता आये, आपके आगे मेरा अहंत्व न रहे, मुझे सदा आपकी शरण हो ।'
अत :
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